27 जून 2009

मीडिया के लिए खजाना खुला छोड़ दिया

अनिल चमड़िया

दिल्ली की राज्य सरकार ने पिछले दस वर्षों के दौरान समाचार पत्रों, रेडियो, टेलीविजन चैनलों और दूसरे प्रचार माध्यमों में विज्ञापन के मद में पचास करोड़ रूपये खर्च किया है। इन पचास करोड़ रूपये में सबसे ज्यादा खर्च चुनावी वर्ष 2008-2009 के दौरान किए गए हैं। ये रकम बाईस करोड़ छप्पन लाख अठाईस हजार पांच सौ उनसठ (225628559) रुपये है। इस वर्ष दिल्ली के लिए विधानसभा और लोकसभा, दोनों के लिए चुनाव कराए गए थे। गौरतलब ये है कि वर्ष 2001 में दिल्ली सरकार द्वारा समाचार पत्रों में विज्ञापन के मद में महज एकहत्तर लाख 56 हजार रूपये विज्ञापन के मद में खर्च किए गए। दिल्ली सरकार द्वारा खर्च की रकम अब करीब तीस गुना ज्यादा बढ़ा दी गई हैं। दिल्ली सरकार द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च में बढ़ोतरी चुनावी वर्ष को ध्यान में रखकर किया गया है।

ये बात दिल्ली विधानसभा के चुनाव के वर्षों में खर्च की रकम को देखकर साफतौर पर कही जा सकती है। वर्ष 2003 में पिछला विधानसभा चुनाव हुआ था। दिल्ली सरकार द्वारा वर्ष 2002-2003 और वर्ष 2003-04 में विज्ञापन के मद में खर्च की जो जानकारी विधानसभा में दी गई है वह क्रमश 2 करोड़ 89 लाख 76 हजार 239 रुपये और 2 करोड़ 70 लाख 73 हजार 822 रूपये हैं। दिल्ली सरकार ने 2008-2009 में विज्ञापन में जितनी कुल राशि खर्च की है उसमें 8 करोड़ 37 लाख से ज्यादा राशि समाचार पत्रों के विज्ञापन में और 14 करोड़ 18 लाख पैतीस हजार से ज्यादा राशि रेडियों, टेलीविजन, होर्डिंग आदि में खर्च किए गए हैं। मजेदार बात ये है कि वर्ष 2004-2005 में दिल्ली सरकार ने रेडियों, टेलीविजन और होर्डिंग आदि में महज बारह लाख पन्द्रह हजार छह सौ उनसठ रूपये ही खर्च किए थे। न माध्यमों में विज्ञापन की राशि में सौ गुना से भी ज्यादा की बढ़ोतरी की गई है।

देश के विभिन्न राज्यों में राज्य सरकारों ने विज्ञापन के जरिये अपनी छवि निखारने पर जोर बढाया है। दिल्ली में ये बात खासतौर से देखी जाती है। सरकारों के कामकाज और राजनीतिज्ञों के आचरण एवं व्यवहार पर शिकायतें लगातार बढ़ी है इसमें सरकारों ने अपनी छवि बनाने के लिए विज्ञापनों का रास्ता अपनाया।इससे सरकारी खजाने पर दबाव बढ़ा है। सरकारों के विज्ञापनों की भाषा में भी एक गुणात्मक परिवर्तन देखा जा सकता है। सरकारों ने विज्ञापन में अप मार्केट को ध्यान में ठीक उसी तरह से रखा है जिस तरह से टेलीविजन चैनलों द्वारा उन्हीं दर्शकों का ध्यान ऱखा जाता है जोकि बाजार में ऐशोआराम की चीजें खरीदने की क्षमता रखते है। टेलीविजन चैनलों की भाषा में अप मार्केट शब्द का इसी तरह के उपभोक्ताओं के लिए इस्तेमाल किया जाता है। सरकारे भी आम नागरिकों के बजाय समाज को प्रभावित करने वाले वर्ग की भाषा, रंग और छवि को ध्यान में रखकर विज्ञापन तैयार करवाती है। वह भी कारपोरेट क्षेत्र की तरह अपने उपभोक्ताओं को गुड फील कराना अपना उपलब्धि समझती है। कोरपोरेट क्षेत्र की पूंजी अपने अपभोक्तओं को जिस तरह से लुभाने और आकर्षित करने पर जोर लगाती है उसी तरह से सरकार वोटरों को आकर्षित करती है।

गौरतलब एक दूसरा पहलू है कि राजनीतिक पार्टियां और राजनेता चुनाव के दौरान अपने प्रचार के लिए जिस तरह से प्रचार माध्यमों की जगहों को नियंत्रित करने की कोशिश करते हैं, अब सरकारें भी उसी शैली में काम करने लगी हैं। चुनावी वर्षों में विज्ञापन के मद में प्रचार माध्यमों में विज्ञापन की रमक बढ़ाने का सीधा अर्थ क्या हो सकता है? सरकारें इस तरह से प्रचार माध्यमों को अपने प्रभाव में रखने की कोशिश करती है। दिल्ली सरकार ने समाचार पत्रों के बजाय दूसरे माध्यमों में विज्ञापन की राशि में खर्च में सौ गुना से ज्यादा बढ़ोतरी की तो इसकी एक वजह ये है कि इन माध्यमों से छवि को प्रभावित करने और छवि बनाने की ताकत का अंदाजा सरकार को भी बाद के वर्षों में हुआ हैं।

दिल्ली सरकार ने ही इस तरह से विज्ञापन की राशि में बढ़ोतरी की है ऐसी बात नहीं है। पत्रकार श्रृषि कुमार सिंह ने पिछले दिनों केन्द्र सरकार द्वारा विज्ञापन के मद में खर्च का ब्यौरा मांगा तो उसमें भी इस तथ्य की पुष्टि होती है। केन्द्र सरकार ने चुनाव से पूर्व ने केवल विज्ञापन की दरों में बढ़ोतरी की बल्कि विज्ञापन के मद में खर्च के बजट में भी बढ़ोतरी कर दी। ये बढ़ोतरी केवल विज्ञापन दर में बढ़ोतरी की वजह से नहीं है। यह मजेदार तथ्य हो सकता है कि इस वर्ष चुनाव के पूर्व 10 दिसंबर से बीस फरवरी के बीच में केन्द्र सरकार ने केवल डीएवीपी के जरिये उपभोक्ता मामले के निदेशालय द्वारा 7 करोड़ 52 लाख रूपये से ज्यादा खर्च किए। फिलहाल 20 फरवरी के बाद के खर्चों का ब्यौरा नहीं है। वह ब्यौरा भी उपलब्ध किया जाए तो यह राशि बढ़ सकती है। इसकी तुलना पिछले वर्षों में इस निदेशालय द्वारा विज्ञापन के मद में किए गए खर्च से की जाए तो इतनी राशि के खर्च करने के उद्देश्यों का रहस्य खुल सकता है। दूसरे केन्द्र सरकार के विज्ञापनों को जारी करने वाली डीएवीपी कोई एकलौती संस्था नहीं है। विज्ञापन नीति में कई तरह के परिवर्तन किए गए हैं। दूसरी एजेसिंयों द्वारा भी विज्ञापन जारी किए जाते है।

उपभोक्ता मामले की तरह दूसरे जिन विभागों या मंत्रालयों के विज्ञापन बड़े पैमाने पर इस दौरान जारी किए गए है वे भी गौरतलब है। परिवार कल्याण ( आई ई सी ) द्वारा दो करोड़ 76 लाख के विज्ञापन जारी किए गए। स्कूल शिक्षा और साक्ष्ररता विभाग द्वारा 1 करोड 72 लाख से ज्यादा, नई और रिचार्जेबल उर्जा द्वारा दो करोड़ 95 लाख से ज्यादा, पंचायती राज द्वारा एक करोड़ 74 लाख से ज्यादा,ग्रामीण विकास विभागा द्वारा दो करोड़ 19 लाख से ज्यादा, भू संसाधन द्वारा 2 करोड़ 37 लाख से ज्यादा खर्च किए गए। इस दौरान सबसे ज्यादा विज्ञापन में सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय द्वारा किया गया जो रकम चौदह करोड़ से भी ज्यादा रूपये हैं। योजना फंड से 5 करोड़ 45 लाख से ज्यादा और गैर योजना फंड से 8 करोड़ 94 लाख रूपये खर्च विज्ञापन के लिए केवल चुनाव पूर्व के दो महीनों के दौरान किए गए। चुनाव आयोग को इस संबंध में लिखा जा चुका है कि सरकार द्वारा चुनाव पूर्व विज्ञापन के मद में खर्च की रकम में बढ़ोतरी के कारणों का अध्धयन कराएं। अभी तक ये सवाल उठते रहे है कि चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के अमीर उम्मीदवारों ने प्रचार माध्यमों में इतनी जगह खरीद ली कि प्रचार माध्यमों ने पैसे का भुगतान नहीं करने वाले उम्मीदावारों के चुनाव प्रचार में किसी तरह का सहयोग नहीं किया।

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