26 जून 2009

कांग्रेस चली अब बहुजन की राह

लक्ष्मण प्रसाद

इस साल कांग्रेस पार्टी ने अपने युवराज राहुल गांधी के जन्मदिन को ‘समरसता’ दिवस के रुप में मनाया। इस दिन को कागे्रंस ने दलित बस्तियों में पहुंचने के अभियान का षक्ल दे दिया। तमाम छोटे-बड़े काग्रेसियों ने बकायादा पंगत में पल्थियां मारकर भोजन करके यह संदेष देने की कोषिष की कि कागें्रस के दलित प्रेम को लेकर बसपा किसी भ्रम में न रहे। वहीं काग्रेंस इस कदम से मायावती बौखलाई नजर आयीं। पानी को सर से उपर चढ़ता देख मायावती ने ‘बाबा’ के जन्मदिन को षर्म दिवस के रुप में मना कर अपनी बौखलाहट जगजाहिर कर दी। जिला मुख्यालयों पर बसपाइयों ने कागे्रसियों के खिलाफ टंट-घंट बांध करअपनी भड़ास निकाली। बीते लोकसभा चुनावों के परिणाम और खिसकते जनाधार को देखा जाय तो उनका गुस्सा ‘वाजिब’ था कि उसके दलित वोट बैंक में कागे्रंस ने जबरदस्त सेंधमारी की है।
फिलहाल अभी ऐसा कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिला है कि दलितों का बड़ा जनाधार कागें्रस की झोली में चला गया है। पर अबकी बार के चुनाव नतीजे इस बात के लिए काफी अहम हैं कि लंबे समय बाद दलित वोट बैंक के लिए फिर से काग्रेंस और बसपा के बीच रस्साकसी हो रही है। जो यह दर्शाता है कि कागे्रंस अपने यूपी से सफाए के बाद लगभग दो दशकों के राजनैतिक मंथन के बाद इस नतीजे पर है कि उसका जीर्णोधार दलित वोटों के बिना नामुमकिन है। इस आलोक में देखा जाय तो बसपा के षर्म दिवस और कांगे्रंस के समरसता दिवस के गूढ़ राजनैतिक निहतार्थ हैं। इन दोनों पार्टियों के राजनैतिक खींचतान ने यूपी की राजनीति में दलितों को लेकर काफी हलचल पैदा कर दी है।
देश को आजादी मिलने के बाद से ही दलितों और अल्पसंख्यकों की बहुसंख्या काग्रेंस के पीछे गोलबंद रही। इन्हीं वोटों के दम पर कांगे्रंस ने हिंदुस्तान में लगभग चार दषकों तक षासन किया। लेकिन कांगे्रस की लोकलुभावन नीतियां अल्पसंख्यकों, दलितों और ग्रामीण गरीबों के हित में होने की बजाय देश के सामंतों तथा नए उभरते हुए पूजींपतियों के पक्ष में ज्यादा रही। यही कारण है कि गुलाम भारत के सभी रजवाड़े काग्रेस में षामिल हुए तथा सत्ता के शीर्स में पहुंचे तथा दूसरी ओर औपनिवेषिक शासन काल में पले-बढ़े पूजींपती साम्राज्यवाद की दलाली करते हुए कांग्रेस के क्षत्रछाया में विकसित हुए। इस पूरे दौर में कांग्रेस के एजेण्डे से दलित गायब ही रहे उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। दलितों के सत्ता में हिस्सेदारी का प्रष्न तो बहुत ही पीछे छूट गया। कांगे्रस के इन्हीं नीतियों के चलते 80 के दषक से ही पिछड़ी और दलित राजनीति अपने अस्तित्व में आने लगीं आजादी के बाद इस समय अन्तराल में आने लगी। आजादी के बाद इस समय अन्तराल में षक्तिषाली हुई पिछड़ी जातियों तथा आरक्षण इत्यादि लाभ से आगे बढ़ी हुई जातियों ने अपने हिस्सेदारी के सवाल को मजबूती से उठाना षुरु कर दिया। और धीरे-धीरे यह सवाल राजनैतिक आयाम ग्रहण करता चला गया। इसी के नतीजें के रुप में 90 के दशक के शुरुवाती वर्षों में मंडल कमीषन सिफारिषों को लागू करना पड़ा। इस पृष्ठभूमि में मंडलवादी ताकतों का राजनीति मेें उभार हुआ। इसी दौर में काषीराम और मायावती के नेतृत्व में अंबेडकरवादी राजनीति ने एक नया स्वरुप ग्रहण करते हुए बहुजन समाज पार्टी राजनैतिक रुप से बहुत ताकतवार हो कर दलित के बीच उभरी। ठीक इसी समय भारतीय जनता पार्टी ने मंदिर का सवाल उठाा कर हिंदुस्तान की राजनीति में एक बड़ा उल्ट-फेर किया। और देखते-देखते सवर्ण सामाजिक आधार भाजपा के झंडे के नीचे आ खड़ा हुआ।
ये वे स्थितियां है जिसके कारण कांगे्रस के राजनैतिक वनवास की षुरुवात हुई। कांग्रेस को मजबूती प्रदान करने वाले उसके सारे मजबूत स्तंभ सवर्ण, दलित तथा अल्पसंख्यक अलग-अलग खेमों में बंट गए। और उत्तर भारत के हिंदी बेल्ट में काग्रेंस एक हाषिये की ताकत बनकर रह गयी। इस राजनैतिक वनवास से बाहर आना कांगे्रस के लिए अस्तित्व के लिए प्रष्न बन गया था। 15 वीं लोकसभा के नतीजों से यह साफ हो जाता है कि मंडल और कमंडल के रीाजनीति से लोगों का मोहभंग होने की षुरुवात हो चुकी है। क्योंकि मंडल के नाम पर राजनीति करने वाले चाहे मुलायम, लालू हों या फिर षरद ये सभी दरअसल कांगे्रस और भाजपा से इतर कोई राष्टीय विकल्प दे पाने की स्थिति में नहीं है। व्यक्तिगत रुप से इन सभी मंडलवादी नेताओं का जो भी चरित्र हो पर इन सभी ने जातीय अस्मिता के नाम भावनात्मक रुप से ठगने का काम किया। इधर दलित राजनीति की चैम्पियन मायावती भी बहुजन से षुरु करके सर्वजन तक की यात्रा हाथी की सवारी कर पूरी की। मायावती की सोषल इंजीनियरिंग का यूपी की जमीनी सामाजिक वास्तविकता से कोई मेल नहीं है। बसपा के मंच पर दलित एवं सवर्ण नेता हाथ मिलाते नजर तो आते है। लेकिन वहीं गांव में ब्राहमणों एवं दलितों के बीच जबरदस्त टकराव की स्थिति बनी रहती है। ऐसे में दलितों के सामने मायावती की असलियत की पोल खुलने लगी है। सर्वजन की राजनीति में बहन जी इस कदर भटक गयी हैं कि दलितों का सुरक्षा कवच माने जाने वाला एससीएसटी ऐक्ट भी कमजोर कर दिया। मायावती के इस कदम ने दलितों के संवेदनषील हिस्से को झकझोरने का काम किया है।
मोहभंग के इस दौर में कांग्रेस में अपनी पुरानी स्थिति में प्राप्त कर लेने की तीव्र आकांक्षा जगी है। यह भी ध्यान देने की बात है। चूंकि समूचे हिंदी बेल्ट में वामपंथी तथा रेडिकल आंदोलन अपने प्रभावी स्थिति में नहीं है। यही वे ताकतें हैं जो जाति समूहों की राजनीति का विकल्प एक सुसंगत वर्गीय राजनीति के रुप में प्रस्तुत कर सकती है।
बहरहाल कांगे्रस ने दलित सामाजिक आधार को अपने पक्ष में करने के लिए आक्रामक ाअभियान की श्षुरूआत कर दी है। इसी कड़ी के तहत यदि देखें तो कांग्रेस ने एक दलित महिला मीरा कुमार को लोकसभा का स्पीकर नियुक्त किया। तो दूसरी तरफ बसपा ने अपने परंपरागत दलित आधार को बचाए रखने के लिए वादों एंव घोसणओं का पिटारा खोल दिया है। यहां तक कि दलित उत्पीड़न के खिलाफ मुकदमा दर्ज कराने के लिए प्रदेष के डीजीपी तक को हस्तक्षेप करने का फरमान जारी कर दिया गया। देखना है कांगेस और बसपा के इस नूराकुस्ती के बीच राजनीति कौन सी दिषा लेती है।

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