01 जुलाई 2009

जून का महीना

ऋषि कुमार सिंह

जून का महीना न तो दिल्लीवासियों के लिए आरामदायक होता है और न ही सैलानियों के लिए खुशनुमा माहौल पैदा करता है। बिजली और पानी की तंगी जैसे मुद्दे वातानुकूलित कमरों में बैठे नेताओं के पसीने छुड़ाते रहते हैं। यहां दोपहर का तापमान 41 डिग्री के ऊपर और चारों ओर लू का पहरा होता है। दिन भर पसीना नहीं सूखेगा,घर से बाहर निकलने वाले यही मानकर चलते हैं। मौसम की इस बेरुखी के बावजूद लुटियंस की बसाई दिल्ली को देखने के लिए मचलने वाले लोग कम नहीं हैं। ऐसे लोगों में दिल्ली के निवासी और अनिवासी दोनों शामिल हैं। यहां एक ओर अमर जवान ज्योति शहीद सैनिकों की यादों को संजोए इंडिया गेट खड़ा मिलता है,तो दूसरी तरफ संसद और राष्ट्रपति भवन जैसे भव्य और शीर्ष सत्ता प्रतिष्ठान दिखाई देते हैं।
यहां पहुंचने वाले लोगों को भारतीय गणराज्य की भव्यता के तमाम आयामों को निहारने में उस समय बाधा पहुंचती है,जब मौसम का लिहाज करते हुए प्यास सताने लगने लगती है। पानी की तलाश में बोटिंग के लिए बनाए गए तालाब का गंदा पानी ही दिखाई देता है। जिसको देखने के साथ ही अराजकता और अपेक्षाओं के बीच द्वन्द्व शुरू हो जाता है। लेकिन पानी कहां मिलेगा,यह प्रश्न अब भी बरकरार रहता है। यह समझने में ज्याद देर नहीं लगती कि बिना पैसे चुकाए गला तर करने की कोशिश विफल रहने वाली है। पानी का अभाव व्यक्ति में यह हिम्मत पैदा करने लगता है कि अब तो पानी खरीद कर ही पीना पड़ेगा। आशा-निराशा और क्षोभ मिश्रित माहौल व्यक्ति को कवि दुष्यंत कुमार की पंक्तियों -“कहां तो तय था चिरागां हरेक घर के लिए......कहां अब रोशनी मयस्सर नहीं शहर के लिए” के सारे भावों को समझने के लिए माकूल बना देता है। राज-व्यवस्था की इस तंगहाली के बीच आम आदमी होने की तल्खी तब और बढ़ जाती है,जब उसे अधिकतम मूल्य से तीन रुपए ज्यादा देकर यानी 15 रुपए में एक लीटर पानी खरीदना पड़ता है। आज के संदर्भ में यही विकल्पहीनता आम आदमी के जीवन का सत्यानाश करने पर तुली हुई है। जबकि उदारीकरण या कहें तो लोकहितों को बाजार की शर्तों पर तय करने की प्रक्रिया को शुरू करते हुए रहनुमाओं ने यह वादा किया गया था कि बाजार के नियामक के बतौर सरकार की भूमिका को कम नहीं किया जाएगा। प्रभावी नियमन के लिए सरकार विकल्पों को पैदा करती रहेगी। लेकिन लुटियंस की दिल्ली में पीने के पानी की विकल्पहीनता नीतिगत वादा खिलाफी का सबूत है। गौरतलब है कि शीर्ष सत्ता प्रतिष्ठानों का केंद्र होने बावजूद इस इलाके में एक अदद प्याऊ की व्यवस्था नहीं है। जबकि इन प्रतिष्ठानों के भीतर के बाबुओं के लिए सारी सुविधाएं मौजूद हैं। खास बात कि देश का नागरिक होने और राष्ट्रप्रेम के नाते इन राजपथों से गुजरने का अधिकार गरीबों को भी है और उसे भी है जिसके पास 12 या 15 रुपए में पानी खरीदकर पीने की कूबत नहीं है। तब एक बेबाक सा प्रश्न सामने होता है कि आखिर यह सारा तंत्र और राजनीति का मंचन किसके लिए है ? क्या संसद चुनने वालों को इतनी भी सुविधा पाने का अधिकार नहीं है कि जब संसद की दीवारों के नजदीक से गुजरे तो गला तर करने के लिए पैसे न चुकाने पडे़।
इस इलाके में संवैधानिक प्रमुख,कार्यकारी प्रमुख,सर्वोच्च विधि निर्मात्री संस्था और जनता की नब्ज जानने का दावा करने वाला पत्रकार समूह सभी मौजूद रहते हैं। मानें तो लोकतंत्र की वह अविरल धारा यहीं से बहती है,जिससे देश की एक अरब से अधिक आशाएं जीवन पा रही होती है। बावजूद इसके बाजार की बेइमानी और सत्ता के संवेदनहीन कार्य-व्यापार के बीच अमर जवान ज्योति और शीर्ष सत्ता प्रतिष्ठानों को देखकर उपजा राष्ट्र गौरव छलावा सा लगने लगता है। अगर इन जगहों पर आम आदमी के हितों का यह हाल है तो इस सघन सत्ता केंद्र से दूर हटने हुए उसके अधिकारों पर होने वाले हमलों का सहज अनुमान किया जा सकता है।
पानी और इस जैसी अन्य जरुरी चीजों पर बाजार पूरी तरह से हावी होता जा रहा है। ऐसे माहौल में अगर सरकार विकल्प नहीं पैदा कर पाती है,तो उसके साथ वे लोग कतई नहीं आऐंगे जो कम से कम बाजार के दायरे से बाहर हैं। क्योंकि इन लोगों के लिए सरकार और बाजार में कोई चारित्रिक अंतर नहीं है। यानी जो बाजार का मजा लेने में सक्षम हैं,सरकार भी उन्हीं के हितों को पोषित करने वाली है। दिल्ली सहित सभी महानगरों में कुछेक धार्मिक स्थानों पर चलाए जा रहे प्याऊ को छोड़ दें,तो सरकारी स्तर पर ऐसी कोई व्यवस्था काम नहीं कर रही है,जहां पीने के पानी का दाम न चुकाना पड़ता हो। इस तरह की विकल्पहीनता ने जनता के व्यवहार में कई बड़े बदलाव किए हैं,जैसे प्रदर्शनों में आयी उग्रता। दिल्ली विश्वविद्यालय में पीने के पानी की व्यवस्था को न लेकर फॉर्म लेने आए छात्रों की तोड़-फोड से यह साफ है कि लोग विकल्पहीनता से विद्रोह करने कूबत रखते हैं। दरअसल यह किसी योजनागत कार्रवाई का परिणाम नहीं है, बल्कि सरकार की नाकामियों के खिलाफ उपजा गुस्सा है। संसद की चमकती सड़कों से लेकर ग्राम पंचायत की पगडंडियों तक की जनता सरकारी ठगी का शिकार है। ऐसे में यह विश्वास बनाए रखना बड़ा मुश्किल है कि यह राज-व्यवस्था जनता के लिए है। क्योंकि अगर वाकई में जनता के लिए है तो जनहितों से समझौता कैसे कर सकती है ?

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