05 नवंबर 2009

पुलिसिया दमन और 'भयमुक्त समाज' का सच

अवनीश कुमार

देश की सबसे बड़ी आबादी वाला राज्य उत्तर प्रदेश इन दिनो पुलिस उत्पीड़न की खबरों से त्रस्त है। इस प्रदेश में शायद ही कोई ऐसा दिन होता हो जिस दिन अखबारों और टीवी मीडिया में प्रदेश की पुलिस के द्वारा आम लोगों के उत्पीड़न की खबरे न आती हों। हालिया मामला एशिया के मैनचेस्टर कहे जाने वाले कानपुर से है जहां श्रमायुक्त कार्यालय के बाहर शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे जे के कॉटन मिल और मोटर कंपनी एलएमएल के मजदूरों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और उन में से चार मजदूरों पर रासुका के तहत कार्रवाई की। मजदूर नेताओं का कहना है पुलिस उनके छै और साथियों पर रासुका लगाने की फिराक में है। ये हैरान कर देने वाली घटना है। इनमें से जे के कॉटन मिल के मजदूर तो करीब दो दशकों से श्रमायुक्त कार्यालय पर अपनी मांगो को लेकर धरना दे रहे हैं। उधर एलएमएल लिमिटेड के मजदूरों की मांग अपने दो सौ साथियों को ले आफ पर बिठाने के विरोध में है। ले आफ पर बिठाए गए मजदूरों को उनके वेतन का केवल 25 फीसदी वेतन ही दिया जा रहा है, जबकि कानूनन ये वेतन का 50 फीसदी होना चाहिए। तो प्रदेश सरकार की नजर में अपने कानून सम्मत अधिकार की मांग करना भी अब “राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए खतरा” बन गया है। प्रदेश के उच्च अधिकारियों के इशारे पर पुलिस के इस्तेमाल का यह कोई पहला मामला नहीं है। एलएमएळ के कर्मचारियों के साथ तो पुलिस उत्पीड़न की ऐसी घटनाएं पहले भी कई बार हो चुकी है जब पुलिस की पिटाई से कई मजदूरों को महीनो अस्पताल में भर्ती होना पड़ा और महिला मजदूरों को जेल में ठूंस दिया गया। पुलिस का इस्तेमाल सिर्फ मजदूरों के खिलाफ ही नहीं बल्कि इससे प्रदेश सरकार राजनीतिक प्रतिद्वंदिता भी साध रही है। पिछले महीनो का रिकार्ड उठाकर देखें तो विभिन्न शहरों में आंदोलनरत विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं पर पुलिस के बुरी तरह लाठीचार्ज की खबरें भी जम कर आई हैं। जाहिर है एक तरफ जहां पुलिस कुछ मामलों में अति सक्रियता दिखा रही है वहीं पूरे प्रदेश में बढ रहे अपराध के ग्राफ को रोकने में पुलिस बुरी तरह नाकाम साबित हो रही है। सिर्फ चल रहे साल की बात करें तो 2009 के शुरूआती छै महीनो में ही प्रदेश भर से 2300 लोगों के गुम होने की सूचना पुलिस को मिली है, लेकिन अब तक 1200 लोग अब भी लापता हैं और पुलिस उनका पता लगाने में नाकाम रही है। सिर्फ प्रदेश की राजधानी की ही बात करें तो मामला चौंकाने वाला है। लखनऊ में ही हर महीने औसतन 50 से ज्यादा लोगों के गायब होने की खबरें आती है। हालिया घटनाओं को लें तो पिछले कुछ हप्तों में ही अनामिका अनीता पाल अमित राय और सुवर्णा के अपहरण की घटनाओं के मामले मीडिया में गूंजते रहे। इनमें एक लड़की की फिरौती के लिए हत्या भी की जा चुकी है। पूछा जा सकता है सरकार के राजनीतिक विरोधियों की पिटाई और कार्पोरेट जगत से नजदीकी के चलते मजदूरों पर रासुका जैसी बड़ी धाराएं लगाने वाली पुलिस इन मामलों में कहां सोई रहती है।
मामला सिर्फ इतना ही नहीं है। बड़े मामलों में इस्तेमाल होने वाली पुलिस खुद भी भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी हुई है। और ये स्वाभाविक भी है। कानपुर में पुलिस का एक एसआई और तीन सिपाही मिल कर एक व्यापारी का अपहरण करते हैं और उसके घर वालों से फिरौती की मांग करते हैं। मामला खुलने पर पता चला कि उन पुलिस वालों ने कई और लोगों को भी बंधक बना रखा था। आम मामलों में शिकायत तक दर्ज न करने वाली पुलिस का ये नया चेहरा है। अलीगढ़ में एक महिला को छै दिनो तक बंधक बनाकर उसके साथ बलात्कार किया जाता है। 6 लोगों के उपर लगे बलात्कार के आरोपों में दो पुलिस वाले भी हैं। दिल्ली से सटे नोएडा में थानो के लाखों में बिकने की घटना जगजाहिर है। नाबालिग बच्चों के उपर मामले बनाने और कई मामलों में उन्हें पीट पीटकर अधमरा कर देने की खबरें तो अक्सर ही आती रहती हैं। अभी हाल ही में पुलिस की पिटाई से एक मजदूर की मौत हो गई। मामला सिर्फ इतना था कि पुलिस वालों ने मजदूरों से दिनभर की कमाई उनके हवाले करने को कहा था। इंकार करने पर दो मजदूरों की न सिर्फ पिटाई की गई बल्कि पिटाई से उनमें से एक की मौत हो गई।
ये उस प्रदेश सरकार की पुलिस व्यवस्था है जिसने चढ़ गुंडन की छाती पर मुहर लगाओ हाथी पर के नारे के साथ चुनाव लड़ा था। जनता ने भी शायद इसीलिए करीब 16 सालों बाद किसी पार्टी को पूरे बहुमत के साथ विधान सभा में भेजा था। लेकिन प्रदेश से गुंडो के खात्मे का दावा करने वाली सरकार अब अपना वादा भूल चुकी है। नकली सदाशयता और सहानुभूति का लबादा आखिर कितने दिन ओढ़ा जा सकता था। लोक सभा चुनावों में मिली हार के बाद प्रदेश सरकार अपने असली रंग में आ गई। पुलिस का बेजा इस्तेमाल इसका सबसे बड़ा सबूत है।
दरअसल पुलिस के पास इतने अधिक विस्तृत अधिकार हैं कि उनमें किसी भी भले आदमी को फंसाकर वो उसे परेशान कर सकती है। इसलिए सत्ता में बैठे लोग इसका बेजा फायदा उठाने से नहीं चूकते। कई जगहों पर ऐसी खबरें आयी हैं कि सूचना के अधिकार के तरत सूचना मांगने वालों को धमकाया गया है। एक महिला ग्राम पंचायत सदस्य ने जब अपनी ही ग्राम पंचायत में हो रहे भ्रष्टाचार के विरोध में आरटीआई दाखिल की तो उसे सूचना देने के बजाए जिले के उच्च अधिकारियों ने महिला पंचायत सदस्य का बीपीएल कार्ड निरस्त कर दिया। ऐसे ही मुरादाबाद में आरटीआई के तहत सूचना मांगने वाले एक व्यक्ति से सूचना देने की कीमत सात लाख रूपए मांगी गई। जाहिर है प्रदेश में भ्रष्टाचार और प्रशासनिक मशीनरी का उपयोग सत्ता में बैठे लोग निजी हितों और विरोधियों को चित्त करने के लिए कर रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय