राम पुनियानी
संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने जिनेवा में हुई अपनी बैठक में इस प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श किया कि क्या जाति को नस्ल के समकक्ष मान लिया जाना चाहिए? परिषद की यह मंशा है कि जन्म और कर्म के आधार पर दुनिया के सभी देशों में होने वाले भेदभाव के विरुद्ध वैश्विक स्तर पर संघर्ष किया जाए। दुनिया के लगभग 20 करोड़ लोग इस तरह के भेदभाव के शिकार हैं। इनमें नस्लीय शुद्धता और छुआछूत जैसी धारणाओं से उद्भूत भेदभाव शामिल हैं।
इस मुद्दे पर भारत अब तक यह कहता आ रहा है कि जातिगत भेदभाव के मुद्दे का अंतरराष्ट्रीयकरण नहीं होना चाहिए। भारत का मानना है कि जाति कोई नस्ल नहीं है और जातिगत भेदभाव की समस्या भारत की आंतरिक समस्या है। अभी कुछ समय पूर्व तक नेपाल, जो कि दुनिया का एकमात्र हिन्दू राष्ट्र था, का भी इस मुद्देे पर यही दृष्टिकोण था। नेपाल में राजतंत्र की समाçप्त और प्रजातंत्र के आगाज के बाद नेपाल सरकार ने अपना मत बदल लिया। अब उसका कहना है कि जातिगत भेदभाव और नस्लवाद में कोई फर्क नहीं है और जातिगत भेदभाव को मिटाने के राष्ट्रीय प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय सहयोग और समर्थन मिलना चाहिए। भारत अभी भी इस मुद्देे पर शुतुरमुर्ग की मुद्रा में है। नेपाल दक्षिण एशिया का ऐसा पहला देश बन गया है जिसने अपने देश में प्रचलित छुआछूत की कुप्रथा की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कड़ी निंदा की है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का यह प्रस्ताव है कि संयुक्त राष्ट्र संघ और उसके विभिन्न संगठन क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जातिगत भेदभाव को समाप्त करने से स बंधित सरकारों के प्रयासों में भागीदारी करें। परिषद जाति, व्यवसाय और जन्म के आधार पर होने वाले भेदभाव को समकक्ष मानकर उन्हें मानवाधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में रखना चाहती है। यह सचमुच दुखद है कि भारत इसका विरोध कर रहा है। यह इसके बावजूद कि सन् 2006 में अपने एक वक्तव्य में प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह ने छुआछूत की तुलना रंगभेद से की थी। ऐसा लगता है कि हमारे देश के सरकारी तंत्र में कुछ तत्व इस मुद्दे पर हमारी नीतियों को गलत दिशा दे रहे हैं।
हमारे संविधान के विभिन्न प्रावधानों और अनेक कानूनों के बावजूद छुआछूत और जातिगत भेदभाव आज भी हमारे देश में कायम हैं। जातिगत भेदभाव के शिकार लोगों की बेहतरी के लिए किए जाने वाले प्रयासों का भी कुछ राजनीतिक शçक्तयां विरोध करती हैं। जाति व्यवस्था हमारे देश में कब और कैसे आई, इसके बारे में अनेक परिकल्पनाएं प्रस्तुत की जा रही हैं। इनमें से अधिकांश निहित स्वार्थी राजनीतिक ताकतों के शैतानी दिमागों की उपज हैं। ऐसा प्रचार किया जा रहा है कि मुस्लिम आक्रांताओं के आक्रमण के कारण जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई। ये आक्रांता तलवार की नोक पर स्थानीय लोगों को मुसलमान बनाना चाहते थे। जो हिन्दू अपने धर्म के प्रति वफादार थे, वे मुसलमान बनने से बचने के लिए जंगलों में भाग गए और जाति के पिरामिड में उनकी स्थिति में गिरावट आई। जो हिन्दू जंगलों में नहीं भागे परंतु जिन्होंने अपना धर्म बदलने से इनकार कर दिया, उन्हें मुसलमान राजाओं के शौचालयों को साफ करने के लिए मजबूर किया गया। इस कारण जाति व्यवस्था अस्तित्व में आई और छुआछूत भारतीय समाज का हिस्सा बन गई। ये सारी परिकल्पनाएं दरअसल सिर्फ कल्पना की उड़ानें हैं, जिनका न तो इतिहास से कोई स बंध है और न ही तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों की समझ से। जाति व्यवस्था के उदय के स बंध में कुछ अन्य सिद्धांत आर्य-द्रविड़ संघर्ष पर आधारित हैं और कुछ कालü माक्र्स के वर्ग विभाजन के सिद्धांत पर। जहां तक आर्य-द्रविड़ संघर्ष का प्रश्न है, हाल में किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि भारत में आर्यों और द्रविड़ों के बीच कोई स्पष्ट आनुवांशिक विभाजक रेखा नहीं है। भारत के सभी नागरिक आर्य और द्रविड़ नस्लों का मिश्रण हैं। जहां तक माक्र्स के वर्ग आधारित श्रम विभाजन के सिद्धांत का सवाल है, उसके बारे में अ बेडकर की टिप्पणी बहुत प्रासंगिक है। उनका कहना था कि जाति श्रम विभाजन नहीं, बल्कि श्रमिकों का विभाजन है। स्वतंत्रता के 62 साल बाद भी जाति प्रथा और छुआछूत का बने रहना शर्मनाक है। हमें इन दोनों घोर अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उन्मूलन के लिए लगातार प्रयास करने चाहिए। जाति व्यवस्था के उदय के कारण कहीं अधिक जटिल थे। अ बेडकर ने अपने लेखन में जाति प्रथा के उदय के बारे में बहुत यथार्थवादी सिद्धांत प्रस्तुत किए हैं। उनकी दो पुस्तकों क्वहू वेयर द शूद्राजं यानी शूद्र कौन थे और क्वअनटचेबल्सं यानी अछूत इस मसले पर उनके विचार प्रस्तुत करती हैं। उनकी अप्रकाशित पांडुलिपि क्वरिवोल्यूशन एंड काउंटर रिवोल्यूशन इन एंशियेंट इंडियां यानी प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति भी इस विषय पर प्रकाश डालती है। उनके अनुसार, जाति एक सामाजिक विभाजन था जिसके पीछे वैचारिक और धार्मिक कारक थे। भारत में जाति की अवधारणा ईसा पूर्व पहली सदी में भी थी। स्मरणीय है कि भारत में मुसलमान शासकों का प्रभाव 11वीं ईसवी के बाद शुरू हुआ। स्थानीय स्तर पर संगठित कबीलों का जातियों में परिवर्तित होने की प्रक्रिया बहुत धीमी थी और इसके पीछे कई कारक थे। आर्यों का आगमन और ब्राह्मणवादी विचारधारा इनमें से दो थे। जो आर्य यहां आए, उनका समाज मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित था- योद्धा, पुरोहित और व्यापारी-किसान। चौथी श्रेणी (दासं) आर्यों के भारत में आने के बाद जुड़ी। धीरे-धीरे यह लचीली व्यवस्था कठोर और जन्म आधारित बनती गई। विभिन्न कबीले अलग-अलग ऐसे समूहों में परिवर्तित हो गए जिनके सदस्य केवल आपस में विवाह करते थे। ये समूह एक निश्चित काम करने लगे। वैदिक काल वर्ण व्यवस्था का काल था। ऋग्वेद का पुरुष सूक्त हमें बताता है कि भगवान ब्रह्मा ने विराट पुरुष के शरीर से चार वर्ण बनाए। बौद्ध धर्म के जन्म के साथ वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मणवादी मूल्यों को चुनौती मिलने लगी और उनमें विश्वास कम होने लगा। इसके नतीजे में शूद्र्रों और महिलाओं की स्थिति में सुधार आया। इसके बाद शुरू हुआ मनुस्मृति का युग, जिसमें वणोZ ने जातियों का रूप ले लिया और समाज में शूद्रों और महिलाओं की हालत एक बार फिर खराब हो गई। स्वाधीनता संग्राम के साथ ही जातिगत और लैंगिक समानता की मांग उठने लगी। ये मूल्य भारतीय राष्ट्रवादी आंदोलन के अभिन्न हिस्से थे। इसके विपरीत मुस्लिम राष्ट्रवाद और हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति करने वालों को जातिगत और लैंगिक भेदभाव से कोई परेशानी नहीं थी। दोनों प्रकार की शçक्तयों का परस्पर विरोधी दृष्टिकोण बहुत साफ है।
शूद्रों की समानता के पैरोकारों ने मनुस्मृति को जलाया, जबकि धार्मिक राष्ट्रवाद के झंडाबरदार भारत के प्राचीन गौरव का गान करते रहते हैं। वे उस काल का महिमा मंडन करते हैं, जब मनुस्मृति ही कानून था। इनमें से कइयों ने तो एक कदम और आगे जाकर यह कहना शुरू कर दिया कि अलग-अलग वर्ण समाज रूपी पुरुष के अलग-अलग अंग हैं और समाज के सुचारू संचालन के लिए यह आवश्यक है कि वे अपना और केवल अपना काम करें। स्वतंत्रता के 62 साल बाद भी जाति प्रथा और छुआछूत का बना रहना शर्मनाक है। हमें इन दोनों घोर अन्यायपूर्ण प्रथाओं के उन्मूलन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर तो प्रयास करने ही चाहिए, हमें इसके लिए किए जानेवाले किसी भी अंतरराष्ट्रीय प्रयास का स्वागत करना चाहिए और उसके साथ सहयोग करना चाहिए। अपने भूतकाल से चिपके रहकर हम कहीं नहीं पहुंच पाएंगे। अपनी कमियों को स्वीकार न करने से वे दूर नहीं हो जाएंगी।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें