23 अगस्त 2009

मानवता का गला घोटतीं फर्जी मुठभेडे़

हरे राम मिश्रा
कुछ दिन पहले देहरादून पुलिस ने गाजियाबाद निवासी रणवीर सिंह की फर्जी मुठभेड़ दिखाकर हत्या कर दी। मामले पर काफी हो हल्ला मचने के बाद सरकार को सीबीआई जांच का आदेश देना पड़ा। प्रथम दृष्टया ही यह पता लग गया कि वास्तव में यह एक सुनियोजित मर्डर था जिसे देहरादून पुलिस ने मुठभेड़ दिखाकर अंजाम दिया था। फिलहाल सीबीआई ने हत्या में शामिल पुलिस कर्मियों की गिरफ्तारी का प्रयास शुरु कर दिया है।
उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर जिले में एक युवक की फर्जी मुठभेड़ में हत्या कर दी गयी। ग्रामीणों के प्रदर्शन के बाद सीबीसीआईडी इलाहाबाद को जांच का आदेश दिया गया। जांच दल ने प्रारंभिक जांच में यह पाया कि वास्तव में कोई मुठभेड़ हुई ही नहीं थी। यह भी एक फर्जी एनकाउंटर था। नतीजा जांच दल ने मुठभेड़ में शामिल पुलिस कर्मियों के खिलाफ नजदीकी थाने में हत्या का मुकदमा दर्ज करवा दिया।
23 जुलाई को इंफाल में चुंगखाम् संजीत को पुलिस ने पूछताछ के लिए घर से उठाया। तीन दिन बाद उसकी लाश बरामद हुई। लाश बरामदगी के साथ ही इंफाल में पुलिस के खिलाफ उपद्रव शुरु हो गए। हालात को काबू करने के लिए कफर््यू लगाना पड़ा। अब इस बवाल के बाद युवक की मां ने दोषी लोगों के खिलाफ एफआईआर दर्ज करवायी। जम्मू कश्मीर में भी कस्टडी डिसअपेयरेंस की घटनाएं आम हैं। जिनके खिलाफ आए दिन जम्मू की आवाम प्रदर्शन करती रहती है।
इन घटनाओं का विश्लेषण अगर करें तो सबसे अहम बात निकल कर सामने आती है वह है भारतीय संविधान द्वारा उसके नागरिकों को दिये गए जीवन रक्षा के अधिकार का उल्लंघन। हर फर्जी एनकाउंटर मानवता के खिलाफ एक गंभीर अपराध है। एनकाउंटर कानून और व्यवस्था स्थापित करने के नाम पर इसे व्यवस्थित करने के लिए यह एक पुलिसिया कार्यवाही भर नहीं है। बल्कि यह उससे ज्यादा शोषण और उत्पीड़न के खिलाफ, व्यवस्था के अत्याचार के खिलाफ लड़ने वाले लोगों को एक मूक चेतावनी है।
प्रश्न यह है कि इन फर्जी मुठभेड़ों के लिए जिम्मेदार कौन है। आखिर इस समस्या से निपटा कैसे जाय?
वास्तव में वर्तमान जटिल शासन व्यवस्था में, समय के साथ-साथ कार्यपालिका के पास बहुत ज्यादा शक्तियां हो गयी हैं। नौकरशाहों के पास शक्ती तो ज्यादा गयी लेकिन हम आज तक उन्हें जवाबदेह नहीं बना पाए। हमारी पुलिस के पास भी आज कानून और व्यवस्था के बहाने व्यापक अधिकार हो गए हैं लेकिन उनकी भी कोई जवाबदेही नहीं तय की जा सकी है। यह एक विकट समस्या है।
एक दूसरा कारण यह है कि हमारा पुलिस ढांचा आज भी औपनिवेशिक है। आजादी के बाद पुलिस ने निरंकुशता कम करने के नाम पर कुछ नहीं किया गया है और शांती व्यवस्था कायम करने के नाम पर उन्हें गुंडई करने की खुली छूट मिली हुयी है। यह एक सामान्य तथ्य है कि पुलिस की वर्दी वह लाइसेंस बन चुकी है जिसे पहनकर कुछ भी किया जा सकता है। आज पुलिस वाले वर्दीधारी लाइसेंसी गुंडों में बदल चुके हैं। जो सत्ताधारी दल के लिए काम करते हैं। किसी को भी फर्जी मुकदमें में फसा देना पुलिस के लिए बांए हाथ का खेल बन गया है। किसी भी क्षेत्र में अपराध नियंत्रण के लिए खोले गए थानों से अपराध तो नहीं रुके, वरन् अधिक कमाई के लिए पुलिस ने अपराधियों को बेलगाम कर दिया। क्योंकि अपराध ही पुलिस की कमाई का जरिया बन चुका है।
पुलिस की बढ़ती निरंकुशता को रोकने के लिए सबसे ज्यादा जरुरी है कि इनकी जवाबदेही तय की जाय। हमें यह समझना होगा कि मानवता और मानव जीवन रक्षा से बड़ा कुछ भी नहीं है। कुछ समय से पुलिस सुधारों की आवश्यकता महसूस की जा रही है। कुछ राज्यों ने इस दिशा में प्रयास भी किए हैं। लेकिन कुछ राज्यों ने पुलिस सुधार करने से साफ इनकार कर दिया है। यहां तक कि पुलिस के पंजों को और खूनी बनाने के लिए विधायिका ने भी कई काले कानून बनाए हैं। विशेष कार्य बलों का तो कार्य ही आए दिन फर्जी मुठभेड़ और गिरफ्तारी करके दलितों और अल्पसंख्यकों को मारना और जेलों में ठूसना है। यह एक सामान्य तथ्य है कि गोली-बारी दोनों तरफ से होती है लेकिन मरता सिर्फ एक पक्ष का ही आदमी है।
आज पुलिस मुख्य रुप से व्यवस्था के रक्षण की एक असफल कोशिश में यह सब प्रायोजित तौर से कर रही है। और यही कारण है कि हमारी सरकार भी इस मामले में कभी कोई दखल नहीं देना चाहती। यह निरंकुशता व्यवस्था के निर्मम और शोषण युक्त् होने का संदेश देती है।
जहां तक मानवाधिकार आयोग की बात है वह अपने एक प्रशासनिक विभाग के खिलाफ नहीं जा सकता। बाटला हाउस मुठभेड़ में दिल्ली पुलिस को क्लीनचिट देकर आयोग ने पुलिस की बर्बरता का समर्थन ही किया है। वह दिन दूर नहीं जब पुलिस किसी को भी मार डालेगी और मानवाधिकार आयोग क्लीन दे दिया करेगा। कोई भी सरकारी विभाग सरकार के खिलाफ कुद भी नहीं करता और यह पुलिसिया अत्याचार हमारी सरकारों द्वारा आम आदमी को धमकाने के लिए होता है। जो व्यवस्था के क्रूर पक्ष को दिखाता है। तो फिर मानवाधिकार आयोग क्लीनचिट देने के अलावां और कर भी क्या कर सकता है।
अब प्रश्न है कि इस अराजक स्थिति से कैसे निपटा जाय। पुलिस को भी जवाबदेह बनाया जाना चाहिए मानवता की रक्षा के लिए जरुरी है कि हर मुठभेड़ की एक स्वतंत्र निकाय से जांच हो और फर्जी मुठभेड़ पाए जाने पर उन पर फास्टट्रैक कोर्ट में मुकदमा चले। यह बहुत जरुरी है कि आम आदमी का विश्वास पुलिस से एकदम न उठ जाए, इससे पहले इसका एक सकारात्मक हल खोजना जरुरी है। ताकि आने वाली नस्लों को जीवन की एक शर्तिया गांरटी की जा सके, जो संविधान का भी एक जरुरी तत्व है।

हरे राम स्वतंत्र पत्रकार हैं. संपर्क करे 09838951721

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