25 जुलाई 2009

'सच' का सामना


प्रीतीश नंदी
आज इस लेख को लिखने की वजह एक नया टीवी शो है, जिसमें कोई भी प्रतिभागी 21 सवालों का जवाब देकर एक करोड़ रुपए जीत सकता है. शर्त यह है कि उसे शो में पूछे गए इन सवालों का जवाब बिलकुल सच देना होगा. एक पॉलीग्राफ टेस्ट उनकी सत्यता की जांच करेगा. आपने एक झूठ बोला और आप इस गेम शो से बाहर.
वास्तव में हम सच्चाई को हमेशा से ही पूजते चले आ रहे हैं. हमें जन्म से ही सिखाया जाता है कि हम सच बोलें और हमेशा इस पर कायम रहें. हमारा न्यायशास्त्र सच पर निर्भर है. हमारे जीवन मूल्य सच पर निर्भर हैं. हमारे धर्मों ने सच को सदैव अक्षुण्ण रखा और बेचारे युधिष्ठिर को अपने स्वर्ग जाने की राह में महज इसलिए दंडित किया गया कि वे अपने जीवन में सिर्फ एक बार और वह भी महाभारत के भीषण युद्ध के दौरान सत्य के मार्ग से थोड़ा सा भटक गए थे.

सच्चाई किसी भी न्यायिक और सभ्य सामाजिक व्यवस्था की बुनियाद है. यही कारण है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को इतना महत्वपूर्ण माना जाता है. किसी न किसी को कहीं न कहीं हमेशा सच्चाई की खोज में लगे रहना चाहिए, ताकि झूठ का पर्दाफाश किया जा सके, न्याय किया जा सके और अच्छाई की बुराई पर जीत हो.

सच्चाई के व्योम में ही अच्छे लोग रहते हैं. अदृश्य सींग और पूंछ वाले बुराई के पुतले झूठ की अंधेरी कंदराओं में मंडराते रहते हैं. यही वह परिकल्पना है जो सच और झूठ के मध्य समग्र बहस को प्रेरित करती है. यह अच्छाई और बुराई के बीच एक शाश्वत जंग है.

इस संदर्भ में मेरी राय कुछ जुदा है. मुझे लगता है कि इसका बुनियादी आधार ही गलत है. सच और झूठ अपने आप में कोई नैतिक मसला नहीं है. आप सच या झूठ के साथ क्या करते हैं, यही मायने रखता है. एक अकेला सच हजारों लोगों की मौत का कारण बन सकता है. एक छोटा सा झूठ हजारों लोगों को बचा सकता है. कुछ ऐसे जर्मन थे जिन्होंने अपने यहूदी पड़ोसियों के बारे में झूठ बोला और उन्हें नाजियों से बचा लिया.

गुजरात दंगों के दौरान कई हिंदुओं ने अपने मुस्लिम मित्रों के बारे में झूठ बोलते हुए उनकी जान बचाई. उड़ीसा में ऐसे आदिवासी रहे हैं जिन्होंने तब झूठ बोला जब हत्यारे ईसाइयों को तलाशते हुए उनके पास आए. उन्होंने खुद के साथ-साथ दूसरों को भी बचाया. जब भीड़ हिंसा पर उतारू हो, तब एक छोटे से झूठ का भी बहुत महत्व होता है. ऐसे में कोई मूढ़मति आगे आकर सच उगल दे, तो वह सबको खतरे में डाल देता है.

मेरे विचार से सच को आज के मूल्यों के कमजोर परितंत्र से हटा देना चाहिए. यह न तो महत्वपूर्ण है और न ही अच्छा है. यह सिर्फ एक घिसी-पिटी बात है. जब इससे कुछ अच्छा होता है तो आप इसका बचाव करें. जब इससे किसी को नुकसान पहुंचे तो आपको कोई बेहतर विकल्प तलाशना चाहिए.

यदि आप इतने मूरख हैं कि पॉलीग्राफ टेस्ट की गिरफ्त में आए बगैर झूठ नहीं बोल सकते, तो कृपया चुप बैठें. खुद को सत्यनिष्ठ समझते हुए ऐसा सच न उगल दें, जिसकी वजह से दूसरों को समझौते करने पड़ें. हालांकि इसकी वजह से आपको अपना सीना फुलाने का मौका मिल जाए कि आप नाजुक क्षणों में सच के साथ खड़े रहें, लेकिन किसी भी सभ्य नागरिक को यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों को जोखिम में डाले.

क्या मैं एक नई जीवन शैली के तौर पर झूठ की पैरवी कर रहा हूं? ऐसा बिलकुल नहीं है. मेरे कहने का आशय सिर्फ यही है कि जब आप सच बोल सकते हैं तो सच ही बोलें. झूठ तब बोलें जब यह बेहतर विकल्प हो. इसमें कुछ भी नैतिक या अनैतिक नहीं है. झूठ बोलने के लिए भी उतने ही साहस की जरूरत होती है जितना कि सच बोलने के लिए होती है और यदि आप नैतिक छलावे को हटा दें तो फिर इन दो के बीच चयन के लिए ज्यादा कुछ नहीं रह जाता.

क्या आप किसी गंभीर रोगी के समक्ष यह सच बोलेंगे कि उसके पास जीवन के सिर्फ 12 घंटे शेष हैं या फिर उससे झूठ बोलते हुए उसे उम्मीद बंधाएंगे कि वह अपनी अंदरूनी शक्ति के बल पर अपनी बीमारी पर काबू पा सकता है? मैंने ऐसे लोगों से झूठ बोला, जिनसे मुझे प्यार था और इस झूठ की वजह से उन्हें अपनी बीमारियों से उबरते हुए भी देखा, जबकि डॉक्टर अपनी ओर से जवाब दे चुके थे. मेरा यह दृढ़ विश्वास है कि कई लोग जानलेवा बीमारी से जूझने के लिए जरूरी अपनी इच्छाशक्ति को सिर्फ इस वजह से छोड़ देते हैं क्योंकि उनके इर्द-गिर्द रहने वाले मूढ़मति लोग उन्हें चिकित्सकीय सच्चाई बताने में लगातार मशगूल रहते हैं.
आगे पढें रविवार डॉट कॉम

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय