03 अक्तूबर 2009

आप जो लिख रहे हैं, वही हैं या नहीं ?

वरिष्ठ कवि-आलोचक, पत्रकार और फिल्म समीक्षक विष्णु खरे पिछले दिनों लखनऊ में थे। उन्होंने जन संस्कृति मंच के फिल्म महोत्सव में विशिष्ट अतिथि के तौर पर हिस्सा लिया और सर्जनात्मक सिनेमा के विशिष्ट पहलुओं का सोदाहरण विवेचन किया। विष्णु खरे की खूबी है कि जिन मुद्दों को दूसरे लोग विवादास्पद मानकर टिप्पणी करने से बचते हैं, उन पर भी वे खुलकर अपनी राय रखते हैं। साहित्य, समाज, फिल्म और राजनीति से जुड़े विभिन्न सवालों पर पेश है विष्णु खरे से नई पीढी की साथी शालिनी वाजपेयी की बातचीत...


लखनऊ में आपको क्या आकर्षित करता है?
- लखनऊ में आकर्षित करने के लिए बहुत कुछ है। यहां की मिली-जुली संस्कृति यानी गंगा-जमुनी तहजीब, यहां की बोलियां। यहां पर अच्छा उच्चारण मिलता है अवधी, भोजपुरी का। यहां का साहित्य, नृत्य, गायन। यहां के बहुत सारे युवा कवि और वरिष्ठ कवि भी। और, बेगम अख्तर को तो आप भूल ही नहीं सकते। यहां के राजनेता नारायण दत्त तिवारी, मुलायम सिंह यादव, मायावती इन सब के सम्पर्क में रहा हूं। बसपा के प्रति इज्जत है। इसके कार्यकर्ताओं के लिए सम्मान है।

और मायावती के पत्थर प्रेम को क्या कहेंगे?
- यह बचकानी हरकत है। इससे मायावती की छवि को क्षति पहुंच रही है। यह जितनी मूर्तियां लगाती हैं, उतनी ही ध्वस्त होती जाती हैं। इससे इनकी अपनी मूर्ति भी ध्वस्त हो रही है। यह बहुत ही दुभाüüग्यपूर्ण है। इससे दलितों में गलत संदेश जा रहा है। मेरा तो सपना था कि कांग्रेस, वामपंथ, सपा और बसपा यह सब मिलकर एक हो जाएं तो इन्हें कोई हरा नहीं सकता है लेकिन इन्होंने तो जनता को जातियों में बांट दिया है।

फिल्म और साहित्य के सम्बंध को आप कहां तक ठीक मानते हैं?
- फिल्मों में साहित्य को उतारना बहुत कठिन होता है। अधिकतर फिल्में साहित्यकार की आत्मा को ही मार डालती हैं। अब जैसे शतरंज के खिलाड़ीं पर सत्यजीत राय ने फिल्म बनाई। उन्होंने फिल्म को बढ़ा दिया और अंत बदल दिया, लेकिन प्रेमचंद की आत्मा को नहीं मरने दिया। सिनेमा एक अलग माध्यम है, वह हजारों वर्षों को तीन घंटे में दिखा सकता है। वह अशोक से लेकर मायावती तक का इतिहास तीन घंटे में दिखा सकता है, जबकि उपन्यास को इसके लिए मोटा होना पड़ेगा। फिल्म में बहुत पैसा लगता है। एक मूखü से मूखü फिल्मकार भी बहुत मेहनत करता है, लेकिन फिल्म को रिजेक्ट होने में कोई समय नहीं लगता। डाक्यूमेंट्री में तो बहुत ही जोखिम है। नरेंद्र मोदी आपको बंद करवा देगा, मरवा देगा। परजानियां को तो बहुत जोखिम उठाना पड़ा, फिल्म के लोगों के साथ कुछ भी हो सकता था, क्योंकि फिल्में तो बिल्कुल सार्वजनिक जगहों पर बनती हैं। नसीर तो कहता है कि सिनेमा बहुत बकवास है, ऐक्टिंग बकवास है, मैं अपनी फिल्में नहीं देखता। हॉलीवुड के अभिनेता अपनी फिल्में नहीं देखते। फिल्म बनाने के लिए डायरेक्टर को बहुत अपमान सहन करना पड़ता है, बहुत संघर्ष करना पड़ता है।

फिल्म मोहनदासं जो उदय प्रकाश की कहानी पर बनी है, वह कितना खरी उतरती है?
- मैंने कहा न कि साहित्य और सिनेमा का रिश्ता बहुत कठिन है। फिल्में विचार नहीं देती हैं। उदय प्रकाश को भी फिल्ममेकर से शिकायत है। वह बिल्कुल भी इस फिल्म से संतुष्ट नहीं हैं। इस फिल्म में जितना खर्च हुआ है, उतना शायद वापस मिलना बहुत मुश्किल है।

और, उदय प्रकाश के पुरस्कार पर क्या कहना चाहेंगे?
- जब लेखक में नैतिकता ही न हो तो फिर वह कुछ भी कर सकता है। इससे वह अपने लिए भी कठिनाइयां पैदा करता है और विचारधारा, साहित्य व समाज को भी बबाüद करता है। जैसे मैं किसी जनसंघी या मायावती से पुरस्कार ले लूं तो समझो मेरा तो पतन हो गया। फिर मैं बहाना करके कहूं कि मैंने मायावती से नहीं, बल्कि नारावादी दलित चेतना से पुरस्कार लिया है। जब आपने अपना जमीर ही मार डाला है तो फिर कुछ भी करिए, कुछ भी कहिए, क्या फर्क पड़ता है। लेखक क्या करता है, क्या लिखता है, यह 19वीं सदी तक फर्क नहीं पड़ता था लेकिन अब फर्क पड़ता है क्योंकि अब आपके बारे में पाठक सब जानता है। वह जांचता है कि आप जो लिख रहे हैं, वही हैं या नहीं। अब विश्वरंजन को ही लीजिए। वह कवि भी हैं और आईजी भी। वह सलवा जुडूम के पीछे खड़े होकर नक्सलवादियों को मरवाते हैं। फिर वह नक्सलवादियों पर कविताएं लिखें तो क्या पाठक यह देखता नहीं है। जब हमारी दोनों जेबें सहारा इंडिया के पैसों से भरी होंगी, दोनों जेबों में सहारा एयरलाइन के टिकट भरे हों तो हम सहारा पर क्या बोलेंगे, क्या लिखेंगे? हम कहते अपने आपको क युनिस्ट हैं और क युनिस्टों को ही अपना दुश्मन मानते हैं।

आधुनिक कविता पर क्या कहेंगे?- आधुनिक कविता अच्छी दिशा में जा रही है। सभी कवि वामपंथी धारा के हैं, भले ही कार्ड होल्डर न हों। इस समय पर जैसी आधुनिक कविता है, ऐसी पहले नहीं थी। अब जैसे वेनेजुएला वगैरह की कविता ऐसी नहीं है, क्योंकि वहां पर समस्याएं नहीं हैं। इसलिए उनकी कविता में महंगाई पर बात नहीं होती है। इस समय पर बहुत सारी स्त्रियाँ भी सक्रिय हैं और बहुत अच्छा लिखती हैं। यह स्त्रियाँ बुद्धिजीवी भी हैं। इनसे बात करना आसान नहीं है। 1990 के पहले महिलाएं साहित्य में कम थीं, लेकिन अब ऐसा नहीं है।

क्या स्त्रियाँ ही स्त्री विमर्श पर अच्छा लिख सकती हैं या पुरुष भी?
- स्त्री विमर्श पर स्त्रियाँ ही ज्यादा ऑथेंटिक लिखेंगी। मेरी पत्नी मेरी बारे में क्या सोचती है, उसे कैसा महसूस होता है, यह मैं नहीं जान सकता हूं। एक महिला के मां बनने के अहसास को मैं नहीं महसूस कर सकता, उसे वही बता सकती है। पुरुष तो उनके लिखे को ही पढ़कर कुछ अनुमान लगाकर लिख सकता है, लेकिन ऑथेंटिक एक महिला ही लिख सकती है। सविता सिंह, मन्नू भंडारी अच्छी लेखिका हैं और बुद्धिजीवी भी हैं। अमेरिका वगैरह में तो महिलाओं ने नोबल पुरस्कार तक जीता है, उनसे आप क्या बहस करेंगे।

क्या यही बात दलित साहित्य या दलित विमर्श पर भी लागू होती है?
- जब दलित करोड़पति बन जाता है तो वह भी दूसरे दलित से कहता है- आओ, जैसे हम यहां तक पहुंचे हैं ऐसे ही बेईमानी करके तुम भी आओ। यह व्यवस्था जनता को चोर बना रही है। हम चोर हैं और तुम भी चोर बनो। अब एक रिक्शावाला भी मोबाइल रखता है, लड़कियों को छेड़ता है, उन पर फçब्तयां कसता है। पहले वह एक काम करने वाला व्यक्ति था और अब व्यवस्था क्या कर रही है- उसे लुंपेन बना रही है। पूंजीपतियों का षड़यंत्र चल रहा है। यहां सेठ का मुनीम बैठा है, वह अपने सेठ को फायदा पहुंचाएगा ही। दलित-वामपंथी जब तक यूनाइट नहीं होंगे, तब तक कुछ नहीं होगा। अब तो घराना राजनीति चल रही है। आंध्र प्रदेश में जगनमोहन को ले लो- बाप की लाश ठंडी भी नहीं हुई और मु यमंत्री बनने की तैयारियां होने लगीं। इससे पहले जगनमोहन को कौन जानता था? माधवराव सिंधिया के समय पर ज्योतिरादित्य को कौन जानता था? ये सब बाप की मृत्यु के बाद पैदा हुए बेटे हैं।

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विष्णु खरे : एक नजर
मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा में 9 फरवरी 1940 को जन्म। इंदौर के क्रिश्चियन कॉलेज से 1963 में अंगे्रजी साहित्य में एमए। इंस्टीटूट ऑफ चार्टर्ड अकाउंटेंट्स ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में अंगे्रजी के एजुकेशन ऑफिसर, दिल्ली विश्वविद्यालय के हस्तिनापुर कॉलेज में अध्यापन, साहित्य अकादेमी के उप सचिव। तत्पश्चात नवभारत टाइम्स व टाइम्स ऑफ इंडिया के वरिष्ठ सम्पादकीय सदस्य रहने के बाद नवभारत टाइम्स के लखनऊ व जयपुर संस्करणों के संपादक रहे। साहिçत्यक लेखन-प्रकाशन 19भ्6 से टीएस इलियट का अनुवाद मरु प्रदेश और अन्य कविताएं (1960), कविता संग्रह एक गैर रूमानी समय मेंं (1970), पहचान सीरीज के तहत विष्णु खरे की कविताएं, खुद अपनी आंख सें (1978), सबकी आवाज के पर्दे मेंं (199भ्), समीक्षा पुस्तक आलोचना की पहली किताबं (1983)। इसके अलावा विदेशी कविता से हिंदी और हिंदी से अंगे्रजी में सर्वाधिक अनुवाद कार्य किया है। लोठार लुत्से के साथ हिंदी कविता के जर्मन अनुवाद डेअर ओक्सेनकरेनं का संपादन, यह चाकू समयं (अंतिला जोजेफ), हम सपने देखते हैंं (मिक्लोश राद्नोती), कालेवालां (फिनी राष्ट्रकाव्य), गुंटर ग्रास की विवादास्पद पुस्तक का जीभ दिखानां नाम से अनुवाद बहुचर्चित व सम्मानित। 1971-73 के दौरान प्राहा, तत्कालीन चेकोस्लोवाकिया में प्रवास। यूरोप, अमेरिका व मध्य-पूर्व के देशों की साहिçत्यक-सांस्कृतिक यात्राएं भी की हैं। फिनलैंड की कालेवाला सोसायटी, यूनेस्को के भारतीय सांस्कृतिक उप आयोग और केंद्रीय साहित्य अकादमी के सदस्य हैं।

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