14 सितंबर 2009

क्यों नहीं बर्दास्त है छात्रसंघ

शालिनी वाजपेयी

युवाओं की लगभग आधी आबादी के रूप में जाने जाने वाले भारत में आज युवाओं को हाशिए पर डाला जा रहा है। अपने अधिकारों के लिए आवाज उठाने वाले छात्र राजनीति जैसे प्लेटफार्म को साजिशें रचकर खत्म किया जा रहा है। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी की तर्ज पर चलकर इस वर्ग के सवालों को खड़ा करने वाले मंच छात्र राजनीति की आवाज बंद कर दी गई है। जेएम लिंगदोह साहब ने अपनी सिफारिशें ही इसी तर्क के आधार पर दी थीं कि छात्र राजनीति में अपराधीकरण बढ़ रहा है और विश्वविद्यालय परिसरों का माहौल खराब हो रहा है इसलिए छात्र राजनीति पर अंकुश लगाना बहुत जरूरी है। यह सच है कि छात्र राजनीति में आपराधीकरण बढ़ रहा था लेकिन इस अपराधीकरण को बढ़ाने वाले छात्र नहीं बल्कि इनके वह अपराधी आका हैं जो अपने इस गुर की वजह से ही विधानसभा और लोकसभा की कुर्सी पाते हैं। इन्होंने ही परिसरों का माहौल खराब किया था न कि आम युवा राजनीतिक छात्र ने।
सरकार ने भी छात्र राजनीति को खत्म करके अपने मनमानीपूर्ण निर्णय जैसे विवि में शिक्षण शुल्क बढ़ाना, स्ववित्त पोषित कोर्सों को शुरू करना और अंत में पूरी शिक्षा को ही निजीकरण के हवाले कर देना ताकि केवल एक वर्ग ही पढ़ पाए। इससे दो तरह के वर्ग तैयार हों। एक वह जो शोषण करे और एक शोषित होने के लिए तैयार रहे। यह कुछ सरकार के लक्ष्य हैं इन पर वह धीरे-धीरे करके बढ़ रही है। इसी लिंगदोह के नाम का हवाला देकर सरकार जहां अपना फायदा देखती है वहीं चुनाव करावाती है और जहां नुकसान लगता है वहां नहीं करवाती है। लिंगदोह के नाम पर वह मनमानी कर रही है। गौरतलब है कि जेएम लिंगदोह ने अपनी सिफारिशों में कहा था कि जिस भी छात्र पर आपराधिक मुकदमे हों, वह चुनाव नहीं लड़ सकता, चुनाव प्रचार के दौरान परिसरों में सिर्फ हस्तलिखित पोस्टर ही लगाए जाएं और चुनाव प्रचार का खर्च पांच हजार से ज्यादा न हो।
दिल्ली विश्वविद्यालय हमेशा मनी और मसल्स की राजनीति का केंद्र रहा है। लेकिन इस बार लिंगदोह का डंडा कुछ ज्यादा ही कड़क है। यहां पर इस बार पोस्टर और बैनर तो नहीं लगने दिए गए लेकिन चुनाव खर्च का कोई हिसाब किताब नहीं है। छात्र नेता अपने वोटरों को कितनी फिल्में दिखाते हैं और पाटिüयों में कितना खर्च करते हैं इसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। यह अलग बात है कि सरकार को इस समय दिल्ली विवि ही आदर्श शिक्षा का केंद्र लगा इसलिए यहां चुनाव हो रहे हैं। लेकिन इस बार सरकार ने जिस फायदे के लिए यहां चुनाव करवाए हैं उसका अभी तक कोई अता-पता नहीं चल रहा है क्योंकि इस बार कोड ऑफ कन्डक्ट ने एनएसयूआई और एबीवीपी के भी कुछ छात्रों का नामांकन खारिज कर दिया है। लिंगदोह साहब की सिफारिशें इतनी अव्यवहारिक हैं कि दिल्ली विश्वविद्यालय के आधे कॉलेजों में चुनाव हो रहे हैं और आधे कॉलेजों में नहीं हो रहे हैं क्योंकि इनकी सिफारिशों पर कोई फिट ही नहीं बैठ रहा है।
दूसरी तरफ मध्य प्रदेश का उज्जैन है। जहां पर प्रो। एचएस सब्बरवाल की एबीवीपी के छात्रों ने अगस्त 2006 में हत्या कर दी थी। हत्या करने वाले छात्र को सबूतों के अभाव में बरी किया जा चुका है। इसी के विरोध में सब्बरवाल के पुत्र हिमांशु सब्बरवाल और हिमांशु के कुछ मित्र इंडिया गेट पर कैंडिल मार्च निकालने वाले थे। उससे पहले ही हिमांशु के एक मित्र परमिंदर सिंह की भी हत्या कर दी गई ताकि अब कोई सब्बरवाल के परिवार के साथ मिलकर उनके हत्यारों की सजा की मांग न कर सके। यह है एबीवीपी का अनुशासन। लेकिन वहां पर चुनाव होते हैं क्योंकि वहां भाजपा का राज है और एबीवीपी में कोई अपराधी नहीं।
अपराधी तो सिर्फ जेएनयू, इलाहाबाद विवि, बनारस विवि, लखनऊ विवि और कानपुर विवि तथा देश के अन्य विश्वविद्यालयों में हैं। इसलिए वहां पर छात्रसंघ के चुनाव नहीं कराए जा सकते। जेएनयू तो वैसे भी अपराधियों का गढ़ है क्योंकि वहां के छात्र सबसे ज्यादा सचेत रहते हैं अपने और अपने देश के स मान के प्रति। जेएनयू के छात्र अपने कै पस से क्वनैसलें जैसी क पनियों के आउटलेट को बाहर करके क्वढाबें जैसी संस्कृति को बढ़ावा दे रहे हैं। जेएनयू ही ऐसा विवि है जहां पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को काला झंडा दिखाया गया था क्योंकि उन्होंने ब्रिटेन में जाकर कहा था कि आपने ही हमें लोकतंत्र बताया और यदि आपने हमें गुलाम न बनाया होता तो आज हम इतने सयाने न होते। उस समय इस देश के हर नागरिक का खून खौल उठा था लेकिन किसी में कुछ करने की हि मत नहीं थी उस समय जेएनयू ने अपने शहीदों का स मान करते हुए मनमोहन सिंह को उनकी गलती का अहसास कराया था। जेएनयू के छात्र पढ़ाई के साथ-साथ राष्ट्रीय नीतियों पर भी नजर रखते हैं। यही तो सरकार चाहती नहीं है। वह तो जनता को फूल बॉक्स बनाना चाहती है। जितना वह दिखाए जनता उतना ही देखे पर्दे के पीछे क्या हो रहा है उसे जानने का प्रयास न करे।
दूसरी तरफ बनारस विवि है। जहां पर कोई भी सामान्य छात्र किसी भी तरह की गोष्ठी और सेमिनार नहीं कर सकते हैं जबकि वहां पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है यह अलग बात है कि किसी एक विशेष विचारधारा की राजनीति होती है। बनारस विवि में नियमित रूप से संघ की शाखाएं लगती हैं। इनके कार्यक्रम होते हैं। संघी कार्यशैलियों का गढ़ बन गया है बनारस विवि। 1997 से ही वहां चुनावों पर रोक है तभी से प्रशासन ऐसी नीतियों को अंजाम दे रहा है।
इसी तरह से इलाहाबाद और लखनऊ विवि हैं। इलाहाबाद तो हमेशा से ही सक्रिय राजनीति का केंद्र रहा है। यह भी सरकार को कैसे पचता इसलिए वहां पर भी छात्रसंघ के चुनावों पर बैन है। कुछ यही हाल लखनऊ विवि का भी है। छात्रसंघ को खत्म करने का सबसे ज्यादा फायदा प्रशासन को यहीं हुआ है। छात्र संघों को खत्म करने के बाद ही प्रशासन यहां छात्रावासों और विवि के शिक्षण शुल्क में बढ़ोतरी कर पाया, मनमानी तरीके से सेल्फ फाइनेंस कोर्सों को शुरू किया। इसके बावजूद नतीजा क्या निकलता है कि विश्वविद्यालय घाटे में है। विवि की छवि बिगड़ चुकी है इसलिए इसे सरकार की तरफ से पैसा नहीं मिल रहा है। अब छवि बिगड़ी क्यों मानी जा रही है अब तो वहां छात्र नेता नहीं हैं सिर्फ विवि प्रशासन की ही तानाशाही चलती है। अध्यापकों और कर्मचारियों को छठा वेतन तक देने की कुव्वत इस विवि में नहीं है। ये हैं छात्र संघ चुनावों को खत्म करने के परिणाम। यदि विधानसभा और लोकसभा के चुनावों को खत्म कर दिया तो देश की जैसी हालत होगी कुछ यही हालत विश्वविद्यालयों की भी है।
सरकार देश में तो लोकतंत्र को मजबूत करने की बात करती है लेकिन विवि में लोकतंत्र को खत्म करने में ही अपनी भलाई समझती है। छात्र राजनीति एक ऐसा प्लेटफार्म था जिसने आजादी के समय में भारत छोड़ो आंदोलन से लगाकर अब तक देश को सकारात्मक दिशा देने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इलाहाबाद विवि के ही 16 वर्षीय छात्र शहीद लाल पद्मधर को भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराते समय अंगे्रजों ने गोली का निशाना बनाया था। इसी छात्र राजनीति से निकले नेता वीपी सिंह और चंद्रशेखर हैं। इनके अतिरिक्त दौलत सिंह कोठारी जैसे शिक्षाविद और वर्तमान समय में वरिष्ठ संविधान वेत्ता सुभाष कश्यप जैसे लोग भी इसी छात्र राजनीति की उपज हैं। जो छात्र राजनीति ऐसे लोगों को पैदा करती है उसे नकारना आज सबसे बड़ी भूल है। युवाओं के लिए राजनीति जैसा करियर ही सिरे से खत्म कर दिया गया है। यदि आप माफिया-डॉन या ठेकेदार हैं तभी राजनीति कर सकते हैं अन्यथा मल्टी नेशनल क पनियों की सेवा करिए और विदेश जाकर अपना भविष्य संवारिए। युवाओं को राजनीति से घृणा करना ही सिखाया जाता है। यदि छात्र राजनीति को शुरू कर दिया गया तो इन राजपुत्रों का क्या होगा। जिन्होंने कभी भी छात्र रहते हुए राजनीति का मुंह नहीं देखा और अब अपने अनुकूल समय दिखा तो पहुंच गए कलावती के घर खाना खाने। माधव राव सिंधिया जैसे राज परिवार की आजादी में क्या भूमिका रही, यह हम सभी जानते हैं लेकिन फिर भी ओट सी लिए हुए हैं और ज्योतिरादित्य जैसे युवाओं को संसद में भेजते हैं। कांग्रेस भी इन्हें अपने साथ में लेकर फº से कहती है कि यह युवाओं की पार्टी है। जिस तरह से देश में लोकतंत्र का महत्व है उसी तरह से परिसरों में भी लोकतंत्र को खत्म करके माहौल को बेहतर नहीं किया जा सकता है। छात्र राजनीति को एक साजिश के तहत खत्म किया गया है हमें जल्द ही इस साजिश का पदाüफाश करना चाहिए ताकि विवि प्रशासन की जंजीरों से आजाद हो सके। सभी लोकतंत्र पसंद बुद्धिजीवियों, छात्रों और भारत के जि मेदार नागरिकों को छात्र राजनीति के पक्ष में खड़े होना चाहिए।
भगत सिंह ने भी इस छात्र राजनीति पर कहा है कि क्वजिन नौजवानों को कल देश की बागडोर लेनी है उन्हें आज ही अक्ल के अंधे बनाने की कोशिश की जा रही है। हम यह मानते हैं कि विद्यार्थियों का मु य काम पढ़ाई करना है, उन्हें अपना पूरा ध्यान उस ओर लगा देना चाहिए। लेकिन क्या देश की परिस्थितियों का ज्ञान और उनके सुधार के उपाय सोचने की योग्यता पैदा करना उस शिक्षा में शामिल नहीं? यदि नहीं तो हम उस शिक्षा को भी निकम्मी समझते हैं जो सिर्फ क्लर्की करने के लिए ही हासिल की जाए। हमें भी ऐसे ही युवा की जरूरत है जो अपने देश की राजनीति के प्रति सतर्क हो और गुलामी मानसिकता से मुक्त हो।

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