बाटला हाउस फर्जी मुठभेड़ मामले पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने जिस तरह से पुलिस को क्लीनचिट दिया उसने हमारे भ्रम को दूर किया तो वहीं हमारे विश्वास को और मजबूत किया कि हमारे ‘सबसे बड़े लोकतंत्र’ का फासिस्ट टेकओवर हो रहा नहीं बल्कि हो गया है। क्योंकि इन लोगों ने इसके लिए तकरीबन साठ साल से मेहनत की। बाटला हाउस तो इन लोगों के लिए छोटी बात है। हमने बहुत करीब से देखा है कि किस तरह पहले दाढ़ी वाले और उसके बाद दाढ़ी टोपी वाले तुम्हारी कुदृष्टि का शिकार हुए। जिनको तुमने आतंकवादी का नाम दिया। तुमने अपने को बचाए-टिकाए रखने के लिए जो रक्त रंजित इतिहास की परिकल्पना की है आज भले ही वो राष्वाद या देशप्रेम की ओट लेकर तुम उसे दबा दे रहे हो पर इतिहास के कुछ पन्ने अवश्य तुम्हारी खूनी दास्तान की कहानी कहेंगे। मजबूत दरख्त के आज के राजकुमार क्या 84 के अपने वंशजों के कुत्सित इतिहास से मुंह मोड़ लेंगे।
हम तुमसे और तुम्हारी हर चाल से तुम्हीं से वाकिब हो गए हैं। रहा बात तुम्हारे स्लिपिंग माड्यूल्सों का तो मात्र कुछ दिनों सत्ता में आये बाबरी विध्वंस के वारिसों ने आज यह हालात पैदा कर दिए हैं कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ फासिस्ट हो गए हैं। जब कुछ दिनों मौका मिलने पर इन लोगों ने इतना काम कर लिया तो तुमने कितना काम करा होगा इसका अंदाजा लगाना ज्यादा कठिन नहीं है।
फिर भी हमने तुमसे मांग की कि हमारे मासूमों की नृशंस हत्या की न्यायिक जांच करा दो। पर तुमको वह भी नागवार गुजरा। हां तुमने एक चाल फिर चली और हमारे पूरे आन्दोलन को अपनी परिधि में ला दिया। आज भले ही वो लोग तुम्हारी परिधि के भीतर जी-खा रहे हैं पर याद रखना कि जो आवाजें तुमसे तुम्हारे काले कारनामों का हिसाब मांग रही थी उनके हौसले और बुलंद हुए हैं और उन्होंने इससे फिर सबक लिया है। तुम 16 साल के मासूम साजिद और आतिफ जो एक सपना संजोए दिल्ली गए थे उनको आतंकवादी कहते हो अपने गिरेबान में झांककर देखो साजिद के सिर पर लगी गोलियां ये साफ कहती हैं कि उनको पकड़ कर ठंडे दिमाग से उनकी नृशंस हत्या की गयी है। आखिर क्यों उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट सार्वजनिक करने से तुम्हारी पुलिस का हौसला गिर जाएगा। क्या हम किसी पुलिस तंत्र में सासें ले रहे हैं। हाल में सोपिया में भी तुम लोगों ने यही तर्क दिया कि तुम्हारा हौसला गिर जाएगा। आखिर तुम्हारा हौसला इतनी आसानी से कैसे गिर जाता है। रही बात अंसल प्लाजा वालों का चाहे बाटला हाउस में मारे गए मोहन चंद्र शर्मा का या संजीव यादव का उनसे हम उनके कारस्तानियों के जरिए बहुत पहले से परिचित हैं। हम तुम्हारी तरह इतने नृशंस नहीं हैं। हम मोहन को भी एक उत्पीड़ित की भांति देखते हैं। जब तुम्हारी जरुरत थी वो तुम्हारे लिए कत्लेआम करे तो तुमने उससे करवाए। फर्जी आंतकवादी संगठन अलबद्र से हम अच्छी तरह वाकिब हैं कि किस तरह से कमर और राशिद को इसी मोहन चंद्र शर्मा वाले स्पेशल सेल ने आतंकदी घोषित किया। इसके बख्सीश में तुमने उनको भी सोने-चांदी के तमगे दिए पर जब तुमको उनकी जरुरत पड़ी तो तुमने उनकी बली भी ले ली। रहा बात मोहन को गोली लगने का तो वह कोई पहली बार नहीं हुआ और जिस स्थान पर गोली लगी वहां पर उन्हें कई बार गोली लग चुकी थी। तुम क्यों चाहोगे कि यह तुम्हारी कारस्तानी सबके सामने आए। निश्चिित ही इससे पुलिस के हौसले पस्त होंगे क्योंकि जब वे जानेंगे कि राज्य अपने को टिकाए रखने के लिए हमें तमगे ही नहीं हमारी बलि भी लेता है तो उसके हौसले निश्चित पस्त होंगे।
हमने देखा कि तुम्हारा लौह पुरुष कैसे वस्त्र पुरुष बना। हमने बहुत गौर से देखा कि बाटला हाउस में मासूम साजिद-आतिफ की हत्या के बाद वो फिर से कैसे लौह पुरुष बना। पहले तो तुमने कहा कि हमने इस आपरेशन को कन्ट्रोल रुम से मानीटर किया और तुम्हारा लौह पुरुष कुछ टीवी स्क्रीनों के सामने भी दिखा पर जब सवाल उठने लगे तो तुमने कैसे उसको हमारे दिमाग से विस्मृत करने की कोशिश की उसको हमने बहुत पास से देखा। हम तुमको बहुत पास से देख रहे हैं अभी तुमने शर्म-अल-शेख से पाकिस्तान द्वारा दिये गए मुबंई घटना की जानकारियों के साथ ही पाकिस्तान में श्रीलंका की टीम पर हुए हमले में अपनी कारस्तानी के कुछ सबूत लाए थे। पर उसे फिर हमको नहीं बताने की कोशिश की।
जब भी किसी आतंकी घटना की जांच का मामला आता है तो तुम कहते हो तुमने नहीं करवाया तो हम क्यों करवाएंगे। अरे भाई तुम लोगों के बीच हम लोग भी हैं क्यों यह बात बहुत आसानी से भूल जाते हो। और रही बात घटना में संलिप्तता की तो मालेगांव-नांदेड की घटनाओं ने तो यह बात पुख्ता ही कर दी है हमारे यहां के राजनैतिक दल आतंकवाद में लिप्त है।
जो भी हो आजमगढ़ आज मानवाधिकार हनन के सबसे बड़े मरकज के रुप में तब्दील हो गया है। जहां के लोगों के जेहन में इस हमारे सबसे बड़े कथित लोकतंत्र को टिकाए रखने के लिए शहादत और पीड़ित होने का पूर्वानुमान हमेशा सालता रहता है। सरकारों की जरुरत, प्रशासन के द्वारा और मीडिया की सहभागिता से इस पूरे मिथक की रचना की गयी है। आजमगढ़-आतंकवाद, ‘मिथक और यथार्थ’ एक ऐसा सवाल है जिसका उत्तर देते-देते वे थक गए हैं। बस एक जुबान से चाहे इसे सवाल कहें या मांग-अपने मासूम बच्चों की हत्या की न्यायिक जांच। शायद इनका उत्तर भी यहीं से पूरा होगा। चारो तरफ एक सरहद जिसके बाहर उन्हें आतंकगढ़ के रुप में जाना जाता है। दुनिया को ‘घुमक्ड़ी’ और ‘भागो नहीं दुनिया को बदलो’ की नसीहत देने वालों को आज एक सरहद में कैद कर दिया गया है। ‘जहां-जहां आदमी, वहां-वहां आजमी’ कहने वालों के स्वर धीमे हो गए हैं। हो भी क्यों न अपने ही देश के महानगरों में एक अदद कमरे को तरसना पड़ रहा है। तो वहीं अन्दर अनाधिकृत खौफ के दस्तों की निगरानी में जीने को मजबूर हैं।
बहरहाल, आज अपने शोक को संकल्प में तब्दील कर निर्णायक लड़ाई लड़ रहे आजमगढ़िए ‘लोकतंत्र’ की वो नींव है जिनकी शहादत पर हमारा कथित सेक्यूलर राष्ट्र राज्य अपना रुपांतरण एक फासिस्ट हिंदू राष्ट्र के बतौर कर रहा है।
आजमगढ़ की अमन पसंद जनता की तरफ से
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