राजीव यादव
उस दिन देर शाम तकरीबन नौ बजे जब हम थके-हारे कमरे पर लौट रहे थे, प्रयाग रेलवे क्रासिंग के किनारे कुछ लोग ईंटों की जोड़इया कर रहे थे। देखते ही हमने माजरा समझ लिया कि ये उस पेड़ को घेर कर मंदिर का निर्माण कर रहे हैं जिसे साल भर पहले से कुछ रंग-बिरंगे धागों से आगे घेरा गया फिर उसके नीचे कुछ छोटी-छोटी मूर्तियां रखी गयीं। संगम जाने के रास्ते में पड़ने के कारण जल्द ही इसे धार्मिक स्वीकृत भी मिल गयी। इस सबको देख बरगद का वह पेड़ मुझे बलि के बकरे के समान लग रहा था जिसे हमारी चेतना पेड़ न मानकर कुछ और मानती है। उसके चारों ओर जो निर्माण हो रहा था भविष्य में वो इसके विकाश को निश्चित रोक देगा। और जैसे-जैसे इस निर्माण का आकार बढ़ेगा उसका असर आस-पास के लोगों के जेहन पर भी पडे़गा। पर फिर कुछ लोगों का यह भी तर्क ठीक लगता है कि क्रासिंग के बगल में होने के कारण लोग यहां मल-मूत्र त्यागते थे मंदिर के बन जाने से गंदगी नहीं होगी।
बहराल जो भी हो इसे देख हमारे अंदर का राष्ट्रवाद जागा कि हमें सार्वजनिक स्थल पर हो रहे इस अवैध निर्माण को रोकना चाहिए। और हमने कमरे आकर जिले के आला अधिकारियों से इस पर बात करने की कोशिश की तो किसी के मोबाइल ने यदा-यदा ही धर्मस्य से तो किसी के मंगल भवन अमंगल हारी से हमारा स्वागत करते हुए बताया कि साहब कृष्ण जनमाष्टमी मना रहे हैं बाद में बात होगी। इसके बाद हमारे अंदर का पत्रकारिता का कीड़ा जागा और हमने सोचा क्यों न इसे अखबार में छपवाकर मुद्दा बनाया जाय। क्योंकि अभी हाल में सुप्रिम कोर्ट ने यह कहा है कि सार्वजनिक स्थल पर धर्म स्थलों का निर्माण नहीं होगा।
फिर क्या था दूसरे दिन हम अपने पत्रकार मित्र राकेश के साथ वहां पहुंचे, जहां उन्होंने उस स्थान की कुछ एक तश्वीरें खींची। तभी पास की पान की दुकान पर खड़े मृदु स्वभाव के एक महाशय ने पघुराते हुए उन्हें अपनी तरफ बुलाया और पूछा कि फला शुक्ला जी को जानते हो ओ हमारे मित्र हैं। उन्हें भाव न देते हुए कैमरे का फ्लैश चमकाते हुए पत्रकार मित्र अपने काम में मसरुफ रहे, महाशय को लगा कि वो उनकी फोटो खींच रहे हैं तो थोड़ा सीना और चैड़ा करते हुए पत्रकारिता पर अपनी भी समझ का प्रमाण देने के लिए पूछा कि क्या हेडिग लगाओगे? अवैध निर्माण का न। जो समझ में आएगा लगाउंगा कहते हुए राकेश वहां से चला आया।
मामले को उलझता देख दुकान पर गए दूसरे मित्र राजकुमार भाई ने लौट कर बताया कि वह आदमी बड़ी दृढ़ता से एक अखबार का हवाला देते हुए कह रहा था कि वहां हमारे परिचित हैं और भगवान के खिलाफ खबर कौन छापेगा। वहीं पास में बैठे एक बुजुर्ग ने श्राप भी दे दिया कि इसको कोढ़ हो जायेगा तो वहीं कुछ गुटका-सिगरेट फूकतें हुए नौजवानों ने कहा कि जाएगा कहा इधर से ही जाएगा न हाथ-पैर तोड़ देंगे। पर उस आदमी की आस्था और विश्वास खबर न छपने को लेकर काफी दृढ़ थी।
खैर उनकी इस आस्था के विपरीत साथी की खबर दूसरे दिन प्रमुखता से तश्वीर के साथ छपी। खबर छपने के बाद हम उस दिन वहां कई बार पता लगाने गए कि खबर का असर क्या है। पर वहां इसके उलट किसी व्यवधान के अब निर्माण पुलिस की चाक-चैबंद सुरक्षा में हो रहा था। इससे झल्लाए हुए हमारे पत्रकार मित्र को अपनी कलम पर हताशा हुयी और उन्होंने आला अधिकारियों के फोन अपने समाचार का हवाला देते हुए घनघनाया कि सुप्रिम कोर्ट के आदेश के बावजूद सार्वजनिक स्थल पर मंदिर का निर्माण कैसे हो रहा है। पर सबने एक सा जवाब दिया कि आपकी खबर पर हम चलने लगे तो हम बिक जायेंगे और सुप्रिम-उप्रिम कोर्ट को कौन जानता है। इस पर हमें लगा कि संगम में आला अधिकारी सिर्फ डुबकी लगाकर फोटो ही नहीं खिचवाते बल्कि उसी में अपने अंतर-आत्मा को भी उसी के हवाले कर देते हैं और जैसा निर्देश वहां से मिलता है वैसे वे संचालित होते हैं।
शाम हो गयी थी, हम फिर घूमते हुए गंगा किनारे बक्शी बांध पर गए। बक्शी द्वारा बनवाए गए आरामगाह को देखने लगे जो पिछले एक साल से हुनामान मंदिर और पिछली रामनवमी को रामलला की स्थापना के बाद राम मंदिर में तब्दील हो गया है। जिस पर हमारे पत्रकार मित्र ने लिखा था और जो छपा भी था ‘सराय बना मंदिर’। अकबर कालीन बक्शी के उस आरामगाह को निहारते हुए हमारे जेहन में इतिहास की कुछ विस्मृत हो चुकी और अब ‘विवादित और संवेदनशील’ जगहों की छवियां उभरने लगीं।
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