13 जून 2009

वामपंथी संकीर्णतावाद की हार


लोकसभा चुनावों के ख़त्म होते ही जहाँ बुरी तरह से परस्त हुई भाजपा में फ़ुट देखने को मिल रहा है वहीँ वामपंथी खेमे में भी हार जीत को लेकर बहस चल रही है. वामपंथी बुद्दिजीवी माकपा-भाकपा की बुरे प्रदर्शन को लेकर जहाँ उनकी नीतियों को जिम्मेदार मन रहे हैं तो वहीँ एक वर्ग बिहार में सबसे ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ने वाली सीपीआई एम्-एल के ख़राब प्रदर्शन के लिए उसके नेतृत्व के अति उत्साह और आंकलन क्षमता पर सवाल उठा रहा है. २००७ में भाकपा (माले), से व्यापक आधार वाले राजनीतिक मंच के निर्माण और कुछ और वैचरिक मतभेद के बाद अलग हुए अखिलेन्द्र प्रताप सिंह ने उत्तर प्रदेश में "जनमोर्चा" बनकर चुनाव लड़ा. इस बहस की कड़ी में प्रस्तुत है अखिलेन्द्र प्रताप सिंह का एक आंकलन - संपादक

अखिलेन्द्र प्रताप सिंह

चुनावों में कांग्रेस की सफलता को लेकर अखबार, मीडिया द्वारा जोर शोर से यह प्रचार किया जा रहा है कि यह कांग्रेस की आर्थिक- राजनीतिक नीतियों की जीत है। कुछ ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि भारतीय राजनीति में अब केवल कांग्रेस और गांधी परिवार का ही भविष्य है अन्य दलों खासकर वामपंंिथयों की अब कोई राजनीतिक जमीन बचने वाली नहीं है। पांच साल मनमोहन की सरकार चलेगी, उसके बाद राहुल राज चलेगा। सलाह दी जा रही है कि विपक्ष को महज एक रचनात्मक विपक्ष की भूमिका में रहना चाहिए। आडवाणी का यह कहना है कि उनकी पार्टी की सबसे बड़ी भूमिका भारतीय राजनीति को दो धु्रवीय यानी कांग्रेस और भाजपा के इर्द- गिर्द बना देने की है। संघ-भाजपा परिवार को चुनाव में हारने का गम कम वामपंथियों की हार में खुशी अधिक है।
यह सच है कि कांग्रेस की सीटें पर्याप्त रूप से बढ़ी है और उसका वोट भी 2 प्रतिशत बढ़ा है। लेकिन इसके अलावा सच का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि आंध्र प्रदेश, तमिलनाडू, महाराष्ट्र जैसे प्रदेशों में कांग्रेस के वोट घटे है। अंाध्र प्रदेश में चिरंजीवी की प्रजाराज्यम, तमिलनाडू में रजनीकांत की डीएमडीके तथा महाराष्ट्र में राज ठाकरे की मनसे के कारण कांग्रेस तथा उसके सहयोगियों की सीटें कम वोट के बावजूद बढ़ गयी। कांग्रेस की विजय में तीन प्रमुख कारण दिखते है। भाजपा के जनाधार का उ0 प्र0 जैसे प्रदेशों में कांग्रेस की तरफ जाना, सपा- बसपा- राजद- लोजपा जैसे दलों की जोड़- तोड़ की राजनीति से लोगों की नाराजगी और आम लोगों का राजनीति से अलगाव व तुलनात्मक रूप से कांग्रेस की कथित शालीनता के प्रति झुकाव, सामाजिक न्याय व सुरक्षा से वंचित अल्पसंख्यक और अति पिछड़ो की राजनीतिक दावेदारी ने कांग्रेस को फायदा पहंुचाया है। उ0प्र0 के ढे़र सारे संसदीय क्षेत्रों में यदि सपा से हटकर अल्पसंख्यकों ने छोटे क्षेत्रीय दलों को मत न दिया होता तो कांग्रेस और कुछ जगहों पर भाजपा की जीत सम्भव न हो पाती।
भाजपा का यह कहना कि उसने भारतीय राजनीति को दो ध्रुवीय बनाया है, बड़बोलेपन और डेमेज कंट्रोल के सिवा और कुछ नहीं है। इस चुनाव में दोनो दलों के सम्मलित मत 48 प्रतिशत ही है। 50 प्रतिशत से अधिक मत इनके विरूद्ध गया है। यूपीए और एनडीए के खिलाफ जनपक्षधर नीतियों और कार्यक्रम पर आधारित तीसरे मोर्चे की जरूरत भारतीय राजनीति का केंद्रीय विषय बना रहेगा। जन संघर्षो को इस राजनीतिक लक्ष्य की तरफ लक्षित होना चाहिए। जहां तक वाम की राजनीतिक दिशा का सवाल है, यूपीए - एनडीए के इर्द - गिर्द ही देश की राजनीति को बाधने की कोशिश यदि दक्षिणपंथ के दो बड़े दल और देश -विदेश की घोर प्रतिक्रियावादी ताकतें कर रहीं हो, उस समय तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की जबाबदेही से कोई भी वामपंथी दल कैसे पीछे हट सकता है। वामपंथी दलों के साथ चुनावी तालमेल की राजनीतिक कार्यदिशा पर माले नेतृत्व का रूख अवसरवादी और अपनी पीठ थपथपाने वाला रहा है। मजेदार बात यह है कि एक तरफ जहां बिहार में वामपंथी दलों की एकता से उत्साहित होकर पार्टी केंद्रीय नेतृत्व दूसरों को नसीहत दे रहा था कि कुछ लोग बिना पार्टी के ही मोर्चा बनाने चले थे, समय आने पर उन्होने मोर्चा बनाकर दिखा दिया और यह भी कहा गया कि ‘वामपंथी एकता से नेपाल में ढाई सौ वर्षो से चली आ रही सामंती राजशाही का अंत हो सकता है तो फिर भारत में एनडीए व यूपीए का अंत क्यो नहीं हो सकता?’ (भाकपा माले मुखपत्र : लोकयुद्ध अंक 11) लेकिन कुछ दिन बाद ही 180 अंश की पलटी दिखी और पूरी बहस एनडीए व यूपीए के खिलाफ कम और तीसरे मोर्चे के खिलाफ ज्यादा केन्द्रित हो गयी। बताया गया कि ‘सरकार गठन में भूमिका अभी उसके एजेंडा में या फिर वरीयता में कहीं नहीं है’( लोकयुद्ध अंक 12)। सरकार बनाने का एजेंडा या वरीयता की बात करना ही कहां तक जायज है, जब कि पार्टी कार्यक्रम केन्द्र में सरकार बनाने की इजाजत ही नहीं देता है। केन्द्र में सरकार बनाने की इजाजत माले लिबरेशन देता है, तो कम से कम लोगों को पता होना ही चाहिए। बहरहाल
सीपीएम नेतृत्व के वामपंथी दलों के बेहद खराब चुनावी प्रदर्शन का प्रमुख कारण बंगाल में भूमि अधिग्रहण की गलत नीति और केरल में पार्टी के अन्र्तद्वंद्व है।
जहां तक भाकपा (माले) के चुनावी प्रदर्शन का सवाल है, मध्य बिहार के कंेद्रित इलाके में उसके लगभग आधे वोट का सफाया हो गया है, वहीं पूरे देश में 20 प्रतिशत मत कम हुआ हैं। आंध्र प्रदेश जो पार्टी के कामकाज का बहुत पुराना इलाका है, वहां अधिकांश सीटों पर 500 से कम मत मिले है, किसी एक सीट पर 2000 मत भी नहीं मिला है। असम के कार्बी आंग्लांग में, जहां माले के सांसद हुआ करते थे, वोट घटकर 39046 पर आ गया, जबकि वहीं प्रतिद्वंद्वी एएसडीसी को 123287 मत प्राप्त हुए। गौर करने लायक है कि एएसडीसी को भाजपा समर्थित बताया जाता था, लेकिन भाजपा भी यहां से चुनाव लड़ी थी, जिसे 100081 मत प्राप्त हुए। मतगणना के ठीक पहले तक पार्टी नेतृत्व को यह आभास ही नहीं था कि वह इतना बुरा प्रदर्शन करने जा रही है। 16-22 मई 2009 लोकयुद्ध के अंक में पार्टी नेतृत्व लिखता है कि शासक वर्ग बेहद रक्षात्मक स्थिति में पहुंच गए है और जनता ने उन्हे नकार दिया हैं। दूसरी तरफ चुनाव प्रक्रिया में लोकप्रिय शक्तियों का यानी माले जैसी शक्तियों की उसी अनुपात में और ज्यादा दावेदारी बढ़ी है और यह दावेदारी संसद में क्रांतिकारी विपक्ष के रूप में उभरेगी। यह भी कहा गया कि पार्टी ने जाति के खिलाफ वर्ग को खड़ा कर दिया गया है और इस बार के चुनाव में लोगों को माले की ताकत का एहसास हो जायेगा। नेतृत्व का परिस्थितियों का यह मनोगतवादी मूल्यांकन और अपनी ताकत के अति मूल्यांकन की शिनाख्त चुनाव में ठोस रूप से हुई है, लेकिन यह अपवाद नही है। यही चितंन प्रक्रिया लम्बे अरसे से मौजूद है और माले जैसी पार्टी के विलोप के लिए मुख्यतः जिम्मेदार भी है।
पार्टी की कंेद्रीय कमेटी ने ठीक ही चुनावी प्रदर्शन को ‘खतरे की घंटी’ माना है। लेकिन खतरे की घंटी का मतलब क्या है इसे स्पष्ट नहीं किया गया है। जिसकी जैसी मंशा उसकी वैसी व्याख्या हो सकती है। उन दलों के लिए जिनके सांसद संसद में हो, उनकी संख्या घटी हो या कोई प्रतिनिधि संसद में न पहुंचा हो उनके लिए खतरे की घंटी का मतलब है, उस दौर के लिए संसद की राजनीति में अप्रसांगिक होना। माले जिसका कहीं कोई संसद में प्रतिनिधित्व ही नहीं है, उसके लिए खतरे की घंटी का सीधा मतलब है, पार्टी के विलोप हो जाने का खतरा। ठीक यहीं बहस आठवीं कांग्रेस में उठी थी और यह कहा गया था कि निरन्तर पार्टी के जनाधार में क्षरण हो रहा है, आकंडों से दिखाया गया था कि बिहार में हमारे मतों में भारी गिरावट आ रही है, संसदीय राजनीति में हम अप्रासंगिक होते जा रहे है। गम्भीर समीक्षा की मांग की गयी थी और आवश्यक सुधार के कदम उठाए जाने की दिशा में व्यापक आधार वाले राजनीतिक मंच के निर्माण की बात कही गयी थी, जिसे विलोपवादी विचार कहकर नकार दिया गया था और जोर शोर से कहा गया कि पार्टी का विकास हो रहा है, जबकि सीपीएम और माओवादी अंधी गली में फंस गए है। केंद्रीय कमेटी 24-26 मई की बैठक का सरकुर्लर ‘समूची पार्टी को सच्चे आत्मानुसंधान और जांच पड़ताल की भावना के साथ, और इस बात के लिए तैयार होकर कि सुधार के जो भी कदम जरूरी हुए उन्हे अपनाया जायेगा........’ क्या जरूरी कदम उठाए जायंेगे, उस पर रोशनी नहीं डाली गयी है। चंूकि हार के लिए राजनीतिक दिशा की समीक्षा नही की गयी है, पूरी जबाबदेही निचले स्तर के कार्यकत्र्ताओं के लिए छोड़ दी गयी है, तो सुधार की क्या राजनीतिक दिशा होगी वह भी स्वतः स्पष्ट है। केंद्रीय कमेटी का सरकुर्लर कहता है कि नरेगा, बीपीएल जैसे मुद्दों पर चले संघर्ष पर्याप्त राजनीतिक आवेग नहीं पैदा करते। यानी अब इन मुद्दों पर उतना जोर नही रहेगा। लेकिन कोई भी मुद्दा हो क्या अपने आप वह आवेग पैदा कर सकता है। वर्ग शक्तियों के राजनीतिक संतुलन और उसके आधार पर ली गयी राजनीतिक पहलकदमी के बगैर क्या कार्यकत्र्ताओं में राजनीतिक आवेग पैदा किया जा सकता है। कंेद्रीय कमेटी के सरकुर्लर में आठवीं पार्टी कांग्रेस के दस्तावेज को खुले दिल से कोट किया गया है। यह क्या दिखाता है। पूरी पार्टी कांग्रेस विलोपवाद के विरूद्ध केंद्रित थी और आज तमाम बड़बोलेपन और पार्टी विकास के आंकडेबाजी के बावजूद राजनीतिक यथार्थ ने पार्टी नेतृत्व को बाध्य कर दिया कि अंदर से पार्टी के विलोप हो जाने का खतरा वास्तविक है, इसे वह स्वीकार करे। कहीं लोग आठवीं पार्टी कांग्रेस की विश्वसनीयता और वैधता पर ही सवाल न खड़ा कर दें, इस लिए बार -बार उसके प्रमाणिकता की बात उठाई जा रही है। चुनाव प्रदर्शन से यह स्पष्ट है कि वामपंथ का नया उभार का नारा मनोगतवादी था। इस पर पुर्नविचार करने की जगह तोता रटंत भाव से ‘जन प्रतिरोध का ज्वार -वामपंथ का नया उभार ’ के जुमले को दोहराया जा रहा है। जबकि केंद्रीय कमेटी का सरकुर्लर यह स्वीकार करता है कि परिस्थितियों का आकलन उसका गलत था और अपनी सम्भावनाओं को लेकर पार्टी अति मूल्यांकन का शिकार थी, यानी वह वामपंथी भटकाव का शिकार है। सरकुर्लर यह भी स्वीकार करता है नीतीश के पक्ष में एक सशक्त अंतरधारा बह रहीं थी और पार्टी इसे समझ नहीं पायी। लालू और रामविलास के विरूद्ध जनविक्षोभ को तो हम समझ सकते है, लेकिन नीतीश ने क्रंातिकारी वामपंथ के जनाधार को कैसे आधा कर दिया इसकी कोई व्याख्या नहीं है। क्या सीपीएम के कथित सामाजिक-जनवाद के विरूद्ध लड़ाई को व्यवहारतः राजनीति का केंद्रीय एजेण्ड़ा बनाकर माले नेतृत्व ने नीतीश की राजनीति को वाकओवर नहीं दे दिया, क्या माले के राजनीतिक पराभव के इस कारण की छानबीन नहीं होनी चाहिए।
माले नेतृत्व अपनी व्याख्या में असली तथ्यों से किस हद तक आंख चुरा सकता है, उसकी एक झलक चुनाव परिणाम आने के पूर्व के लोकयुद्ध के अंक में देखी जा सकती है। मतदाताओं की चुनाव में कम हिस्सेदारी का कारण लेख बताता है कि मुख्यधारा कि पार्टियों में जनता का विश्वास नहीं है, लेकिन सुविधापूवर्क वह यह भूल जाता है कि भोजपुर में, जिसे माले क्रांतिकारी संघर्षों के माडल के बतौर पेश करता है, 38 प्रतिशत मतदाताओं ने ही मतदान में हिस्सा लिया।
बहरहाल जहां तक चुनाव में हमारे प्रदर्शन का सवाल है, उसे हम संतोषजनक मानते है। जन संघर्ष मोर्चा का गठन हुए अभी एक वर्ष भी नहीं हुआ है, कम समय और संसाधनों की चुनौती के बावजूद वामपंथी धारा के रूप में उ0प्र0 में हम अपनी जगह बनाने में सफल रहे हैं। हमें 12 सीटों पर 60788 मत प्राप्त हुआ हैं। जिसमें मोहनलालगंज में 17082, रार्बट्सगंज में 9951, बस्ती में 6017, बलिया में 4738, बदायूं में 4339, चन्दौली में 3673, सलेमपुर में 3502, उन्नाव में 3473, कैसरगंज में 2736, मिश्रिख में 2099, रायबरेली में 2041, पीलीभीत में 1139 मत तथा बिहार के एक लोकसभा क्षेत्र में 16293 मत प्राप्त हुए है। मलीहाबाद व मुगलसराय उपचुनाव में हमें उतरना है।
आने वाले दिनों में हमें किसानों - मेहनतकशों के सवालों तथा अतिपिछड़ो व अन्य वंचितों के सामाजिक न्याय, युवाओं के रोजगार के मौलिक अधिकार एवं राष्ट्रनिर्माण तथा विकास के लिए विदेशी बैंको में जमा काले धन की वापसी व जब्ती आदि प्रश्नों पर एक लोकप्रिय पहलकदमी लेते हुए राष्ट्रीयस्तर पर एक सशक्त लोकतांत्रिक धारा के निर्माण की ओर बढ़ना है ।

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