29 जून 2009

महिला आरक्षण या फिर उनकी अपनी पहचान

लक्ष्मण प्रसाद
संसद में महिला आरक्षण के मुद्रदे को अगड़ा बनाम पिछड़ा बनाने की राजनीति नये सिरे से शुरू हो चुकी है। इस बार राष्ट्रपति प्रतिभा सिंह पाटिल अपने संसद अभिभाषण के दौरान सौ दिन के अन्दर महिला आरक्षण विधेयक पारित कराने का संकल्प ले चुकी है। यह संकल्प पहले भी 1996 में संसद में पेश हुआ था। लेकिन भारी विरोध को देखते हुए इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। लेकिन इस बार विरोध के स्वर नये रूप में सामने आ रहे हैं। जातिगत आरक्षण और मंडल आंदोलन के महारथी शरद यादव ने अपना रोष व्यक्त करते हुए कहा कि यदि महिला विधेयक पारित हुआ तो इसी संसद में जहर खा कर जान दे देंगें दूसरी तरफ लालू यादव ने कहा कि वे ’कलावती‘ और ’भगवतिया देवी‘ जैसी पिछड़े वर्ग की महिलाओं को संसद में आरक्षण के मातहत देखना चाहते हैं। तो वहीं भाजपा को कोटे के अंदर कोटा और महिलाओं के लिए 33 फीसदी से कम आरक्षण मंजूर ही नहीं है।
पिछले 13 सालों से महिला आरक्षण का मुद्दा संसद में सांप की तरह बाहर और भीतर होता रहा है। लेकिन अभी तक इसका कोई सकारात्मक हल नहीं निकल पाया, अब सवाल यह है कि क्या सिर्फ आरक्षण ही महिलाओं का बेड़ा पार कर सकता है। विश्व के सबसे बड़े गणतंत्र के रूप में भारत को प्रसिद्धि मिली है। जहां महिला-पुरुष दोनों को बराबर-बराबर का हक मिला है। किसी स्तर पर किसी भी पद के लिए चुनाव लड़ने का अधिकार ‘आधी दुनिया’ को संविधान के अन्य अधिकारों की तहत स्वतः प्राप्त है। तो फिर इसके लिए संसद में अलग से 33 फीसदी महिला के लिए आरक्षण की जरुरत क्यों पड़ रही है। जबकि मूल समस्या समाज के अन्दर स्त्रियों को देखने की मानसिकता जो सकारात्मक तरीके से कम और ओछी राजनीति के लिए अधिक है, के तहत हल करने की कोशिश की जा रही है।
महिलाओं का समाज में उद्धार कैसे हो ये प्रश्न कानूनी कम सामाजिक-राजनैतिक एंव मनोवैज्ञानिक ज्यादा है। आरक्षण के अधिकार को सामाजिक न्याय एंव समतामूलक समाज बनाने के लिए जरुरी है। महिला के लिए कानूनी अधिकार बनाया जाए लेकिन उससे पहले हमें महिलाओं को उनके अपने अधिकारों के प्रयोग के अधिकार तो देने ही होंगे ।
जिस तरह एक पुरुष को खेलने पढ़ने एंव अपने मर्जी के हिसाब से हर काम करने की स्वतंत्रता मिलती है,उसी प्रकार स्त्रियों को भी स्वतंत्रता मिलनी चाहिए। ताकि अपने समाज में अपनों के लिए एक अच्छा सा परिवेश बन पाये और परिवारिक फैसले ले तथा उनके क्रियान्यवन में अहम भूमिका निभाए लेकिन ऐसा केवल टीवी के पर्दे एंव मीडिया में भी समाज के अमीर घरानों को ही जगह दी जाती है। लेकिन हर मोड़ पर उसके आगे बढ़ते कदमों को वहीं दबा दिया जाता है और यों ही अंत तक उसका मन कुछ करने को सोचता है मगर वो लाचार अपनी वैचारिक स्वतंत्रता को दबाए इस दुनिया से रुखसत हो जाती है। जबकि कानूनी तौर पर उसे विचार रखने और फैसले लेने की आजादी है लेकिन सामाजिक तौर पर वो इस योग्य नहीं समझी जाती है। पंचायती चुनावों में 33 फीसदी महिलाएं बतौर सरपंच चुन ली जाती हैं लेकिन इनमे मुश्किल से 10 फीसदी महिलाएं ही अपने कार्यो को स्वतंत्र रूप से कर पाती हैं। बाकी 90 फीसदी महिलाओं को प्रधानी का क,ख,ग तक नहीं जानती जिसके कारण वह प्रधानपति का मोहरा ही बनकर कर रह जाती हैं। इसके पीछे बड़ा कारण है कि उनके पति द्वारा घर से बाहर जाने की अनुमति नहीं दी जाती है। यदि देखें तो पंचायत के स्तर पर स्त्री आरक्षण मामूली बात नहीं है यह लोकतंत्र और जनमत की पहचान को पुख्ता करने वाले विधेयक है। अब यह बात कौन बताए कि पंचायत के प्रधान पद पर महिला है मगर काम करने की जिम्मेदारी आज भी पुरूष अपनी ही समझ रहा है। औरत नाम की दावेदारी है। हिस्सेदारी तो बहुत कम है.
इस बार का विधेयक संसद में आना तय है न जाने राजनेता उससे क्यों कतरा रहे है? क्यों उन्हे इस बार संसद में आने वाली शहरी पढ़ी-लिखी महिला उनके वजूद पर भारी पड़ेंगी,क्या पंचायती राज का ग्रामीण स्तर पर आना उन्हें भयभीत नहीं करता था क्योंकि इन राजनेताओं को मालूम है कि गाॅंव के स्तर पर अभी भी सामंती सत्ता मजबूत है। यह दावे के साथ कहा जा सकता है कि विधानसभा और संसद में भी लोकतंत्र के नाम पर सामंती सत्ता ही राज करती है। यहां महिलाओं की आवाज कहां है। आवाज है तो फिर उसका असर कहां है असर होता तो हमारे समाज का यह स्वरूप न होता। इस चुनाव को कुछ हद तक महिलाएं ही लड़ी हैं जो संसद में मौजूद है। चुनावों में अबकी बार जो हुआ वह प्रमाण है कि स्त्रियों की सीटे नहीं दी जाएंगी क्योंकि वह दिग्गजों एवं बाहुबलियों की जगह घेर लेती हैं। दिग्गज हार गये गम नहीं स्त्री जीत भी जाती तो भी स्त्री ही रहती है जिसकी आवाज की बुलंदी भले रहे, महत्व को लोग नजरंादाज एंव दिग्भ्रमित करते हैं साथ ही उन महिलाओं के साथ हुए जुल्म और शोषण को नजरांदाज कर रहे हैं जिन्हे महिला वर्षों से झेलती आयी हैं जिसमे घरेलू हिंसा, परदे और बेपर्दे होते बलात्कार ,टीवी पर मुद्दे प्रदर्शन, पूंजीखोर लोगों द्वारा खुल्लमखुल्ला और धड़ल्ले से चलते विज्ञापन बाजार इन विभत्स मुद्दों पर कोई निषेध-नियंत्रण नहीं हो रहा। आरक्षण का आधार लेकर आने वाली महिलाएं उनकी स्वेच्छाकारी नीतियों के लिए शुभ होगा या नहीं होगा तो कितना होगा ये दलीलें दी जा रही है।
अतः आवश्वकता महिला आरक्षण की नहीं बल्कि समाज में आधारभूत किसी जमीनी जनांदोलन की है। ये परिवर्तन की इकाई परिवार के एक छोटे अंश से शुरू होती है। माॅ का, एक स्त्री का जागरुकता और आत्मविश्वासी होना ताकि वो अपनी बेटी को जागरुक बना सके और बेटे को प्रतिद्वंदी न बनाकर एक पुरुष बना सके जो स्त्री को एक देह के रुप में न देखकर एक व्यक्ति के रुप में देखंे जो हर रुप में जैसे ममतामई माॅ के रुप में, गृहणी के रुप में, एक अधिकारी के रुप में एक राजनेता एंव जननेता के रुप स्वीकार्यता मिले। आवश्कता तो आरक्षण की नहीं बल्कि समाज में उसकी पहचान की है उसके व्यक्तित्व की रक्षा की है। राजनीति के इस खेल में औरतों के पति जीतेगें या हारंेगे वे खुद नहीं आरक्षण भी पुरुषों को ही आरक्षित एवं सुरक्षित करेंगा।
लक्ष्मण जी पत्रकार और राजनैतिक विचारक हैं.

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय