20 सितंबर 2009

फिल्में आन्दोलन भी हैं !

फिल्में केवल मनोरंजन का साधन नहीं होती वे आन्दोलन भी होती है, राजनीत भी होती है. कुछ ऐसी ही फिल्मे पिछले दिनों जन सांस्कृतिक मंच की ओर से आयोजित लखनऊ फिल्म फेस्टिवल में देखने को मिलीं. इस तीन दिवसीय फिल्म फेस्टिवल को नाम दिया गया था "प्रतिरोध का सिनेमा". नई पीढी की साथी शालिनी वाजपेयी ने फिल्म फेस्टिवल की एक रपट भेजी है. आप भी देखें- मोडरेटर




फिल्में तो सभी ने देखी हैं, लेकिन फिल्में आंदोलन का एक माध्यम हैं, यह पिछले दिनों जन संस्कृति मंच की ओर से लखनऊ में आयोजित तीन दिवसीय फिल्म महोत्सव से बखूबी पता चला। हबीब तनवीर, तपन सिन्हा और इकबाल बानो पर केंद्रित यह फिल्म महोत्सव कुछ अलग तरह की फिल्में लोगों के सामने प्रस्तुत करता है।
जन संस्कृति मंच प्रतिरोध की संस्कृति का पक्षधर है... सा प्रदायिक, फासीवाद, साम्राज्यवाद, अंधराष्ट्रवाद और बाह्मणवादी पितृसत्तात्मक सामंती सोच का विरोध करता है। दमन व अन्याय के खिलाफ जनता के सभी न्यायपूर्ण संघर्ष का समर्थन करता है। यह जसम के संयोजक कौशल किशोर का कहना है। यह कहते हैं कि प्रतिरोध की संस्कृति जितनी बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी उतनी ही उसमें विविधता, सुंदरता व समरसता होगी। इसके लिए कलात्मक सृजन व विचार शाखाओं ही होड़ की राह पर चलना जरूरी है। यही इस फिल्मोत्सव में भी दिखा। दमन प्रतिरोध और सिनेमा को सही रूप में परिभाषित करने वाला जन संस्कृति मंच इस बात को सिद्ध करता है कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करती हैं बल्कि वह प्रतिरोध भी दर्ज कराती हैं व्यवस्था के खिलाफ।इस संदर्भ में जसम के संयोजक कौशल किशोर कहते हैं- प्रतिरोध की संस्कृति जितनी बहुरंगी, बहुआयामी, बहुलतावादी होगी, उतनी ही उसमें विविधता, सुंदरता व समरसता होगी। इसके लिए कलात्मक सृजन व विचार शाखाओं को होड़ की राह पर चलना जरूरी है। यही इस फिल्मोत्सव में भी दिखा। दमन प्रतिरोध और सिनेमा की थीम पर आधारित महोत्सव ने इस बात को सिद्ध किया कि फिल्में सिर्फ मनोरंजन ही नहीं करतीं, बल्कि प्रतिरोध भी दर्ज कराती हैं।


फिल्मोत्सव-2009 का उद्घाटन प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक आनंद पटवर्धन ने किया। आनंद के पूरे व्यक्तित्व से ही झलकता है कि उनके अंदर प्रतिरोध की कितनी क्षमता है। वे अपने संघर्षों को भी सभी के साथ साझा करते हैं। कार्यक्रम के मु य वक्ता वरिष्ठ कवि और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे हर घर में फिल्म बनने की बात करते हैं। उनका मानना है कि फिल्म बनाना कुछ खास पूंजीपति किस्म के लोगों तक ही सीमित न रहे, बल्कि एक सामान्य व्यçक्त की भी फिल्म बनाने के साधनों तक पहुंच होनी चाहिए, ताकि आम आदमी की बात भी सभी तक पहुंच सके। दमन प्रतिरोध और सिनेमा स्मारिका और चित्त प्रसाद के चित्रों का लोकार्पण भी किया गया।
फिल्म महोत्सव की शुरुआत पटना की सांस्कृतिक संस्था हिरावल के गायन से हुई। हिरावल की टीम ने मुक्तबोध की "अंधेरे मेंं" कविता के कुछ अंशों की सांगीतिक प्रस्तुति की। इसके बाद दूसरा गीत फैज अहमद फैज की नज्म "हम देखेंगें" को प्रस्तुत किया गया।
फिल्मों की शुरुआत केपी शशि निर्देशित पांच मिनट की छोटी-सी फिल्म "गांव छोड़ब नाहींं" पलायनवादी विकास की कहानी कहती हैं। पूरी फिल्म गांव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहींं गीत से ही जंगल-जमीन की जंग को बयां करती है।
फिर "जंग और अमनं" फिल्म की बारी आई। इस फिल्म का परिचय जसम के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अजय कुमार ने दिया। अजय कुमार ने कहा कि डाक्यूमेंट्री फिल्मों के लिए मशहूर आनंद पटवर्धन न सिर्फ एक विशिष्ट फिल्मकार हैं बल्कि सिद्धांतकार भी हैं। पटवर्धन ने ही मु बइया सिनेमा के सामने गोरिल्ला सिनमा जैसा कॉन्सेप्ट रखा। जंग और अमन फिल्म को भारतीय उपमहाद्वीप में परमाणु परीक्षणों के बाद के तीन वर्षों को भारत, पाकिस्तान, जापान और अमेरिका में फिल्माया गया है। फिल्म परमाणु शस्त्रों की होड़ को बहुत ही बारीकी से दिखाती है। फिल्म अन्यायपूर्ण अपमान, विकास, सैन्यवाद और नाभिकीय राष्ट्रवाद के खिलाफ है। इस फिल्म में सैन्य और हथियारों की होड़ को लेकर इन सब देशों में आम आदमी और नेताओं की प्रतिक्रिया को रेखांकित करती है। फिल्म की शुरुआत 1948 में महात्मा गांधी की हत्या से होती है। फिल्म हिरोशिमा क्षेत्र के लोगों की प्रतिक्रिया दिखाती है, जहां अमेरिका ने अगस्त 194भ् में अणु बम गिराया था। वहां के लोग अभी भी उसी दशहत में जी रहे हैं और अपनों के मारे जाने के सदमे को भूल नहीं पा रहे हैं। फिल्म दिखाती है कि किस तरह भारत और पाकिस्तान में बचपन से ही बच्चों में सैन्य शस्त्रों के विकास के प्रति गर्व और दुश्मन के प्रति आग भरी जाती है। किस तरह सरहद पार एक स्कूल की छोटी-सी बच्ची अपने भाषण में पाकिस्तान द्वारा भारत के जवाबी प्रतिक्रिया के रूप में परमाणु परीक्षण के प्रति गर्व महसूस करती है। उसके मन में कितनी घृणा है अपने पड़ोसी देश भारत के प्रति। जब उस बच्ची को बताया जाता है कि इन परीक्षणों और जंग से नतीजे क्या निकलेंगे, तब वह अपने विचारों के प्रति माफी मांगती है। राजस्थान से कुछ किलोमीटर की दूरी पर पोखरन में जहां परीक्षण किया जाता है, वहां पर प्रदूषित हो रहे वातावरण से स्थानीय लोगों को कैंसर जैसा रोग अपनी चपेट में ले रहा है। रेडियोऐक्टिव कचरे से स्थानीय लोगों में फैलने वाले रोगों को दिखाया जाता है। फिल्म दिखाती है कि भारतीय शिष्टमंडल के प्रतिनिधि जो शांति प्रयासों के लिए पैदल यात्रा करते हैं, पाकिस्तान के लोगों का भरपूर सहयोग मिलता है। फिल्म अमेरिका के भी कमोZ को दिखा देती है कि कैसे उग्र राष्ट्रवाद को बताते-बताते अमेरिका हमारा रोल मॉडल बन गया है। फिल्म का अंत गांधी की अहिंसावादी नीति को अपनाने के रूप में होता है।
दूसरे दिन के फिल्म महोत्सव की शुरुआत हिरावल की टीम द्वारा वीरेन डंगवाल की कविता "ये कैसा समाज रच डाला हमनें" के गायन से हुई। इसके बाद विक्टोरिया डी सिका निर्देशित फिल्म "बायसिकल थीफं" दिखाई गई, जिसका परिचय देते हुए विष्णु खरे ने कहा कि इस फिल्म को मैंने न जाने कितनी बार देखा है, लेकिन जब भी देखता हूं कुछ नया मिलता है। यह फिल्म द्वितीय विश्व युद्ध के बाद के रोम की कहानी कहती है। फिल्म गरीबों के दर्द को बयां करती है। इसका अभिनेता एंतोनियो को नौकरी मिल रही होती है, लेकिन शर्त है- साइकिल। एंतोनियो यदि साइकिल का इंतजाम करे तभी उसे यह नौकरी मिलेगी, लेकिन साइकिल तो उसने गिरवी रखी है। नौकरियां आसानी से मिल नहीं रही हैं। तब उसकी पत्नी घर की चादरों को गिरवी रखकर साइकिल छुड़ाती है लेकिन दुभाüग्यवश नौकरी के पहले ही दिन एंतोनियो की साइकिल चोरी हो जाती है। वह उसे वापस पाने की आशा में अपने छोटे-से बेटे के साथ दिनभर शहर छानता है। लेकिन साइकिल मिलने की उसकी आशा अधूरी ही रह जाती है।
सिनेमा की दुनिया में यह कालजयी फिल्म है। इस फिल्म ने दुनियाभर के सिनेमा निर्देशकों को बहुत प्रभावित किया है। महान फिल्मकार सत्यजीत राय को भी इसी से फिल्में बनाने की प्रेरणा मिली थी।
इसके बाद ब्लड एंड ऑयल फिल्म दिखाई गई। निर्देशक माइकल टी क्लेरे हैं। यह फिल्म अमेरिका की ऑयल पॉलिसी पर बनी है। फिल्म दिखाती है 60 वर्षों से अधिक समय से अमेरिकी विदेश नीति के केंद्र में तेल ही रहा है। इस फिल्म में उसके उस समझौते को भी दिखाया गया है, जो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रेंकलिन रूजवेल्ट और सऊदी अरब के शासक अब्दुल अजीज इब्न सौदा के बीच 194भ् में हुआ था। इस समझौते के तहत सऊदी अरब में विस्तृत तेल भंडारों तक अबाधित अमेरिकी पहुंच के बदले अमेरिका सऊदी अरब को सैनिक संरक्षण प्रदान करता है।
दोपहर के सत्र में लघु फिल्म पी (शिट)-निर्देशक अ युधन पी दिखाई गई। फिल्म मैला ढोने वाली महिला पर बनाई गई है। फिर गीतांजलि राव और राजेश चक्रवतीü द्वरा निर्देशित "प्रिंटेट रेनबों" दिखाई गई। यह एनीमेशन फिल्म है, जो बड़े शहर में एक छोटे-से घर में रहने वाली एक अकेली बूढ़ी औरत की कहानी को रेखांकित करती है। फिर फिल्म क्वजैसा बोओगे वैसा काटोगें दिखाई गई। फिल्म का निर्देशन अजय भारद्वाज ने किया है। इसी तरह क्वरिमे बरिंग इमरजेंसीं फिल्म इमरजेंसी की याद दिलाती है। यह फिल्म संजय प्रताप व अश्विनी फालनिकर ने बनाई है।
शाम के सत्र में पाकिस्तान में शास्त्रीय संगीत पर बनी यूसुफ सईद की फिल्म ख् याल दर्पणं दिखाई गई। शास्त्रीय संगीत की गुनगुनाहट कानों में डालती है। ये फिल्म सरहद पार की शास्त्रीय ध्वनियों को अपने कैमरे में कैद करती है। पहले हिंदुस्तान में शास्त्रीय संगीत के ज्ञाता बिना किसी सा प्रदायिक भावना के मिलकर संगीत को आवाज देते थे। उसी का परिणाम था कि अलाउद्दीन खां मुसलमान होते हुए भी सरस्वती के बड़े उपासक थे और उनकी बेटियों के नाम भी हिंदू देवी-देवताओं पर थे। छोटी बेटी अन्नपूणाü थी जिसका विवाह रवि शंकर के साथ हुआ था। विभाजन के सा प्रदायिक शोर में बहुत से संगीतज्ञ पाकिस्तान चले गए और वहां पर भी उन्हें गैर मुस्लिम मानकर न तो उन्हें और न ही उनके संगीत को वह इज्जत मिली, जो मिलनी चाहिए थी। फिल्म उस समय के मुहाजिर कलाकारों की गजलों, कव्वाली, शास्त्रीय संगीत की तब से लेकर अब तक सारी ध्वनियों को कैमरे में कैद करती है। यह फिल्म दिखाती है कि पाकिस्तान को कम से कम सांस्कृतिक स्तर पर तो हिंदुस्तान से अलग नहीं ही किया जा सकता है।
इसके बाद आनंद पटवर्धन की "राम के नामं" फिल्म दिखाई गई। यह फिल्म आनंद ने मçस्जद के ढहने से पहले 1991 में पूरी की। सा प्रदायिकता किस तरह भारत में सत्ता हासिल करने का माध्यम है, इसे यह बखूबी बयां करती है। 16वीं शताब्दी में बनी हुई बाबरी मçस्जद को बताया जाता है कि यह राम मंदिर को तोड़कर बनाई गई है, इसलिए अब बाबरी मçस्जद को तोड़कर ही राम का मंदिर बनना चाहिए। फिल्म राम के नाम को हर तरफ जाचंती है फिर विश्व हिंदू परिषद के राम को भी दिखाती है। आनंद उस सा प्रदायिकता के सच को उजागर काते हैं, जो सत्ता हासिल करने के लिए राम के नाम का प्रयोग करती हुई लाशों का ढेर लगाती है। फिल्म धार्मिक असहिष्णुता के खिलाफ मानवता को सामने रखती है। इसी के बाद हुए सा प्रदायिक दंगों में भ्000 से ज्यादा लोग धर्म की बलिबेदी पर चढ़ जाते हैं। फिल्म में एक तरफ आम आदमी से लेकर विहिप, बजरंग दल, भाजपा सहित सभी नेताओं और पुजारियों के वक्तव्य हैं, दूसरी तरफ मुस्लिम धर्म के लोगों की भी प्रतिक्रिया ली गई है। यह डेढ़ घंटे की फिल्म दर्शकों को बहुत ही आकर्षित करती है। यह आनंद पटवर्धन की अब तक की सर्वश्रेष्ठ फिल्म है। प्रसिद्ध फिल्मकार गिरीश कासवल्ली भी इसे एक श्रेष्ठ डाक्यूमेंट्री फिल्म मानते हैं।
तीसरे दिन की शुरुआत बच्चों के सत्र से हुई। सबसे पहले छोटी सी बच्चीरुनझुन बच्चों को एक गीत सुनाया। फिर फिल्में दिखाई गईं। इस दिन छोटे-छोटे बच्चों से भरा हाल यह बता रहा था कि बच्चे भी फिल्म जैसी विधा की कला का आनंद लेने में बड़ों से पीछे नहीं हैं बल्कि उनसे दो कदम आगे ही खड़े हैं। बच्चों के धैर्य को और न बढ़ाते हुए जल्द ही राजेश चक्रवतीü निर्देशित क्वहिप-हिप हुरेüं दिखाई गई। यह एनीमेशन फिल्म है। जावेद अ तर के लिखे गाने, सुनिधि चौहान और कविता कृष्णमूर्ति की सुरीली आवाज के चलते इस फिल्म से बच्चे ऐसे आकर्षित होते हैं जैसे रंग-बिरंगे फूलों को देखकर भौरे।
इसके बाद "हाथी का अंडां" फिल्म बच्चों की उत्सुक आंखों को एक और तसल्ली देती है। यह फिल्म अरुण खोपकर की है। 75 मिनट की यह फिल्म बच्चों को हिलने का मौका भी नहीं देती है। फिल्म में है कि बाबा और किंटो के बीच बड़ी ही अच्छी दोस्ती है। बाबा किंटो को पुस्तकालय की एक किताब "अलिफ लैलां" के बारे में बताते हैं। यह बाबा की पसंदीदा किताब होती है। बाबा किंटो को उसके रंगीन कवर के साथ अंदर की कहानी में बताते हैं कि यह कहानी कभी खत्म नहीं होती है। इसके बाद किंटो अपने दादा जी के घर जाता है। इžोफाक से उसे वहां पर एक फटी-पुरानी वही अलिफ लैलां किताब मिल जाती है। जब वह उसे पढ़ता है तो वही सब मिलता है जो उसे बाबा ने बताया था। अब किंटो सोचता है कि यह किताब यदि बाबा को दे दी जाए तो बाबा कितने खुश हो जाएंगे। बाबा ने किंटो को एक हाथी की कहानी भी सुनाई होती है। इसमें है कि एक हाथी अंडा देना चाहता है लेकिन वह लाख कोशिशों के बावजूद अंडा देने में कामयाब नहीं हो पाता है।
दोपहर के सत्र में राहुल ढोलकिया की फिल्म "परजानियां" दिखाई गई। यह फिल्म गुजरात में हुए गोधरा दंगों को बहुत ही प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। अमेरिका का एलेन गांधी पर थीसेस लिखने के लिए भारत आता है। सायरस (नसीरुद्दीन शाह) से उसकी अच्छी मित्रता होती है। सायरस, उसकी पत्नी शेरनाज (सारिका), बेटा परजान (परजान दस्तर), बेटी दिलशाद (पलü बस्सील) पारसी धर्म के हैं। इनका जीवन खुशी से कट ही रहा था कि इसी बीच गोधरा की घटना हो जाती है। इसमें भ्8 हिंदू तीर्थ यात्रियों को मुस्लिमों द्वारा जिंदा जला दिए जाने की बात होती है। इसकी प्रतिक्रिया में सा प्रदायिक दंगे फैल जाते हैं, जिसमें सैकड़ों मुस्लिम बच्चों सहित गर्भवती महिलाओं तक को मार डाला जाता है। इन्हीं दंगों में सायरस का बेटा परजान कहीं खो जाता है। पूरा परिवार पागलों की तरह बेटे को सब जगह ढूंढ़ता है। इनका घर जल जाने के बाद एलेन इन्हें रहने के लिए अपना घर देता है। इन दंगा पीçड़तों की कहीं कोई सुनवाई होती है। फिर यह मानवाधिकार आयोग पहुंचते हैं, जो इनसे पुलिस द्वारा दंगाइयों से नहीं बचाए जाने की पूछताछ करता है। फिल्म इतने यथार्थपूर्ण चित्रों को दिखाती है कि दंगे के विभत्स दृश्यों को देखकर लोगों की आंखों में आंसू आ जाते हैं। उसमें भी बच्चों की दुर्दशा रोने पर मजबूर कर देती है। फिल्म देखने वाले लोग इतने उतावले थे कि वे जसम के राजेश कटियार द्वारा दिया जा रहा फिल्म का परिचय भी सुनने को तैयार नहीं थे।
वरिष्ठ कवि विष्णु खरे इस फिल्म के घोर प्रशंसक हैं। यह इस फिल्म में नसीरुद्दीन शाह के अभिनय की तारीफ करते नहीं थकते हैं।
इस फिल्म की तारीफ लोग कर ही रहे थे कि तभी सबा दीवान निर्देशित क्वद अदर सांगं शुरू हुई। यह वाराणसी, लखनऊ और मुज फरपुर (बिहार) सभी जगहों पर तवायफों के अतीत और वर्तमान को तलाशती है। यह फिल्म रसूलन बाई के उस ठुमरी की खोज पर बनी है, जिसे 193भ् में ग्रामोफोन में रिकॉर्ड किया गया था। इस ठुमरी के बोल थे- "लगत जोबनवां में चोट फूल गेंदा ना मार।ं" ऐसी ही उनकी एक और ठुमरी है "लगत करेजवा मा चोट फूल गेंदवा ना मार।ं 193भ् में यह ठुमरी पता नहीं कहां खो गई। अब इस ठुमरी की एक लाइन के आगे किसी को कुछ भी स्मरण नहीं। सबा दीवान इस ठुमरी को खोजती हुई सभी जगहों पर जाती हैं और तवायफों से संवाद करती हैं। यह तवायफों के अतीत और वर्तमान दोनों को रेखांकित करती हैं। यह फिल्म तवायफों के मर्म को बहुत ही गहरे से दिखाती है।
शाम के सत्र में कालाहांडी (उड़ीसा) में भूख से हुई मौतों पर नियामागिरि बचाओ आंदोलन पर बनी छोटी-छोटी छह फिल्मों को दिखाया गया। इसमें पहली फिल्म "नियामराजा का शोकगीतं" (डोंगरिया कोंध का गीत) है। यह फिल्म आदिवासी जाति डोंगरिया कोंध के लोगों के बड़े गांवों में खामबेसी गांव का एक लोक गायक प्रास्का है। ड बू प्रास्का अपने गीतों से लोगों के दुख-दर्द पर मरहम लगाता है। इस गीत में नियामागिरि पहाड़ को नियामराजा स बोधित किया जाता है। गीत में है कि नियामराजा की आत्मा जंगलों और पहाड़ों में बसती है। जिसे अब राज्य सरकार ने छीन लिया है और एक एल्युमिनियम की फैक्ट्री वेदांत को बेच दिया है।
दूसरी फिल्म कलिंग नगर में पर्यावरण प्रदूषणं पर है, जिसका निर्देशन नीला माधव नायक ने किया है। उड़ीसा के कलिंग नगर औद्योगिक क्षेत्र का विरोध कर रहे महिलाओं, बच्चों सहित चौदह लोगों को मौत के घाट उतार दिया जाता है। यह लोग अपनी खेती की जमीन पर उद्योग लगाने का विरोध कर रहे थे। सरकार ने इसे लगाने से पहले तर्क दिया था कि इससे आदिवासियों का जीवन स्तर सुधरेगा लेकिन जीवन सुधरने के बजाय और बद्तर हो गया है। फिल्म इसी सच्चाई को दिखाती है।
तीसरी सूर्य शंकर दास निर्देशित फिल्म "मनुष्य का अजायबघरं" है। इसमें दिखाया गया है कि सरकार ने आदिवासियों के सारे संसाधनों पर कब्जा करके उन्हें अजायबघर में रख दिया गया है। दर्शक आते हैं और इन आदिवासियों को देखते हैं। फिल्म दिखाती है सबकुछ छीन लेने के बाद अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को सरकार दुनिया के सामने कैसे पेश करती है।
चौथी सूर्य शंकर दास द्वारा ही निर्देशित फिल्म "शहीदं" है। इसमें दिखाया गया है कि राष्ट्रीय, बहुराष्ट्रीय, अंतरराज्यीय क पनियों द्वारा अपने जल-जंगल-जमीन के छीने जाने पर आदिवासी किस तरह संघर्ष करते हैं और मारे जाते हैं। यह फिल्म उन्हीं शहीदों को श्रद्धांजलि देती है।
पांचवीं फिल्म विकास के नाम पर मारे गएं हैं। स्टील, एल्युमिनियम और लोहे की बड़ी क पनियों जैसे टाटा, जिंदल आदि ने भुवनेश्वर जैसी राजधानी की दीवारों पर चित्र बनवाए हैं। इसे इन्होंने सौरा जनजाति की पवित्र लोक कला- इडिटल के माध्यम से जनजातियों के तथाकथित जीवन को चित्रित कराने का दावा किया है। फिल्म यह दिखाती है कि किस तरह यह क पनियां आदिवासियों के वास्तविक जीवन को सामने न आने देने प्रयत्न करती हैं। यह एक मिनट की फिल्म है लेकिन बहुत कुछ बता देती है।
छठी फिल्म है "नोलिया साहीं"। इस फिल्म का निर्देशन मानस मुदुली और संजय राय ने किया है। नोलिया साही एक गांव है जिसे पोस्को स्टील प्रोजेेक्ट द्वारा तहस-नहस किया जाने वाला है। इस फिल्म के बनने का भी आदिवासी विरोध कर रहे थे। उन्हें लग रहा था कि फिल्मकार उनका विरोधी है। यह भी दस मिनट की फिल्म है। इन छोटी-छोटी 6 फिल्मों में सरकार की जनजातीय विरोधी नीतियों को दिखाया जाता है। ये 6 फिल्में उçड़या भाषा की हैं लेकिन अंग्रेजी में भी लिखकर आता है।
इस फिल्म महोत्सव का अंत हिरावल, पटना के गीतों से होता है। हिरावल, पटना की समता मजदूर द पति के जीवन संघर्ष पर गीत सुनाती हैं। इसके अंत में जसम के पत्रकार, लेखक अनिल सिन्हा सबको धन्यवाद देते हैं और कहते हैं कि जिस सिनेमा का कॉन्सेप्ट हम ला रहे हैं, वह प्रतिरोध की संस्कृति को जन्म देता है। अनिल सिन्हा यह भी कहते हैं कि जसम फिल्मोत्सव-2009 में यह कोशिश की गई है कि जसम के उद्देश्यों के आस-पास जो भी फिल्में दिखाई देती हैं और उन्हें हम हासिल कर पाए हैं उन्हें प्रस्तुत करें ताकि ब बई फिल्मों द्वारा समय व समाज की वास्तविकताओं से दूर जिस अपसंस्कृति व क्रूरता को समाज में फैलाने की कोशिश हो रही है उसके विरुद्ध सिनेमा खड़ा है। इस तथ्य को लोगों सामने लाया जा सके।

संघर्ष की रेखाएं और आकृतियां
प्रसिद्ध चित्रकार चित्त प्रसाद के नाम पर आयोजन स्थल का नाम चित्त प्रसाद परिर रखा गया है। चित्त प्रसाद बंगाल के अकाल के समय के प्रसिद्ध चित्रकार थे। चित्त प्रसाद सहित कुछ अन्य चित्रकारों की चित्रकारी पर प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक व्या यान देते हैं। भौमिक अपने व्या यान में बताते हैं कि बंगाल की कला के सामने भारतीय चित्रकार की कला कुछ भी नहीं है। भौमिक कहते हैं कि भारत के चित्रकारों की चित्रकारी सेकुलर नहीं है। भारतीय चित्रकारों की चित्रकारी में नारी के शरीर, उसके कपड़े, उसकी लज्जा विशेष रूप से थी। चित्रकारी में नारी केंद्र में थी। भौमिक अपने व्या यान की शुरुआत हेमेंदु मजूमदार (1894-1948) से करते हैं। इनकी कला का शिल्प विदेशों से आयातित है। यहां भी नारी प्रधानता ही चित्रों में दिखती है। इसके बाद रबींद्र नाथ टैगोर (1871-19भ्1) के चित्रों की विशेषताओं को बताते हुए कहते हैं कि इनका सबसे प्रसिद्ध भारत माता का चित्र है। इस चित्र में भारतमाता के सभी हाथों में अलग-अलग चीजें हैं। इसी से पता चलता है कि चित्रों में धर्म भी मु य एक विषय हुआ करता था। इसके बाद नंनलाल बोस (1893-1966), अमृता शेरगिल (1913-1941), बी प्रसाद (1933-2001) और जमीनी रॉय (1887-1972) यह कुछ प्रसिद्ध चित्रकार हुए हैं। जमीनी रॉय के चित्रों से ही पुनरावृçत्त का सिद्धांत जन्म लेता है। चूंकि इनके चित्र यूरोपियन चित्रों से भिन्न थे, इसलिए अंग्रेजों को बहुत पसंद आए। इसी कारण इन चित्रों की मुंह मांगी कीमत मिलती थी। इसी वजह से जमीनी रॉय ने अपने सारे चित्र एक ही प्रकार के बनाए। इनके किसी भी चित्र में बिल्कुल भिन्नता नहीं है। यह पहले ऐसे चित्रकार थे, जिसने चित्रकारी में व्यावसायीकण को जन्म दिया था। इसके बाद प्रोग्रेसिव आटिüस्ट ग्रुप बना। इसके बाद सूजा, सोमनाथ होर (1921-2006), जैनुल आबेदीन (1914-1976) और चित्त प्रसाद (191भ्-1978) ये सब चित्रकार प्रोग्रसिव आटिüस्ट ग्रुप बनने के बाद चर्चा में आए। इसमें सोमनाथ होर की चित्रकारी काफी सराहनीय है। इन्होंने तेलंगाना, तेभागा इन सब आंदोलनों की बहुत ही अच्छी चित्रकारी की है। इनके अधिकतर चित्र किसानों पर हैं। यह किसान आंदोलन बहुत ही सुंदरता से रखांकित करते हैं। जैनुल आबेदीन का एक चित्र बाढ़ पर है। जिसमें एक बच्चा, दो आदमी और एक औरत है। इस चित्र में एक तरफ पानी-पानी और दूसरी तरफ एक आदमी है जो अपने घर को पीछे मुड़कर देख रहा है कि उसका आशियाना इस पानी में बह गया। उसकी भावनाओं से लगता है कि उसे अब प्रकृति से कोई उ मीद नहीं है। दूसरा आदमी है जो आसमान की तरफ देख रहा है। वह देखता है कि आसमान में काले-काले बादल हैं यह कब जाएंगे जब वह दोबारा यहां अपने आशियाने की तरफ लौटकर आएगा। तीसरा जो आदमी है वह सामने देखकर अपने पथ की ओर बढ़े जा रहा है। उसमें जो भावनाएं बनाई गई हैं उससे पता चलता है कि उसके अंदर अथाह विश्वास है कि यह पानी जल्द ही बंद होगा और वह वापस अपने घर आएगा। इन सबकी भावनाओं की रेखाएं ही इस चित्र की खासियत हैं। चित्त प्रसाद ने बंगाल के अकाल के समय पर अकाल के बहुत से चित्र बनाए हैं। इनके इन चित्रों से ही अकाल की विभत्सता को देखा जा सकता है। जसम फिल्मोत्सव के पोस्टर पर जो चित्र बना है, उसमें एक बूढ़ा आदमी है, जिसकी सारी हडि्डया दिख रही हैं, वह एक हाथ से पत्थर उठाए है और दूसरे में एक गहरा बर्तन गिलास या गहरा कटोरा कह सकते हैं पकड़े हुए है। इस चित्र को देखकर लगता है कि एक कोई भी भिखारी नहीं और न ही वह पैसे मांगने की प्लेट पकड़े हुए है। वह गहरा बर्तन हाथ में लिए हुए चावल के माड़ को मांग रहा है। उसके दूसरे हाथ में पत्थर विद्रोह की भावना को प्रदर्शित करता है।
>इनका एक और प्रसिद्ध चित्र है चाइल्ड लेबर पर। वैसे चाइल्ड लेबर पर इन्होंने बहुत से चित्र बनाए हैं। इसी में से एक चित्र है जिसमें दिखाया गया है कि एक होटल पर काम करने वाले छोटे से बच्चे के सामने ढेर सारे गंदे बर्तन पड़े हैं, देर रात का समय है, कुत्ता भौक रहा है, दिए की लौ टेढ़ी हो चुकी है। बच्चा बर्तन धुल रहा है, उसके आस-पास जमीन में खूब सारे तिलचट्टे घूम रहे हैं। इस छोटे से चित्र में काफी कुछ दिखाने का प्रयास चित्त प्रसाद ने किया है। इन्होंने फल-सब्जी बेचने वाली महिलाओं के भी बहुत से चित्र बनाए हैं लेकिन इनके चित्रों में महिलाओं के कामों के प्रति जो स मान है वह और कहीं नहीं मिलता है। चित्त प्रसाद ने सभी चित्र काली रेखाओं से बनाए हैं। यह रबर प्रिंट से ही अपने चित्रों को भाषा और खूबसूरती देते हैं। अशोक भौमिक का मानना है कि कविता और चित्रों में आपस में बहुत समानता है। चित्रकार चाहे कविता लिखे या नहीं लेकिन वह कवि Nदय होता है। भौमिक यह भी कहते हैं कि कोई पेंटिंग बहुत महंगी बिकती है तो उसका मतलब यह नहीं है कि इस पेंटिंग में अच्छी चित्रकारी है। यह मानते हैं कि कोई भी सरकारी संस्था या कला अकादमी चित्रकार नहीं बना सकती है, हां कुछ लोगों को नौकरी जरूर दे सकती है। इनका तो रोल बहुत ही हास्यास्पद है।

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