04 जून 2009

लोकतंत्र की नर्सरी के बिना कैसा लोकतंत्र


राजीव यादव

छात्र संघ ? हमारे आधे शताब्दी से थोड़े ज्यादा पुराने लोकतंत्र में यह महज सवाल बन कर रह गया है। दशकों से छात्र राजनीति पर नकेल कसने की फिराक में बैठे लोंगों ने आखिरकार 15 वीं लोकसभा के आते-आते इस पर अघोषित आपातकाल थोप ही दिया। पिछले कुछ वर्षों से एक नई बहस स्थापित की जा रही है कि गैर सरकारी संगठन चुनाव लड़ेगे क्योंकि आम-आदमी के मुद्दों पर राजनीति नहीं हो रही है। ऐसे में यह बड़ा दिलचस्प पहलू है कि एक राजनैतिक पाठशाला को बंद कर ये माहौल बनाया जा रहा है। क्योंकि ये गैर सरकारी संगठन कितने सरकारी हैं ये बात किसी से अब छुपी नहीं रह गयी है। यंगिस्तान के हो-हल्ले में इस कटु सच्चाई को दबा सा दिया गया है। विडंबना तो ये है कि जिन लोगों ने 77 में इस आधुनिक लोकतंत्र की जनता को पहली बार सरकार बदलना सिखाया था उनमें और उस ‘मजबूत दरख्त’ वाली सरकार में कोई फर्क नहीं रह गया है। वे एक ही पाले में घूमते फिरते नजर आ रहे हैं। इन सबके बीच युवाओं की ‘पप्पू’ वाली छवि निर्माण कर राजनीत अपने लिए ऐसी जनता निर्माण कर रही है जो उसके ‘युवा सम्राटों’ की दरबारी करे।
बहरहाल छात्र राजनीति पूरे देश में एक खांचे में बध कर कभी नहीं रही है। छात्र राजनीति में मील का पत्थर साबित हुए असम में क्षेत्रियता और राष्ट्रियता के उभार पर छात्र राजनीति पनपी, पर जल्द ही मुख्य धारा की राजनीति ने उसे दिग्भ्रमित कर सांप्रदायिक रुप दे दिया। कश्मीर जिसे शुरुवाती दौर से ही हिंदुस्तान सैनिक तंत्र पर नियंत्रित किए हुए है वहां भी शुरुवाती दौर में प्रगतिशील छात्र आंदोलन रहा है। पर सोची समझी रणनीति के तहत उस आंदोलन के ऊर्जावान युवा को दबाकर उसे प्रतिक्रियावादी ताकतों के खेमे में जाने को मजबूर किया ताकि उन आवाजों को राष्ट्रवाद के नाम पर दबाया जा सके। तो वहीं पंजाब में छात्र संगठनों के तेवर इतने तीखे थे कि सिख स्टूडेंट फडरेशन सरीखे संगठनों को प्रतिबंधित करना पड़ा। हाल में पश्चिम बंगाल जहां सीपीएम की सरकार है वहां पर नंदीग्राम जैसी घटनाओं के बाद एसएफआई जैसे संगठनों की तरफ से मुखर आवाज न उठना उनके विश्वसनियता पर सवाल उठा चुका है।
आज जब लोकतंत्र के पतन पर ‘चिन्ता’ व्यक्त की जा रही तब ऐसे में देश की राजनीति को नियंत्रित करने वाले यूपी और बिहार के बारे में बात करना जरुरी हो जाता है। मुख्य धारा की राजनीति और छात्र राजनीति का सबसे गहरा संबंध बिहार में रहा। सामाजिक कार्यकर्ता अनिल चमड़िया बताते हैं कि 80 के दौर में भी पिछड़े व दलित तबके के छात्रों का प्रवेश पाना आसान नहीं हुआ करता था। जो छात्र आंदोलनों से ही संभव हो सका। सामाजिक न्याय केंद्रित आंदोलनों ने एक यथार्थवादी नेतृत्व तैयार किया। उस दौर में जय प्रकाश नारायन और कर्पूरी ठाकुर के आंदोलन से कोई छात्र-नौजवान अछूता नहीं था। पर आज लंबे समय से इस ऊर्वरक खेत को वही बंजर बनाने में लगे हैं जो इसकी उपज थे। इसके पीछे यह महत्वपूर्ण कारण था कि जो छात्र राजनीति मूलतः विपक्ष की राजनीति होती है उसके नेतृत्व करने वाले ही सत्ता में आ गए थे। जिन्होंने उसके तेवर पर दलाली की सान धरायी। क्योंकि उनका चरित्र बदल गया था और वे सड़क पर उतरने वाले छात्रों के चरित्र से भली-भांति वाकिब थे।
यही हाल यूपी में भी हुआ। फर्क इतना था कि मंडल की उपज मुलायम सिंह यादव को उस दौर में अपनी राजनीति के लिए नौजवानों की जरुरत थी जो जल्द ही पूरी हो गई। बीएचयू में नक्सल धारा के छात्र संगठन आइसा से छात्र संघ अध्यक्ष हुए आनंद प्रधान कहते हैं कि छात्र राजनीति के लंपटीकरण का दौर संजय गांधी से शुरु होता है। पहले तो संजय को स्थापित करने के लिए तमाम प्रकार के सत्ता प्रयोजित संगठनों का प्रपंच बनाया गया और आज वही काम तथाकथित युवा सम्राटों के लिए किया जा रहा है। यहां गौर करने की बात है कि मंडल के बाद सामाजिक न्याय मोर्चे के बैनर तले पिछडे़ व दलित समुदाय के लोगों ने छात्र राजनीति में दखल बनायी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के सवा सौ साल पुराने इतिहास में पहली बार 98 में पिछड़ी जाति के कृष्ण मूर्ती यादव इसी बैनर तले छात्र संघ अध्यक्ष बनें। इस संगठन की प्रासंगिकता को देखते हुए इस पर अपने वारिसों को काबिज कराने के लिए मुलायम ने इसे समाजवादी छात्र सभा के रुप में तब्दील कर सामाजिक न्याय के असली वारिसों को अपने रास्ते से हटा दिया जिसे हम हासिए पर खड़े कृष्ण मूर्ती यादव के राजनैतिक हैसियत में देख सकते हैं। 90 के दशक में छात्र राजनीति में आया यह उभार मूलतः जातिय अस्मिता का उभार था। पर यह अस्मिता अपने को स्थापित करने की नहीं वरन् समाहित करने वाली थी जिसे जल्द ही सत्ता ने अपने आगोश में ले लिया। इस संस्कृतिकरण को हम इस छात्र उभार का नेतृत्व करने वाली मातृ पार्टी सपा में देख सकते हैं।
यूपी और बिहार की छात्र राजनीति की संसद वाराणसी हुआ करती थी जहां वह एक दूसरे से अन्तः क्रिया करती थी। धूमिल के शब्दों में ‘एशिया की सबसे बड़ी लांड्री।’ अस्सी घाट के पप्पू की चाय की दुकान आज भी गर्मागर्म राजनीतिक बहसों का अखाड़ा बनी हुई है। इस पूरे दौर को नजदीक से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार मोहन सिंह बड़ी संजीदगी से कहते हैं कि उस दौर में गया सिंह, नामवर सिंह, शिव प्रसाद सिंह जैसे लोग यहां तीखी और गंभीर राजनैतिक बहसें किया करते थे पर अब वो बात नहीं रह गयी। यहां से पूर्वांचल ही नहीं बिहार की राजनीति पर भी हस्तक्षेप रखा जाता था। बहुचर्चित छात्र नेता रहे अंग्रेजी विरोधी आंदोलन के अगुवा दिवंगत देवव्रत मजूमदार को दादा कहते हुए कहते हैं कि उस दौर में चाहे जो भी राजनीति करता रहा हो लेकिन दादा का आशीर्वाद सबके लिए जरुरी था। सियासत के इस गढ़ पर जब चैधरी चरण सिंह ने प्रतिबंध लगाया तो राजनारायन जी ने उसकी खिलाफत की थी। पर आज जब राजनैतिक दलाल पैदा किए जा रहे हैं तब राजनारायन के कथित वारिसों से ऐसी अपेक्षा करना हमारा भोलापन होगा। राजनीति में वैचारिक दीवालियेपन और दल-ब-दल पर वे कहते हैं कि जब राजनेता पैदा करने वाली नर्सरी ही बंद कर दी गई तब कोई माफिया या डकैत राजनीति में आए तो इस पर आश्चर्य नहीं करना चाहिए। बहरहाल पप्पू की दुकान पर मनोज सिन्हा, राजेश मिश्रा हांे या फिर जगदानंद सिंह सबकी राजनैतिक गणितबाजी का गुणा-भाग इस समय जोरों पर है। हो भी क्यों न ये सब इसी नर्सरी के पौधे थे।
सत्तानबे में सत्ता की तर्जनी की भेंट बीएचयू चढ़ गया जहां बारहो महीने धारा 144 लगी रहती है। ठीक इसी तर्ज पर 2006 में इलाहाबाद विश्विद्यालय छात्र संघ को भी प्रतिबंधित कर दिया गया। कैम्पस के हर कोने में पुलिस का वज्र वाहन और घोड़े की टापों को सुनना अब आम हो गया है। छात्र नेताओं की जिंदा कब्रगाह बन गए यूनियन हाल पर चर्चाए-आम है कि इस कुलपति ने नाटो फोर्स लगा दिया है। विश्वविद्यालय में लगा पीस जोन का बोर्ड पूरे कैंपस लोकतंत्र को कलंकित करता नजर आता है। जिस पर लिखा है-यहां धरना-प्रदर्शन प्रतिबंधित है।
इलाहाबाद में 2005 की ऐतिहासिक बंदी कराने वाले छात्रनेता राजेश सिंह छात्र राजनीति का काउंटर पाॅलिटिक्स तक सीमित होने को इस पतन का बड़ा कारण मानते हुए कहते हैं कि इसने पूरी राजनीति को पंगु बना दिया। जिसके चलते कुलपति ने छात्र संघ को प्रतिबंधित करने की हिमाकत की। यहां के छात्र संघ चुनाव में भारी पैमाने पर विभिन्न कम्पटीशन देने वाले छात्र शामिल होते थे। जिसे लिंगदोह बाहरी कह रहा है वो दरअसल वे आवाजें थी जो शिक्षा, रोजगार जैसे सवालों पर सत्ता से दो-दो हाथ करने वाले छात्र संघ का चुनाव करती थीं। चाहे जिसे भी राजनीति करनी हो इलाहाबाद ही नहीं पूर्वांचल, बंुदेलखंड में भी उसे हमारी मांगों को मानना ही पड़ता था। यही वजह थी कि जब 2004 में मुलायम सिंह ने जिस दिन मुख्यमंत्री की शपथ ली ठीक उसके दो घंटे बाद वे यहां आए और यूपी में छात्र संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाते हुए बेरोजगारी भत्ता देने का वायदा किया था, जिसे बाद में पूरा भी किया।
उदारीरकरण हमारे यहां भले ही कोई नई परिघटना रही हो पर इन नीतियों को लागू करने वालों के पास विभिन्न देशों के छात्र-युवा आंदोलनों को दबाने के ढेर सारे अनुभव थे वो चाहे बिडला अंबानी नीति के रुप में हो या फिर छात्र संघ पर कहर बना लिंगदोह आयोग हो। फीस वृद्धि, सीट कटौती से लेकर विश्विद्यालयों को अपने संसाधन जुटाने की बात कही गई। राजनाथ सरकार ने जब फीस वृद्धि की तो उसे जबरदस्त विरोध के बाद वापस लेना पड़ा। पिछले दशक में जो भी निर्णय लिए गए वो आर्थिक और सामाजिक रुप से पिछड़े तबकों से आने वाले छात्रों के लिए रेड एलर्ट था कि कक्षाएं छोड़ सड़कों पर उतरने का वक्त आ गया है। और वे उतरे भी। छात्रों और पुलिस के बीच हुई झड़पे आने वाले इतिहास को लिख रहीं थी कि इन विश्वविद्यालयों में कौन पढ़ेगा। इन आंदोलनों को सरकार के शान्ति पूर्ण आंदोलनों के पैमानों में नहीं रखा जा सकता।
राजनैतिक पार्टियों के वैचारिक पतन के बाद छात्रों में विछोभ बढ़ना स्वाभाविक था। क्योंकि छात्र नैसर्गिक तौर पर बदलाव का हिमायती और आदर्शवादी होता है। ऐसे में आखिर राजनैतिक दल किन आदर्शों पर छात्र संगठन खड़ा करते। ‘छात्रसंघ है छात्रों का, सत्ता की जागीर नहीं हो या फिर रोजी-रोटी दे न सके जो, वो सरकार निकम्मी है-जो सरकार निकम्मी है, वो सरकार बदलनी है’ का कभी नारा देने वाले छात्रों के सड़क पर उतरने वाले चरित्र से भली-भांति वाकिफ थे। इसी डर ने उन्हें तकनीकी शिक्षा का हो-हल्ला मचाने को मजबूर किया। दरअसल तकनीकी शिक्षा का अर्थ प्रशिक्षण देना था जिसमें अनुसरण करना होता है। जबकि शिक्षा देश के प्रति सोचने, समझने व सवाल उठाने की मानसिकता का विकास करती है। पूरे देश में इसी मानसिकता को कुंद करने के लिए प्रशिक्षण का हो हल्ला मचाया जा रहा है।
आपातकाल के वक्त समाजवादी युवजन सभा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे सत्यदेव त्रिपाठी जो इलाहाबाद और लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रसंघ अध्यक्ष भी रह चुके हैं कहते हैं कि हमारे निर्णयों पर सरकार थर्रा जाती थी उसे मजबूरन बोलना पड़ता था। पर आज मायावती जैसे लोग जिनका छात्र राजनीति से कोई वास्ता ही नहीं रहा है वे तानाशाही के बल पर मनमाने ढ़ग से प्रतिबंध लगा देती हैं। जो उनकी फासिस्ट राजनीति को दिखाता है। इसका कारण वे बसपा का गठन मानते हैं क्योंकि बसपा नौकरशाहों के बल पर खड़ी की गई पार्टी है इसीलिए उसने कोई छात्र संगठन न बनाया है और न ही चुनावों में घोषणा पत्र जारी करती है। आइसा नेता शरद जायसवाल इस पूरी प्रक्रिया पर कहते हैं कि जो भी सरकारें आईं उन्होंने अपने पीछे युवाओं की फौज खड़ा करने के लिए लंपट छात्रों को प्रश्रय दिया। वे कहते हैं कि छात्र राजनीति को लेकर आचार संहिता का सवाल उठाया जाता है, जो यह सवाल उठाते हैं उन्हें हम इस चुनाव में देख सकते हैं कि किस तरह वे आचार संहिता की धज्जियां ही नहीं उड़ाते बल्कि विरोधी प्रत्याशियों को मारकर पेड़ पर लटका देते हैं। आचार संहिता को लेकर सबसे दिलचस्प पहलू तो ये है कि लिंगदोह ने हर साल चुनाव करवाने की बात कही है जिसका उल्लघन विश्वविद्यालय प्रशासन से लेकर सरकारें कर रही हैं जिस पर कोई सुप्रिम कोर्ट चू तक नहीं करता।
यूपी में माया सरकार ने जब ‘शिक्षा मंदिरों में छात्र संघ प्रतिबंधित’ करने का फतवा जारी किया तो सबसे ज्यादा प्रतिरोध पूर्वांचल में हुआ जिसका नेतृत्व ‘बागी बलिया’ ने किया। सर्वमान्य छात्र नेता नागेंद्र बहादुर सिंह कहते हैं कि जब इंजीनियर पैदा करने के लिए आईटी खुल सकता है, डाक्टर पैदा करने के लिए मेडिकल कालेज खुल सकते हैं तो फिर देश को चलाने के लिए जिस नेतृत्व की जरुरत है उसकी नर्सरी छात्र संघ को क्यों बंद किया जा रहा है। वे आगे पूछते हैं कि क्या देश लंदन और अमेरिका से पढ़ कर आने वाले विलायती बाबुओं के भरोसे छोड़ा जा सकता है जो चैराहों पर घूम-घूम कर जहर उगलते हों।
लिंगदोह ने अपने सुझावों में जेएनयू की राजनीति को बहुत सराहा है जो अबकी साल प्रतिबंधित कर दी गई है। तो वहीं दिल्ली विश्वविद्यालय के चुनाव सुप्रिम कोर्ट की नाक तले आचार संहिता के धज्जियों के पंपलेट बिखेर रहे हैं।
बहरहाल दुनिया के सबसे बड़े युवा आबादी वाले इस देश के युवा जिनमें ज्यादातर बेरोजगार, उपेक्षित और भूखे-नंगे हैं, उनकी अपेछाएं और सवाल सिर्फ किसी कानूनी बदिश के चलते दब जाएंगी यह मान कर चलना बहुत बड़ा भ्रम होगा। जो कभी भी टूट सकता है।

इस मुद्दे पर आईआईएमसी के नवीन ने भी अपने विचार व्यक्त किये है. नवीन हाल तक स्टार न्यूज में कार्यरत थे, काम नहीं जमा तो छोड़ दिया. अब ब्लॉग लेखनी कर रहे हैं. आइये रूबरू होते हैं उनके विचार से -

छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबंध और देश की बागडोर युवा हाथों में..!

छात्रसंघ चुनावों पर देश के कई राज्यों ने प्रतिबंध लगाया हुआ है, और जिन
राज्यों में छात्रसंघ के चुनाव हो रहे हैं वहां भी लिंगदोह नामक सरकारी
नीति लागू होती है। छात्रसंघ देश को एक नई दिशा और नीति देते हैं, देश
में क्या गलत और सही है ,उसके विरोध औऱ समर्थन में देश के पढ़े-लिखे
युवाओं का आवाज बुलंद करना, लोकतंत्र के जिंदा होनें का सबब होता है। देश
को किस दिशा में मोड़ना है, क्या सही है और क्या गलत ये पॉलीसी मेकर का
काम होता है, और पॉलिसी मेकर बनानें की फैक्टरी ही बंद कर दी जाएगी तो
पॉलीसी का विदेशों से आयात करना ही वाज़िब कहलाया जाएगा। हमारे देश में
ऐसा ही कुछ हो रहा है, हमारे आज के युवा विदेशों से पढ़कर आए हमारे
नेताओं के बेटों को ही देश के युवाओं का प्रतिनिधि मानतें है। मैं दिल्ली
विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में 7 साल से भी ज्यादा समय तक सक्रीय
रहा, मैंनें डीयू की राजनीति को समझा कि वहां आनें वाले दस साल तक अभी और
ग्लैमर और पैसों की राजनीति ही चलेगी और हो सकता है कि उससे ज्यादा समय
भी लग जाए। दरअसल 2002 के बाद से अगर इस बार 08-09 के चुनावों को छोड़ दे
तो डीयू के अध्यक्ष पद पर कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई ही जीतता
है,और सीटों के बहुमत के आधार पर भी वो ही जीतता आया है। कारण मैं बता
चुका हूं, कांग्रेस को पता है कैसे डीयू का राजनीति में मनी-मसल-ग्लैमर
की राजनीति ही जीत का मूल मंत्र है। लिंगदोह कमेटी के बाद हुए चुनावों
में मसल की क्षमता थोड़ी घटी है लेकिन बाकी चीजें जस की तस बनीं हुई है।
और यही फार्मूला कांग्रेस नें राजनीति की मुख्य धारा में अपनें चिकनें
चेहरों वाले विदेशी ब्रांड के नेताओं को युवा ब्रिगेड के नाम पर उतार कर
साबित कर दिया। देश के युवा की परिभाषा ही बदल दी, देश का युवा सवाल न
करे, देश के युवा में की सोच को तकनीकि शिक्षा के माध्यम से इतना संकीर्ण
कर दिया जाए कि वह महज नौकरी पानें तक के लिए पढे और चुप करके बैठ जाए औऱ
विज्ञापन के प्रभाव के कारण केवल दोस्तों में खीझ के डर से वोट डालनें को
अपनी सबसे बढ़ी उपलब्धी मानकर देश की बागडोर सौंप दें एक कॉर्पोरेट कंपनी
के हाथों में जो अपनें फायदों के हिसाब से पॉलिसी बनाए। आपकी बात में
दरअसल हांजी के भाव वाले युवाओं की आवाज का विरोध है, ये हांजी का माहौल
किस नें बनाया है, क्या कारण रहा होगा कि देश के युवा आज सहीं गलत के
विरोध में मोमबत्ती लेकर तो सड़क पर उतरनें का शौक रखतें है पर छात्र संघ
को सही मयनों में जीवीत रखनें का मागदा नहीं। मैं बताता हूं ये जो पॉलीसी
मेंकिंग की बात मैनें कही ना, ये ऐसा तुर्रा है कि जनता के मुंह से हांजी
के अलावा कुछ न निकले, आप इतनें लोगों को अंधा बना दो की आपको कानें को
राजा मानना ही पड़े।

1 टिप्पणी:

नवीन कुमार 'रणवीर' ने कहा…

राजीव जी, आपकी पोस्ट काब़िले ताऱीफ है। दरअसल इस देश को किस दिशा में मोड़ना है, क्या सही है और क्या गलत ये पॉलीसी मेकर का काम होता है, और पॉलिसी मेकर बनानें की फैक्टरी ही बंद कर दी जाएगी तो पॉलीसी का विदेशों से आयात करना ही वाज़िब कहलाया जाएगा। हमारे देश में ऐसा ही कुछ हो रहा है, हमारे आज के युवा विदेशों से पढ़कर आए हमारे नेताओं के बेटों को ही देश के युवाओं का प्रतिनिधि मानतें है। मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में 7 साल से भी ज्यादा समय तक सक्रीय रहा, मैंनें डीयू की राजनीति को समझा कि वहां आनें वाले दस साल तक अभी और ग्लैमर और पैसों की राजनीति ही चलेगी और हो सकता है कि उससे ज्यादा समय भी लग जाए। दरअसल 2002 के बाद से अगर इस बार 08-09 के चुनावों को छोड़ दे तो डीयू के अध्यक्ष पद पर कांग्रेस का छात्र संगठन एनएसयूआई ही जीतता है,और सीटों के बहुमत के आधार पर भी वो ही जीतता आया है। कारण मैं बता चुका हूं, कांग्रेस को पता है कैसे डीयू का राजनीति में मनी-मसल-ग्लैमर की राजनीति ही जीत का मूल मंत्र है। लिंगदोह कमेटी के बाद हुए चुनावों में मसल की क्षमता थोड़ी घटी है लेकिन बाकी चीजें जस की तस बनीं हुई है। और यही फार्मूला कांग्रेस नें राजनीति की मुख्य धारा में अपनें चिकनें चेहरों वाले विदेशी ब्रांड के नेताओं को युवा ब्रिगेड के नाम पर उतार कर साबित कर दिया। देश के युवा की परिभाषा ही बदल दी, देश का युवा सवाल न करे, देश के युवा में की सोच को तकनीकि शिक्षा के माध्यम से इतना संकीर्ण कर दिया जाए कि वह महज नौकरी पानें तक के लिए पढे और चुप करके बैठ जाए औऱ विज्ञापन के प्रभाव के कारण केवल दोस्तों में खीझ के डर से वोट डालनें को अपनी सबसे बढ़ी उपलब्धी मानकर देश की बागडोर सौंप दें एक कॉर्पोरेट कंपनी के हाथों में जो अपनें फायदों के हिसाब से पॉलिसी बनाए। आपकी बात में दरअसल हांजी के भाव वाले युवाओं की आवाज का विरोध है, ये हांजी का माहौल किस नें बनाया है, क्या कारण रहा होगा कि देश के युवा आज सहीं गलत के विरोध में मोमबत्ती लेकर तो सड़क पर उतरनें का शौक रखतें है पर छात्र संघ को सही मयनों में जीवीत रखनें का मागदा नहीं। मैं बताता हूं ये जो पॉलीसी मेंकिंग की बात मैनें कही ना, ये ऐसा तुर्रा है कि जनता के मुंह से हांजी के अलावा कुछ न निकले, आप इतनें लोगों को अंधा बना दो की आपको कानें को राजा मानना ही पड़े।

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