दिनकर कपूर
पिछले दिनों चन्दौली जनपद के नौगढ़ ब्लाक में कांग्रेस के आला नेता व उ0प्र0 के प्रभारी दिग्विजय सिंह आएं। उन्होंने वहाॅ चकवड़ का साग (घास की रोटी) का एक टुकड़ा चखा और बताया कि इस क्षेत्र का गरीब घास की रोटी खाने को मजबूर है। एक प्रत्यक्षदर्शी के मुताबिक कांग्रेसी करीब दो सौ गाड़ियों के काफिले के साथ नौगढ़ पहुॅचे थे और उसमें देश-विदेश के मीडियाकर्मियों को भी लाया गया था। इस हाईप्रोफाइल नाटक के जरिए कांगे्रस यह दिखाना चाहती थी कि वह सच्चे मायने में गरीबों की हितैषी है। अब इस सच्चाई से कौन नहीं वाकिफ है कि यदि आज अरहर की दाल 90 रूपए किलों, चीनी 40 रूपए किलो और आलू जैसी सब्जी भी 24 रूपए किलो बिक रही है और मंहगाई ने आम आदमी की कमर तोड़ कर रख दी है तो इसकी जिम्मेदार कांगे्रस की ही नीतियां है। आखिर देश में आजादी के बाद के साठ सालों में पचास साल कांग्रेस ने ही दिल्ली में राज किया है। इन कांग्रेसियों ने बिना तैयारी किए ही देश का बाजार दुनिया के बड़े पूंजीपतियों के हवाले कर दिया। वैश्वीकरण की आंधी में आम जनता की कमाई अंधाधुंध तरीके से बड़े कारपोरेट धरानों को दी गयी। एक सर्वे के अनुसार विगत दो वर्षों में यूपीए सरकार ने 5 लाख करोड़ रूपए की सब्सीडी बड़े पूंजी घरानों को देने का काम किया है। यानि 700 करोड़ रूपए प्रतिदिन या 31 करोड़ रूपए प्रति घन्टे के हिसाब से छूट दी गयी है। शर्मनाक बात यह है कि आज जब मंहगाई बेलगाम तरीके से बढ़ रही है तो इसका कारण वैश्वीकरण को बताया जा रहा है।
जहाॅ तक बात सोनभद्र, मिर्जापुर और चन्दौली क्षेत्र में व्याप्त गरीबी की है तो इस क्षेत्र में सभी गरीबों को लाल राशन कार्ड देने की मांग लम्बे समय से उठती रही है। इतनी छोटी मांग भी गरीबों की नहीं पूरी हो सकी तो इसकी जिम्मेदारी भी कांग्रेस की केन्द्र में बैठी सरकार की है। क्योंकि बीपीएल मानक और उसमें गरीबी रेखा के लाल-सफेद राशन कार्ड की संख्या तय करना केन्द्र सरकार के दायरे में ही आता है। केन्द्र सरकार ने ग्रामीण क्षेत्र के लिए 11.80 रूपए व शहरी क्षेत्र के लिए 17.80 रूपए प्रतिदिन कमाने वाले को ही गरीबी रेखा के नीचे माना है। जबकि सरकार द्वारा बनाएं अर्जुन सेन गुप्ता आयोग की रिपोर्ट खुद यह कहती है कि देश की 77 फीसदी आबादी 20-/ रूपए प्रतिदिन से भी कम पर जीवन चला रही है। बावजूद इसके 20/- रूपए को भी मानक न मानना गरीबों को बी0पी0एल0 सूची से भी बाहर कर देना नहीं तो और क्या है ? इतना ही नहीं नयी कांगे्रस नीति यूपीए की सरकार अपनी नयी पारी में जो खाद्य सुरक्षा कानून लेकर आ रही है वह तो इस मंहगाई में गरीबों के निवाले पर ही हमला है। प्रस्तावित कानून में गरीबों को मिल रहे 35 किलो राशन को घटाकर 25 किलों, दाम 3 रूपए करने के साथ अभी देश में दिए जा रहे 6.52 करोड़ बीपीएल राशन कार्ड को घटाकर 5.91 करोड़ करने व पीले राशन कार्ड को समाप्त करने का प्रावधान है। जिस नरेगा को लेकर इतना हो हल्ला किया जा रहा है इसके क्रियान्वयन को प्रति केन्द्र सरकार खुद कितनी गम्भीर है, इसे एक उदाहरण से ही समझा जा सकता है। अपना बजट पेश करते समय वित्तमंत्री प्रणव मुखर्जी ने देश की संसद में यह घोषणा की कि पूरे देश में नरेगा की न्यूनतम मजदूरी 100 रूपया की जायेगी, लेकिन आज तक इस सम्बंध में आदेश पारित नहीं हुए। जब इस बाबत सूचना के अधिकार के तहत ग्रामीण विकास मन्त्रालय से सूचना मांगी गयी तो जवाब मिला कि वित्तमंत्री ने 100 रूपया मजदूरी करने की इच्छा प्रकट की थी, इसकी गांरटी नहीं। परिणामतः आज भी राष्ट्रीय मजदूरी मनरेगा में 60/- रूपए ही बनी हुयी है। सरकार द्वारा गठित नरेगा पर सीएजी की रिपोर्ट के अनुसार इस योजना में औसतन 27 दिन ही काम उपलब्ध हुआ है। जिसमें सबसे खराब स्थिति कांगे्रस शासित महाराष्ट्र की है। भ्रष्टाचार और नरेगा की धन की लूट के मामले में तो सबके हाथ रंगे हुए है। इतने के बाद भी नौगढ़ में आकर हाईप्रोफाइल ड्रामा रचना सोनभद्र, मिर्जापुर और चंदौली के गरीबों, मजदूरों, आदिवासियों, दलितों की गरीबी का मजाक उड़ाना है।
यदि सही मायने में कांगे्रसी इस क्षेत्र की गरीब जनता के प्रति संवेदनशील है तो उन्हें बुदेलखण्ड की तरह केन्द्र सरकार से इस इलाके के पिछड़ेपन को देखते हुए विकास हेतु विशेष पैकेज दिलाना चाहिए। सच्चाई तो यह है कि जिस नौगढ़ में ही यह हाईप्रोफाइल ड्रामा रचा गया वहाॅ से लेकर नगंवा, चतरा, रावर्ट्सगंज, घोरावल जैसे ब्लाकों में मात्र सिंचाई हेतु पानी की व्यवस्था हो जाए तो यहाॅ के गरीब पलायन करने को मजबूर नहीं होगे। लम्बे संघर्षों के बाद आदिवासियों और अन्य परम्परागत वन निवासियों के वनभूमि पर पुश्तैनी अधिकार की बहाली के लिए वनाधिकार कानून बना। इस कानून से इस क्षेत्र मे आदिवासी समुदाय में भी आशा की किरण पैदा हुयी। लेकिन पंूजीपतियों के लिए बने कानून को लागू करने में क्षणिक देर न करने वाली केन्द्र सरकार ने इसे दो साल तक लटकाएं रखा। काफी दबाव के बाद 2008 में यह लागू हुआ लेकिन एक वर्ष से भी ज्यादा समय बीत जाने के बाद भी इससे एक भी व्यक्ति लाभान्ति नहीं हो सका। ऐसा लगता है कि केन्द्र व राज्य सरकारों ने इसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया है। इस क्षेत्र में तो स्थिति और भी बुरी है, यहाॅ के आदिवासी कोल, मुसहर, उरांव (धांगर) को साठ सालों में आदिवासी का दर्जा ही दिल्ली में बैठी सरकारों ने नहीं दिया। परिणामतः वह इस कानून के लाभ से ही वंचित हो जा रहे हैं। इस मुद्दे पर विगत 6 अक्टूबर को इस क्षेत्र के हजारों आदिवासियों ने दिल्ली की संसद पर जन संघर्ष मोर्चा के नेतृत्व में धरना भी दिया था।
कुल मिलाकर कांगे्रसी नेताओं के पास इस क्षेत्र की जनता की बेहतरी के लिए देने को नया कुछ नहीं है। वह तो मुलायम-मायावती की जनविरोधी नीतियों से पैदा हो रहे विक्षोभ को भुनाने के लिए यह हाईप्रोफाइल ड्रामा रच रहे हैं। जबकि यह क्षेत्र परिवर्तन के एक नए रास्ते की तलाश में है, जो सामंती दिमाग वालों द्वारा गरीबी का मजाक उड़ाने के नाटक की जगह सही मायने में यहाॅ के गरीबों की जिंदगी में मुकम्मल बदलाव ला सके।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें