10 जून 2009

नेपाल पर बदहवास भारतीय मीडिया


आनंद स्वरूप वर्मा

नेपाल की घटनाओं पर भारतीय मीडिया का रुख अत्यंत शर्मनाक और हास्यास्पद रहा. अखबारों और खास तौर पर हिन्दी अखबारों की संपादकीय टिप्पणियों को देखकर हैरानी होती है और विश्वास नहीं होता कि इतने साहस के साथ कोई कैसे अपनी अज्ञानता को जनता तक पहुंचाता है. आम तौर पर इन टिप्पणियों में यह कहा गया कि प्रचण्ड अपनी जनमुक्ति सेना के ‘लड़ाकुओं’ को नेपाली सेना में भर्ती कराना चाहते थे जिसे कटवाल ने मना किया और फिर प्रचण्ड ने उन्हें बर्खास्त कर दिया.
जाहिर है कि अगर किसी पाठक को यह बात बतायी जा रही हो तो वह कटवाल के पक्ष में खड़ा होगा और प्रचण्ड की इस बात के लिए भर्त्सना करेगा. उसे राष्ट्रपति द्वारा उठाया गया कदम भी अत्यंत तर्कसंगत और न्यायोचित लगेगा. इन संपादकों ने यह बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि जनमुक्ति सेना के सैनिकों को राष्ट्रीय सेना में शामिल किए जाने का मामला प्रचण्ड अथवा उनकी पार्टी नेकपा (माओवादी) का मामला नहीं है बल्कि यह नवंबर 2006 में सम्पन्न उस विस्तृत शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा है जिसके आधार पर राजनीतिक घटनाक्रमों का क्रमश: विकास होता गया.
कहने का अर्थ यह कि शांति प्रक्रिया का यह एक महत्वपूर्ण अवयव है. इन संपादकों ने यह भी बताने की जरूरत नहीं महसूस की कि माओवादियों और सरकार के बीच हुए इस शांति समझौते में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि न तो माओवादी और न सरकार तब तक अपनी सेनाओं में कोई नयी भर्ती नहीं करेंगे, जब तक दोनों सेनाओं का एकीकरण नहीं हो जाता. इसका उल्लंघन करते हुए कटवाल ने नेपाली सेना में 3000 लोगों की भर्ती की. दोनों सेनाओं की मॉनिटरिंग करने वाली संयुक्त राष्ट्र की संस्था ‘अनमिन’ (यूनाइटेड नेशन्स मिशन इन नेपाल) ने प्रधानमंत्री को लिखा कि सेना में नयी भर्तियों को वह रोकें. प्रधानमंत्री ने अपने रक्षामंत्री के माध्यम से कटवाल को इस आशय का निर्देश दिया जिसे मानने से उसने साफ तौर पर मना कर दिया. इस तरह की 5-6 घटनाएं हुई जहां कटवाल ने सरकारी आदेशों की अवहेलना की.

सबसे मूर्खतापूर्ण संपादकीय ‘जनसत्ता’ में देखने को मिला. इसमें बताया गया था कि चूंकि प्रचंड अपने ‘हथियारबंद दस्ते के लोगों’को सेना में शामिल नहीं करा सके इसलिए उन्होंने कटवाल को बर्खास्त कर दिया. इसमें आगे कहा गया है कि “सेना का स्वरूप अपनी मर्जी के मुताबिक ढालने की उनकी जिद को स्वीकार नहीं किया जा सकता था. वरना कल वे यह भी कहते कि वे जो ‘जन अदालतें’ चलाते थे उनके‘न्यायाधीशों’को न्यायपालिका में जगह मिले. राज्यतंत्र के अपने उसूल, नियम और तकाजे होते हैं. कोई पार्टी या सरकार जब इनकी अनदेखी करती है तो निरंकुशता का खतरा पैदा होता है.”

‘दैनिक हिन्दुस्तान’ ने 5 मई 2009 को इस घटना पर जो संपादकीय लिखा उसका शीर्षक था– ‘प्रचंड अराजकता’. इसमें उसने लिखा – “... इस घटनाक्रम ने यह जता दिया है कि गुरिल्ला लड़ाई के लिए अपनाये गये ‘प्रचंड’ उपनाम छोड़कर सौम्य जननायक बनने की उनकी कोशिश दिखावटी थी और चीन व माओवादी दबावों के चलते वे नेपाल को सही नेतृत्व दे पाने में नाकाम रहे हैं. हिंसा और अधकचरी राजनीतिक शिक्षा के साथ महज 20 साल में माओवादी क्रान्ति की महत्वपूर्ण मंजिल पा लेने का भ्रम उन्हें अपने देश और अड़ोस पड़ोस की जमीनी हकीकत समझने नहीं दे रहा था. वे हर कीमत पर पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के सदस्यों को सेना में भर्ती करने पर आमादा थे.” संपादकीय में यह तो स्वीकार किया गया है कि युद्ध विराम समझौते में दोनों सेनाओं का एकीकरण शामिल था और सेनाध्यक्ष इन बातों को मानने के लिए तैयार नहीं थे. बावजूद इसके सेनाध्यक्ष की बर्खास्तगी को संपादक ने प्रचंड की ‘अराजकता’ घोषित किया.
‘दैनिक जागरण’ ने लिखा कि “कोई भी सेनाध्यक्ष यह स्वीकार नहीं करेगा कि कल तक हिंसा और उपद्रव का खेल खेल रहे लोग सेना का अंग बन जायं.”
‘दैनिक भास्कर’ ने भी माना है कि “सेनाध्यक्ष ने इसका ठीक ही विरोध किया क्योंकि यह सेना के राजनीतिकरण की निकृष्ट कोशिश थी.”
जाहिर है कि इस संपादक को भी जानकारी नहीं है कि सेनाध्यक्ष जिस बात को मानने से इनकार कर रहे थे वह एक राजनैतिक फैसला था और शांति समझौते का महत्वपूर्ण हिस्सा था. ‘राष्ट्रीय सहारा’ का मानना है कि सेना में जनमुक्ति सेना के जवानों को समायोजित कराने के जरिये प्रचंड “अपना राजनीतिक लक्ष्य साध्ने” की उम्मीद कर रहे थे. इसके बाद संपादक ने एक चेतावनी दी है-“प्रचंड सहित सभी माओवादियों को यह समझना चाहिए कि लोकशाही में और वह भी मिली जुली सरकार में अपनी इच्छा लादना संभव नहीं और यह लोकशाही के सिद्धांतों के भी विपरीत है”.
5 मई को ही ‘आज समाज’ के संपादक मधुकर उपाध्याय का ‘नेपाल फिर बेहाल’ शीर्षक से एक लेख प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने लिखा कि- “... सत्तारूढ़ गठबंधन के घटक दलों के विरोध के बावजूद दहाल ने अपनी पार्टी के कहने पर सेनाध्यक्ष के नाम यह आदेश जारी कर दिया कि पूर्व माओवादी लड़ाकों को सेना में भर्ती दी जाय. सेनाध्यक्ष ने, जाहिर है, इससे इनकार कर दिया और उसकी प्रतिक्रिया में दहाल ने उन्हें पद से हटा दिया...”. इसके आगे मधुकर जी ने बताया है कि किस तरह दुनिया में कहीं भी लड़ाई खत्म होने के बाद लड़ाकुओं को सेना में नहीं लिया जाता है. उन्होंने सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिंद फौज का भी उदाहरण दिया, जिसके सैनिकों को भारतीय सेना में नहीं शामिल किया गया. अब लेखक से कोई यह पूछे कि आपको इतना रिसर्च करने की जरूरत क्यों पड़ रही है. नेपाल के संदर्भ में काफी विचार विमर्श के बाद वहां की सरकार ने और सभी राजनीतिक दलों ने मिलकर माओवादियों के साथ यह समझौता किया कि दोनों सेनाओं का एकीकरण किया जाएगा. जाहिर है कि लेखक को न तो इन समझौतों की जानकारी है और न नेपाल में दो सेनाओं के अस्तित्व की संवेदनशीलता से वह वाकिफ हैं.
‘नवभारत टाइम्स’ में संपादकीय टिप्पणी लिखने वाले को यह तो जानकारी थी कि शांति समझौते के तहत विभिन्न राजनीतिक दलों ने इस शर्त को मान लिया था. इसमें यह भी लिखा गया है कि कटवाल पहले की तरह अपने लिए ‘विशिष्ट अधिकार’ चाहते थे और 'इसके लिए उन्होंने सरकार से टकराव लेने में भी गुरेज नहीं किया. यह एकमात्र ऐसा संपादकीय है जिसमें स्वीकार किया गया है कि “ कटवाल की आड़ में राष्ट्रपति और सारे राजनीतिक दलों ने माओवादियों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया.”
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