राघवेंद्र प्रताप सिंह
मीडिया का मतलब जहां तक लोग ऐसा समझते हैं कि वह बातों को से प्रेषित करता है। यदि सूचनाएं भ्रम पैदा करें और लोगों को दिग्भ्रमित करें तो परिणाम घातक होंगे। आजकल टीवी के माध्यम से जो विज्ञापन प्रस्तुत हो रहे हैं वह किसी डबल एक्स फिल्म से कम नहीं हैं। इन विज्ञापनों में अंडरवियर, परफ्यूम, दंतमंजन, साबुन से लेकर मोबाइल तक शामिल हैं। इस प्रचार शैली को दो श्रेणी में बांटा जा सकता है। पहली पुरातन पितृसत्तात्मक शैली और दूसरी आधुनिक मर्दवादी शैली। जहां एक तरफ घर में गृहणी एमडीएच मसाले से पति को खुश करेगी वहीं दूसरी तरफ अंडरवियर देखकर कुछ जलपरियां पुरुष के प्रति आकर्षित दिखाई पडें़गी। लक्स के अंडरवियर आप पहनें और समुद्री बीच पर खड़े हों तो डॉçल्फन मछलियां उछलेंगी। आम तौर पर ऐसे प्रचार दर्शकों के अंदर उत्तेजना पैदा करते हैं। इस तरह के विज्ञापनों की सं या एक दो नहीं बल्कि आधे घंटे के सीरियल में तीन से चार बार दिखाई पड़ेगा। इसमें अमूल माचो अंडरवियर का तो कहना ही क्या।
मर्द को स्टीरियो टाइप की इमेज में बांधा जा रहा है कि वह बलशाली हो, गुड लुकिंग हो, सेक्सी हो। यहां पर सवाल किसी के अच्छे दिखने का नहीं है लेकिन नवउदारवादी बाजार एक तरफ बराबरी की बात करता है दूसरी तरफ सामंती मूल्यों को भी स्थापित करता है। क्या मदाüनगी का पैमाना या सौंदर्य का पैमाना इन विज्ञापनों में दिखाए जा रहे मर्द के अनुरूप है। यह नितांत भ्रम है। दूसरे इन प्रचारों के माध्यम से बच्चों पर गलत प्रभाव पड़ता है। जिनमें बचपन से पहले ही जवानी आ जाती है। संस्कृति के ठेकेदार सेक्स पर जागरूकता फैलाने को अश्लीलता का आरोप लगाते हैं। लेकिन जब इस तरह की अश्लीलता जो घर-घर में परोसी जाती है इस पर यह मौन धारण किए रहते हैं।
एक्स बॉडी डियो और गाçर्नयर के विज्ञापन में तो साफ-साफ यौन आमंत्रण रहता है। यदि यह परफ्यूम लगाएंगे तो लड़कियां फोन नंबर देकर घर पर बुलाएंगी। वह अपने सपने में आपको बिस्तर पर देखना चाहेंगी। यह क्या है? यह अश्लीलता नहीं है। जबकि ऐसे विज्ञापनों से पहले तो किसी तरह का संदेश भी नहीं दिया जाता है कि इसे 18 साल से कम उम्र वाले न देंखें। इससे हम अपने देश के बचपन को मार कर उसे जल्द ही जवान कर देते हैं। इसी का कारण है कि बचपन में ही बहुत सारे बच्चे बालात्कार, लड़कियों को छेड़ने जैसे अपराध कर डालते हैं। इनके पीछे यही माहौल काम करता है।
यदि यही विज्ञापन शैली महिला-पुरुष के जेंडरगत या सेक्स की समस्याओं को लेकर जागरूरता पैदा करती तो एक स्वस्थ्य समाज बनता। मगर इन विज्ञापनों ने तो युवाओं को कुंठाग्रस्त ही किया है। जो लड़का परफ्यूम, बाइक, महंगे मोबाइल नहीं यूज करता वह पिछड़ा है। नतीजतन समाज में युवाओं के दो वर्ग हो रहे हैं। एक कुंठाग्रस्त पिछड़ा युवा दूसरा ल पट युवा। जिसका सामाजिक वैचारिकी से कोई लेना-देना ही नहीं है। हमारा बाजार क्या गढ़ रहा है? यह सामंतवादी गठजोड़ के विज्ञापन हैं। मर्द की श्रेष्ठता के सामंती मूल्यों को पंूजीवाद नए-नए तरीकों से बाजार में प्रस्तुत कर रहा है। जिस देश में लगभग 70 प्रतिशत आबादी युवाओं की है वहीं पर 80 प्रतिशत आबादी 20 रुपए से भी कम आमदनी पर गुजारा कर रही है। तो ऐसे में तो लाखों-करोड़ों युवा गरीबी के कारण कुछ भी खरीद नहीं पाते हैं।
हमारे बाजार में तो लड़की को एक माल के रूप में प्रचारित किया जाता है। आज जो स्त्री मुçक्त का सपना दिखाया जा रहा है। उसमें से कहीं भी उसकी राजनीतिक समझदारी को मुद्दा नहीं बनाया जा रहा है। यह यौनिकता का उभार ही है जिसे प्रकट करके इसेे समझने का प्रयास किया जा रहा है। एक तरफ मर्द की श्रेष्ठता दूसरी तरफ स्त्री का माल बनना। यह सब हमारे समाज के ताने-बाने को कमजोर ही करता है। इतिहास काल में स्त्री पर नियंत्रण करके उसे गुलाम बनाया गया और अब माल के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। यह सामंतवाद से बाजारवाद की यात्रा है। अ ाी सानिया मिर्जा द्वारा एक स्कूटी का विज्ञापन दिखाया जाता है जहां पर लड़के आह भरते हुए दिखाई पड़ते हैं कि क्या वो दिन था जब लड़कियां उनके पीछे बैठती थीं। इनका मतलब है पीछे बैठना ही लड़कियों की नियति है। विज्ञापन में यह मिथ टूटने के बजाय मजबूत होता दिखाई पड़ता है।
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