08 जुलाई 2009

विज्ञापन के बहाने

संदीप कुमार दुबे

पिछले दिनों बीयर की बोतल पर हिंदुओं के विध्नविनायक भगवान गणेश की फोटो लगे होने का मामला प्रकाश में आया। इस पर हिंदू संगठनों ने कडा विरोध किया। धर्म जैसे अफीमी मुद्दे पर विवादित विज्ञापनों द्वारा जनभावना पर चोट पहुचाये जाने का मामला हो या फलाॅ कम्पनी का गर्भनिरोधक खाकर युवाओं को बेफिक्र मस्ती करने को प्रेरित करते गर्भनिरोधक दवाओं और उत्पादों के विज्ञापन, इन सभी के द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से समाज और संस्कृति को नुकसान पहुॅचाने की कोशिश प्रचारतंत्रो की खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करती है। ये मात्र उत्पाद को येनकेन प्रकारेण बाजार में स्थापित कर मुनाफा पीटने के लिए ही किया जा रहा है इसमें कोई शक नही।
समाज में हीनभावना जैसी प्रतिभामारक प्रवृत्ति को फैलाने वाले विज्ञापनों का सामजिक दायित्व से कोई मतलब नही जान पडता। सौंदर्य प्रसाधन के उत्पादों के विज्ञापनों में कम्पनियों द्वारा ‘‘सुंदरता और स्मार्टनेस’’ के नित नये मायने गढ़े जा रहे हैं। और ये सब मात्र आर्थिक लाभ की खातिर। एक विज्ञापन तो केवल उसी छोटी बहन की शादी करवाता है जो उस ब्राण्ड की क्रीम लगाकर गोरी हो गयी। बडी बहन का मजाक बनाते इस विज्ञापन में बडी बेशर्मी से माता-पिता को भी खुश होते दिखातें है। उत्पाद बनाने वाली कम्पनी उत्पाद के साथ एक पट्टी ‘‘मुफ्त’’ देती है जिसमें त्वचा के काले और गोरे रंग के भेद का पैमाना बनाया गया है। हीन भावना का चरमोत्कर्ष और बाज़ार द्वारा स्थापित सुंदरता के मायनों का क्या दुष्परिणाम होता है, इसकी एक बानगी मशहूर पाॅप स्टार माइकल जैक्सन हैं। गोरे काले के बाजारु मापदण्ड में फॅसा ये पाॅप स्टार प्रकृति के दिये रुप को नही स्वीकार कर सका और दर्जनों बार प्लास्टिक सर्जरी करवाने के बाद देह को दवाओं के हवाले करने को मजबूर हो गया। अंततोगत्वा करोड़ो डाॅलर के कर्ज के साथ विवादित परिस्थितियों में इस गायक की मौत हुयी। ऐसी घटनाएॅ अक्सर होती है जिसमें बाजार और अर्थ के दखल से सामाजिक और धार्मिक मूल्यों को तोडने का प्रयास किया गया है। ऐसी ही एक घटना कुछ वर्ष पहले हुयी जब एक सिख क्रिकेट खिलाडी ने शराब के विज्ञापन के लिए अपनी पगडी खोल दी। सिख समुदाय ने कडा विरोध किया तो मामला माफी पर जाकर खत्म हुआ।
आधुनिक जीवन शैली को स्थापित करने वाले उत्पादों के विज्ञापन अपने सामान का प्रचार करने के साथ ही साथ एक ऐसी विचारधारा के प्रचार में लगे हैं जिसमें पूॅजीवाद का खुला सर्मथन है और इसमें सामाजिक सरोकार मुनाफे के आगे दबा हुआ है। आहें भरता और सपनों में खोया एक बहुत बडा युवावर्ग अपने विचार को भोगवाद से आगे नही ले जा सका है। इसके पीछे का बडा कारण प्रचार माध्यमों का कम्पनीमेड लाइफस्टाइल को व्यापक पैमाने पर समाज में उत्प्रेरण है। विज्ञापनों के जरिये भेजे जा रहे संदेशों में उत्पाद की सूचना के साथ खरीदने के लिए प्रेरित करने वाले तत्व भी शामिल होतें है। कई विज्ञापनों में यहीं प्रेरक तत्व लोगों को समाज की अमान्य करतूत करने के लिए भी प्रेरित करते है। गर्भनिरोधकों के विज्ञापन इस दिशा में बहुत आगे तक जा चुके है। गाडी के विज्ञापनों में भी नारी को उन्मुक्त दिखाने का नजरिया भी पुरुषवादी ही है। विज्ञापनों के जरिए ‘‘देह आमंत्रण’’ का अभियान भी संचार माध्यमों में पिछले कई सालों में धडल्ले से चलाया जा रहा है। इनके पीछे लगी कम्पनियाॅं स्वयं को मंदी जैसी महामारी से बचाने और कंपनी के स्वास्थ्य का प्रतीक मुनाफे की उत्तरोतर बढोत्तरी के लिए संस्कृति को नुकसान पहुॅचाने में बिल्कुल भी संकोच नही करती। विज्ञापनों द्वारा उत्पाद संस्कारों पर भी हावी होते जा रहे है। एक प्रतिष्ठित शीतल पेय के विज्ञापन में दिखाया जाता है कि बच्चा घर में आये मेहमान से भी अपनी चीजें बाॅटने से इनकार कर देता है। ये भारत की ‘‘अतिथि देवो भवः’’ की संस्कृति को बच्चों के मन से निकाल कर स्वार्थकेंद्रीत प्रवृत्ति को स्थापित करने की कोशिश नही तो क्या है? सर्वेक्षण के नतीजे बताते हैं कि इस ‘‘स्वार्थकेंद्रीत’’ प्रवृत्ति में ही कंम्पनियों का फायदा है। ऐसे ही कुछ एक इंश्योरेंस कम्पनी के विज्ञापन में भी दिखाया जाता है। इसमें असहाय बूढ़ों की मदद के कारण प्यार से बच्चे को दिया एक रुपया भी बूढे का स्नेह न होकर कंपनी के लिए ‘‘पहली कमाई’’ है।
लोगों की जीवन शैली में गहराई तक बाज़ार की दखल कराने में विज्ञापनों का अहम किरदार रहा है। समाज मंे युवाओं के लिए आदर्श बने क्रिकेटरों और सिने स्टार की छवि के इस्तेमाल से विज्ञापन अपने उत्पाद को महज बिकाउ बनाने के लिए सारे हथकंडे अपना रहे है। वाहनो को तेज रफ्तार और माइलेजदार दिखाने के लिए क्या विज्ञापनो मेें ये दिखाना जरुरी है कि फला कंपनी की बाइक चलाने से विपरीत लिंगी का स्पर्श सुख मिलेगा! तेज रफ्तार इतनी की पुलिस को भी चकमा दे दे! आजकल के विज्ञापनों द्वारा यही सब दिखा कर आधुनिक युवा के नये मायने गढ़ने में कंपनियाॅ जुटी हुयी है। कपड़ों का विज्ञापन बगैर यौन उत्तेजना के तत्वों के तो पूरा ही नही होता। वस्त्र और अधोवस्त्र के विज्ञापनों में कोई अंतर नही। आखिर पुरुष के अधोवस्त्र के विज्ञापन में महिला का क्या काम? ‘‘माचोमैन’’ और ‘‘टोइंग’’ के पहले से भी देह को विज्ञापनों का प्रमुख अंग बनाये जाने की प्रवृत्ति रही है। एकाध विज्ञापनों में तों वैचारिक स्तर पर बडी हास्यास्पद चीजें परोसी जा रही है। मोबाइल से जनमत बनाने, स्कूलों में पढाई और स्वस्थ्य रहने की टिप्स देने की तकनीकी बचकानी लगती है। इस विज्ञापन में फिल्म स्टार की भूमिका तो और भी हास्यास्पद है। ‘‘दुनियाॅ को मुट्रठी’’ में करने को आतुर कंपनियाॅ ग्राहक का पीछा करने के लिए अपना नेटवर्क फैला रही है। ये नेटवर्क विज्ञापन के रुप में मोबाइल, टीवी, रेडियो, इंटरनेट और अखबार के जरिये ग्राहक तक तेजी से फैल रहा है।
विज्ञापन न सिर्फ संचार के व्यापार से जुडे लोगों की आर्थिक सेहत सुधारते है बल्कि बाज़ार में प्रतीकात्मक रुप से अपनी कंम्पनी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। आज के विज्ञापन महज बाज़ार के दबाव में सामाजिकता और मानवता को चाटिल करने में लगे हुए है। विज्ञापनों का प्रयोग उत्पाद की जानकारी देने से ज्यादा मुनाफाखोरी की प्रवृत्ति को बनाये रखने और धन का प्रवाह एक सीमित वर्ग की ओर मोडने की साजिश के तहत हो रहा है। लगातार बढता अरबों रुपये के विज्ञापन के बाज़ार का समाज पर दुष्प्रभाव के आकलन करने की प्रभावी कोशिश व्यापक पैमाने पर नही हो रही।
इन विज्ञापनों के बीच कुछेक विज्ञापन अपना अच्छा असर छोडते। भले ही ये व्यसायिक उद्देश्य से विज्ञापित किये जाते हो पर इनकी प्रस्तुति में शामिल मानवता और सामाजिकता के मूल्य अन्य विज्ञापन निर्माता/प्रदाता के लिए उदाहरण है। उत्पाद की प्रकृति के साथ साथ मानव मूल्यों को शामिल करने वाले विज्ञापन दर्शकों को अच्छा संदेश भी देतें है। कुछ चुनिंदा स्थापित सिने कलाकारों, और खिलाड़ियों द्वारा गलत संदेश और दिग्भ्रमित करने वाले उपभोक्तावादी उत्पादों के विज्ञापन करने से इनकार करना समाज के जिम्मदार लोगों द्वारा उठाया गया सुखद एवं प्रशंसनीय कदम है।

संदीप इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पत्रकारिता एवं जनसम्पर्क विभाग के छात्र है।

1 टिप्पणी:

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

वित्तीय पूंजी सिर्फ मुनाफा देखती है, और कुछ नहीं।

अपना समय