04 जून 2009

हारा नहीं सर्वहारा और सामाजिक न्याय

अमलेन्दु उपाध्याय

उत्तार प्रदेश-बिहार में लालू मुलायम की हार सामजिक न्याय की हार नहीं है और बंगाल-केरल में वाममोर्चा की हार वामपंथ की हार नहीं है। इस चुनाव में दल हारे हैं, विचारधाराएं नहीं
क्या संयोग है कि विगत बीस वर्षों से उत्तार प्रदेश और बिहार की धरती पर सामाजिक न्याय का डंका बजाने वाली ताकतें जिस समय हारी हैं ठीक उसी समय पिछले तीस वर्षों से सर्वहारा अधिनायकवाद की माला जपने वाले वामपंथी दल भी अपने गढ़ में धराशायी हो गए हैं। क्या इसका मतलब यह निकाला जाए कि सामाजिक न्याय और सर्वहारा की बात करने वालों के दिन अब लद गए हैं? लेकिन लालू-मुलायम और वाममोर्चा की हार पर इस तरह के निष्कर्ष निकालना न केवल जल्दबाजी होगी बल्कि सत्य से बचना भी होगा। सही बात तो यह है कि न सामाजिक न्याय पहले जीता था और न अब हारा है, ठीक उसी तरह बंगाल और केरल में हार वाममोर्चा की हुई है, सर्वहारा की विचारधारा वामपंथ की नहीं।
थोड़ा पीछे जाकर देखने पर मालूम पड़ता है कि लालू- मुलायम बात सामाजिक न्याय की जरूर करते रहे हैं, लेकिन उनकी जीत में मुख्य कारक एम-वाई समीकरण ही होता था। वैसे भी जिन पिछड़ी जातियों के लिए मंडल दिया गया था उनमें से अधिकांश हिंदी पट्टी में हिंदुत्व की प्रयोगशाला के साथ रही हैं। तेली, तमोली, कोरी, कोइरी, शाक्य, कुशवाहा, काछी, लोधा, कुर्मी, नाई, लोनिया, रजक आदि पिछड़ी जातियां उत्तार प्रदेश में तो पूरी निष्ठा के साथ भाजपा को ऊर्जा प्रदान करती रही हैं। जबकि बिहार में इनमें से कई अति पिछड़ी जातियां बेशक लालू यादव को संबल देती रही हैं। लेकिन उत्तार प्रदेश और बिहार में सामाजिक न्याय का पर्याय बने लालू- मुलायम की राजनीति सिर्फ यादव मतों के इर्द- गिर्द ही घूमती रही है।
उत्तार प्रदेश में तो बसपा ने अति पिछड़ों में सेंध लगाई। वे पिछड़ी जातियां जो मंडल की मलाई नहीं चख पा रही थीं उन्हें बसपा में स्थान मिला। जबकि बिहार में नीतीश कुमार ने कुर्मी मतों पर कब्जा करने के बाद अति पिछड़ों को लालू से झटक लिया। अब अगर लालू को बिहार में नुकसान हुआ है तो यह सामाजिक न्याय की हार कैसे है? जब लालू- मुलायम की जीत ही सामाजिक न्याय की जीत नहीं थी ऐसे में किस आधार पर कहा जा सकता है कि सामाजिक न्याय के दिन लद गए?
समाजवादी पार्टी की सीटें बेशक काफी कम हो गई हैं। लेकिन अब वह 'यादव-अमर एंड यादव कंपनी' नहीं रह गई है। कल्याण सिंह के साथ आने के बाद सपा से लोध वोट फिलहाल तो कुछ क्षेत्रों में जुड़ गया है, जो निश्चित रूप से सामाजिक न्याय के लिहाज से सपा की उपलब्धि है। भले ही उसका एम-वाई समीकरण बिगड़ गया है, लेकिन जिस सामाजिक न्याय के गीत सपा ऊपरी मन से गाती रही है, उसके लिए तो बढ़त ही है। उत्तार प्रदेश में सपा को नुकसान उसका मुस्लिम वोट खिसक जाने से हुआ है, जिसका सीधा फायदा कांग्रेस को मिला। इसी तरह मिर्जापुर में पूर्व दस्यु सरगना ददुआ के भाई बाल कुमार पटेल को चुनाव मैदान में उतारकर सपा ने बड़ी संख्या में कुर्मी मतों पर कब्जा कर लिया। इससे बसपा व भाजपा को करारा झटका लगा। यह बालकुमार का ही प्रभाव था कि सपा बुदेलखंड में नंबर एक की पार्टी बन गई और सारे देश में कांग्रेस का प्रभाव बढ़ाने के लिए जिन युवराज राहुल गांधी की स्तुति करते कांग्रेसी थक नहीं रहे है, वह राहुल गांधी भी बुंदेलखंड में बुरी तरह विफल हो गए। जबकि राहुल ने बुंदेलखंड में पला ढोने से लेकर धरना देने तक क्या- क्या जतन नहीं किए थे।
गौरतलब है कि कांग्रेस को उत्तार प्रदेश और बिहार में लालू मुलायम के कमजोर होने से पिछड़ा वोट नहीं मिला। बिहार में अन्य पिछड़ा वोट घूम फिरकर सामाजिक न्याय की बात करने वाले नीतीश कुमार के साथ ही गया है। जबकि उत्तार प्रदेश में यह वोट बड़ी संख्या में बसपा को भी मिला है।
'सर्वहारा अधिनायकवाद' और 'जो धरती को जोते- बोए वो धरती का मालिक है' का नारा लगाकर व भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करके पिछले तीन दशक से प. बंगाल की धरती पर एकछत्र राज कर रहे वामपंथी दलों की भी इस चुनाव में दुर्गति हो गई। केरल में भी वामपंथी दल काफी पिछड़ गए। बंगाल का मामला केरल से कुछ भिन्न है। केरल में तो वामदलों के अंदर मची गुटबाजी और घटक दलों में मतभेद के कारण वाममोर्चा की हार हुई। साथ ही मदनी की पीडीपी से गठजोड़ ने वामदलों के सांप्रदायिकता विरोध पर प्रश्नचिंह लगा दिया। यह कैसे हो सकता है कि तस्लीमा नसरीन को देश निकाला देने के लिए वामदल मुस्लिम कट्टर पंथियों के सामने घुटने टेक दे और मदनी से साझा भी कर ले और नरेंद्र मोदी को कोसते रहें। केरल में मदनी फैक्टर ने भी वाममोर्चा को हराने में अहम रोल अदा किया।
केरल में माकपा के राज्य सचिव विजयन और मुख्यमंत्री वी.एस. अच्युतानंदन के बीच झगड़े और सार्वजनिक बयानवाजी का भी वाममोर्चा के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ा।
जबकि बंगाल में वामदलों को अपनी विचारधारा से हटने और बड़े पूंजीपतियों के पिछलग्गू बनने का खमियाजा भुगतना पड़ा। नंदीग्राम और सिंगुर के प्रकरण से माकपा को खासतौर पर बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इस आंदोलन के चलते कई बड़े वामपंथी बुध्दिजीवी वाममोर्चा के खिलाफ हो गए। यहां वाममोर्चा का वैचारिक दिवालियापन साफ उजागर हुआ जिसका तृणमूल कांग्रेस ने भरपूर फायदा उठाया। ऐसा नहीं है कि तृणमूल कांग्रेस सर्वहारा और मजदूर किसान को गाली देकर आगे बढ़ी बल्कि ममता बनर्जी ने उन्हीं सिध्दांतों और नारोें को अपनाया जिन्हें वाममोर्चा के लोग पिछले तीस वर्षों से लगाते आ रहे थे।
सुप्रसिध्द लेखिका महाश्वेता देवी ने तो ममता बनर्जी को अतिवामपंथी भी करार दे दिया था और स्वयं ममता ने भी चालाकी भरा वक्तव्य दिया था कि उनकी लड़ाई वामपंथ से नहीं बल्कि वाममोर्चा की किसान विरोधी नीतियों से है। ममता के पूरे आंदोलन के दौरान उसकी कमान माओवादियों ने ही संभाली और 'सोशलिस्ट यूनिटी सेंटर ऑफ इंडिया' (एसयूसीआई) ने तो इस दौरान खुलकर ममता बनर्जी का साथ दिया।
एक और अन्य महत्वपूर्ण कारक माकपा की अपने सहयोगी वाम दलों से दादागिरी वाला व्यवहार रहा। वाममोर्चा की प्रमुख घटक भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की पोलित ब्यूरो ने तो दबे स्वर से माकपा पर इस तरह के आरोप लगाए भी हैं। माकपा ने अपने अंतर्विरोधों से जिन महत्वपूर्ण पुराने साथियों को बाहर का रास्ता दिखाया उनके लिए उसने सहयोगी वामदलों के भी रास्ते नहीं खुलने दिए। अगर सैफुद्दीन चौधरी जैसे लोग माकपा से निकाले जाने के बाद भाकपा या आरएसपी द्वारा आत्मसात कर लिए गए होते तो आज वाममोर्चा की जो दुर्गति हुई, संभवत: वह नहीं हुई होती। इसी तरह माकपा ने केरल में आरएसपी के साथ गठबंधन टूटने की परिस्थितियां पैदा कर दीं।
वामपंथी दलों की एक परिपाटी रही है कि वहां नेता महत्वपूर्ण नहीं होता बल्कि पोलित ब्यूरो में ही सामूहिक निर्णय लिया जाता है। लेकिन बंगाल के मुख्यमंत्री बुध्ददेव भट्टाचार्य का आचरण पूरी तरह कम्युनिस्ट नैतिकता के खिलाफ था। बुध्ददेव का टाटा के साथ दोस्ताना संबंध और उसके बाद नंदीग्राम और सिंगुर में पुलिस का उसी तरह इस्तेमाल जैसे खम्मम में वाई एस राजशेखर रेड्डी कर रहे थे, वाममोर्चा की हार का प्रमुख कारण रहा। नंदीग्राम और सिंगुर को बुध्ददेव ने अपनी व्यक्तिगत प्रतिष्ठा से जोड़ रखा था। इसलिए माकपा को बंगाल में जबर्दस्त नुकसान हुआ। बुध्द बाबू का औद्योगिकीकरण का नारा मिखाइल गोर्बाचौफ का 'पेरेस्त्रोइका' और 'ग्लास्नोस्त' साबित हुआ।
जाहिर है कि उत्तार प्रदेश-बिहार में लालू मुलायम की हार सामजिक न्याय की हार नहीं है और बंगाल-केरल में वाममोर्चा की हार वामपंथ की हार नहीं है। इस चुनाव में दल हारे हैं, विचारधाराएं नहीं।
( लेखक राजनीतिक समीक्षक हैं और पाक्षिक पत्रिका 'प्रथम प्रवक्ता' के संपादकीय विभाग में कार्यरत हैं।)

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