25 अक्तूबर 2009

जोगियों का गांव ...

-अपने अस्तित्व के लिए जूझते जोगी


नौलख पातरि आगे नाचै, पीछे सहज अखाड़ा।
ऐसे मनले जोगी खेले , तब अन्तरि बसैं भण्डारा ।।
हॅसिबा खेलिबा रंग, काम क्रोध न करिबा संग ।
हॅसिबा खेलिबा गाइबा गीत , दिढ़ कर राषि अपना चित्त।।


( हसो, खेलो, मस्त रहो किन्तु क्रोध का संग कभी न करो। हसो खेलो गीत गाओ, अपना चित्त दृढ़ रखो। )

सुधीर सिंह ‘ गब्बर‘

‘ जोगी ‘ शब्द योगी का अपभ्रसं है। जोगी शब्द का नाम जुबान पर आते ही एक ऐसी मनुष्य की आकृति दिमाग में आ जाती है जो गेरूएं वस्त्र में लिपटा हुआ हाथ में सांरंगी, कधे पर टगी लालटेन, सेली, गुदरी, खप्पर, कर्ण मुद्रा, मेखला, बाघम्बर, झोला , तुम्बी आदि लिए पूरी तरह मस्त हो सांरंगी की धुन पर गीत गाते हुए गांवो की गलियों में भिक्षाटन करते नजर आते है । और यह परम्परा काफी पुरानी है । किसी मानव के जीवन में योग की प्रकृया काफी जटिल है परन्तु यहां दो प्रकार के जेागी पाये जाते है । एक जोगी वे जो अपना सबकुछ छोड़ गुरू की शरण में पहॅुच जाते है और संम्पूर्ण पारिवारिक मोह माया छोड़ गुरू के चरणो में अपनी साधना पूरी करते है । इनके भिक्षाटन का उद्देश भी अपने साधना को पूरा करने से ही है । ये अपनी भिक्षा में मिला सब कुछ अपने गुरू को सर्मपित कर देते है । वहीं कुछ लोग परिवार में रहते हुए भी बैरागी जीवन जीते है । परन्तु इनका उद्देश्य जीविकोर्पाजन करना है । परन्तु ये सभी नाथ सम्प्रदाय से ही जुड़े हुए है ।
नाथ साहित्य के अनुसार नाथ पन्थ के प्रर्वतक गुरू गोरखनाथ थे । भारत के सांस्कृतिक इतिहास में नागपन्थ का विशेष महत्व इसलिए है कि जब भारतीय धर्म साधना का रथ ब्रजयानियों की विकृति भवधारा की किचड़ में फसा हुआ था तब नाग पन्थी साधको ने उसे जीवन के संकल्प पर लाने का प्रयास किया । गोरखनाथ इस परंम्परा के सर्वप्रथम आर्चाय और सिद्व मत्स्येन्द्रनाथ के शिष्य माने जाते है । मत्स्येन्द्र नाथ कौल साधक थे । कौल साधना में साधक का प्रधान कतब्र्य जीवन शक्ति को जागृत करना है जो जगत मे ब्याप्त है और जो कुण्डलिनी के रूप में मनुष्य के शरिर में स्थित है । नागपन्थियों को कनफटा या दर्शनिय साधू भी कहा जाता है । इस पन्थ का प्रचार पूरे देश में था किन्तु उत्तर भारत में राजस्थान व पंजाब में इनका प्रसार अधिक था । इनका साहित्य विशुद्व रूप से साधनात्मक है इनका प्रभाव मुसलमानो पर भी पड़ा । इसमें जन सामान्य की बोली में धार्मिक पाखण्ड, जाति प्रथा, मूर्ति पूजा आदि का तीखा खण्डन मिलता है । ये हठ जोगी भी कहे जाते है हठ योगीयों के ‘सिद्व सिद्वान्त पद्वति ‘ ग्रन्थ के अनुसार ‘ह‘ का अर्थ है ‘सूयर्‘ तथा ‘ठ‘ का अर्थ है ‘चन्द्र‘ । इन दोनों के योग को ही हठ योग कहते है । ये हठ योग की साधना द्वारा शरिर और मन को शुद्व करके, शून्य में सामाधि लगा, ब्रह्रम का साक्षात्कार किया करते थे ।
आजमगढ़ जनपद के लोहरा और अतरसाॅवा गांवो को जोगीयो के गांवो के रूप में जाना जाता है । जहां लगभग 400 परिवार जोगीयों के रहते है । ये पीढ़ी दर पीढ़ी इस पेशे से जूड़े तथा इससे प्राप्त भिक्षा से अपने परिवार का खर्च चलाते है ‘‘ रहने को घर नहीं सारा जहां हमारा है , बजता जाये इक तारा जोगी का है जग सारा ‘‘ गीत जोगीयों की अल मस्तीी को बया करता है ये अपने गीतो में राजा भरथरी के गीत गाते है और उनकी कहानियां सुनाते है। राजा भरथरी ने अपना राज पाठ छोड़कर बैराग्य अपना लिया था और वह जोगी हो गये थे ।

जोगी अपनी गरिबी में ही खुश रहता है और भीख मांगना बुरा नहीं मानता बल्कि भिक्षाटन उनकी योग साधना का हिस्सा है । इसी बहाने ये घर-घर गांवों की गलियों और पगडंडियों पर घूमते रहते है जिस गलियाों में जोगी का फरा होता है लोग कौतुहल से उनका इंतजार करते है। इनका दरवाजे पर आना लोग शुभ मानते है तथा आदर के साथ भिक्षा देते है । लोग इन्हे बहता पानी और रमता जागी भी कहते है । इनका एक जगह ठिकाना नहीं होता । भोर में जब लोग सोये रहते है उस समय जलती हुई लालटेन टांगे सारंगी बजाकर गीत की टेर लगाते है और बताते है कि सबेरा होने वाला है उठ जाय इनका उद्देश्य नींद से जगाना नहीं अपितु अपने अन्दर चेतना को जगाना होता है ।

परन्तु परंम्परागत रूप से जोगी का पेशा करने वाले लोग बदलते परिवेश में अब अपने पेशे से उब रहे है तो उनकी नई पीढ़ी समाज की मुख्य धारा से जुड़ना चाहती है । समाज के अन्दर एक अलग पहचान रखने वाला जोगी समाज जिसको आज भी आदर और सम्मान से देखा जाता है समाज के अन्दर उनकी ही शैली में चेतना जगा इसे सही दिशा में चलने की प्रेरणा दे रहा है ।

‘गब्बर‘ स्वतंत्र पत्रकार हैं.

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