आखिर जनसत्ता में ऐसा क्या है ?
सुरेंद्र किशोर
यदि कोई संपादक अपने किसी मामूली संवाददाता के लेखन की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए भी अपनी खुद की नौकरी दांव पर लगा दे तो उसे आप क्या कहेंगे ? यदि वही संपादक अपने पुत्र के कैरियर को नुकसान पहुंचा कर भी अपने सहकर्मी पत्रकार की स्वतंत्रता की रक्षा करे तो आप क्या कहेंगे ?
आपको जो कहना है, वह कह लें, पर मैं तो कहूंगा कि वह यशस्वी संपादक प्रभाष जोशी एक पत्रकार और किसी प्राचीनकालीन ऋषि के बीच के प्राणी थे। गत 26 साल के उनसे संपर्क का मेरा तो यही अनुभव है। उपर्युक्त दोनों घटनाओं का मैं खुद पात्र रहा हूं। ऐसा अनुभव संभवतः मेरा अकेला का नहीं रहा होगा। इस देश में अनेक लोग हैं जो प्रभाष जी से खुद को सर्वाधिक करीबी मानते रहे क्योंकि प्रभाष जी ने उन्हें कुछ न कुछ दिया ही है जिस तरह उन्होंने अत्यंत विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे लिखने की स्वतंत्रता दी।
मैं सन् 1983 से सन् 2001 तक जनसत्ता का पटना संवाददाता रहा। इन 18 वर्षों में से करीब 12 साल की कालावधि में मुझे प्रभाष जी के संपादकीय व प्रशासनिक नेतृत्व में काम करने का अवसर मिला। बाद के संपादक क्रमशः राहुल देव, अच्युतानंद मिश्र और ओम थानवी का व्यवहार भी मेरे साथ जनसत्ता की परंपरा के अनुकूल ही था जिस परंपरा की नींव प्रभाष जी ने डाली थी। पर प्रभाष जोशी के संपादकत्व का काल भारी राजनीतिक उथल-पुथल का काल था। ऐसा काल जिसमें संपादकों व संवाददाताओं की पहचान हो जाती है। जनसत्ता व उसके यशस्वी संपादक उस झंझावात में खरा उतरे। आगे पढ़े - विरोध
जनसत्ता एक दस्तावेज़ है, प्रभाष जोशी इतिहासकार
रविश कुमार
(पहले करता था तो कोई नहीं कहता था। अब वैसी ही भागमभाग करूं तो सब कहते हैं कि नहीं। और अन्दर से भी आवाज़ आने लगती है कि रुको। पर मैं न बाहर की सुनता हूं न अन्दर की। फिर भी इस बार ज़रा ज़्यादती हो गई। पिछले रविवार को लखनऊ, दोपहर कानपुर, रात फिर लखनऊ, सुबह दिल्ली और शाम इन्दौर और दूसरे दिन वापस दिल्ली।)
प्रभाष जोशी ने यह बात ६ जनवरी १९९४ को कागद कारे में लिखी थी। अपने पागलपन के अर्थ को समझाने के लिए। बताने के लिए कि इनती व्यस्तता के बाद भी क्रिकेट के लिए जगह बचती है। पांच नंवबर २००९ को दुनिया छोड़ कर जाने से पहले वे दुनिया का चक्कर लगा आए। पटना, वाराणसी, लखनऊ, दिल्ली और फिर मणिपुर की यात्रा पर निकलने वाले थे कि शरीर ने इस बार ना कह दिया। क्रिकेट के तनाव और रोमांच ने उनकी धुकधुकी इतनी तेज़ कर दी होगी कि वो अपनी थकान और हार की हताशा को संभाल नहीं पाए। हम सब एनडीटीवी इंडिया के न्यूज़ रूम में बात कर रहे थे कि अगली सुबह प्रभाष जी सचिन के सत्रह हज़ार पूरे होने पर क्या लिखेंगे। कुछ आंसू होंगे, कुछ हंसी होगी और कुछ पागलपन। नए नए शब्द निकलेंगे और इस बार लिखेंगे तो उनकी कलम दो हज़ार शब्दों की सीमा को तोड़ चार हज़ार शब्दों तक जाएगी। शुक्रवार का जनसत्ता देख लीजिए। उसमें प्रभाष जी का नाम तक नहीं है। जिस अख़बार को बनाया वो भी उनकी मौत की ख़बर आने से पहले छप गया। तेंदुलकर की एक तस्वीर के साथ ६ नवंबर का जनसत्ता घर आ गया। उसने भी प्रभाष जी का इंतज़ार नहीं किया। इस बार प्रभाष जोशी ने अपने अख़बार की डेडलाइन की कम और अपने डेडलाइन की परवाह ज़्यादा की। आगे पढ़े - क़स्बा
प्रभाष जोशी का जाना जिस अखबार के लिए खबर नहीं
विनीत कुमार
7 नवम्बर के नवभारत टाइम्स ने प्रभाष जोशी के निधन पर एक लाइन की भी खबर छापना जरुरी नहीं समझा। इसी प्रकाशन समूह का अखबार The Times Of India ने action on pitch cut short his acerbic pen शीर्षक से तस्वीर सहित करीब 600 शब्दों में खबर छापा है। नवभारत टाइम्स डॉट कॉम के ब्लॉग कोना में पूजा प्रसाद ने कितने सीधे थे प्रभाष जोशी शीर्षक से पोस्ट लिखी है। दैनिक जागरण ने उनके लिए साइड में वमुश्किल से सौ शब्द छापे। ये दोनों देश के प्रमुख अखबारों में से है। रीडरशिप की दौड़ में रेस लगानेवाले हैं। अपनी ब्रांडिंग के लिए लाखों रुपये खर्च करते आए हैं। लेकिन आज ऐसा करते हुए जरा भी अपनी ब्रांड इमेज की चिंता नहीं की। कहने को कहा जा सकता है कि नहीं छापा तो नहीं छापा इसमें कौन-सा पहाड़ टूट गया? लेकिन सवाल है कि क्या देश की पत्रकारिता इसी तरह की किसी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद के बूते चलती रहेगी ? हिन्दी पत्रकारिता में इसी तरह की बर्बरता बनी रहेगी? आगे पढ़े गाहे-बगाहे
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