17 नवंबर 2009

जिसके पास खोने को कुछ नहीं बदलाव वही करेगा

ग्वालियर के बिल्हैटी गांव में 14 जनवरी 1948 को जन्मे वरिष्ठ कथाकर महेश कटारे को बीते दिनों लखनऊ में इस वर्ष का कथाक्रम सम्मान दिया गया। महेश कटारे करीब तीन दशकों से लेखन में सक्रिय हैं। उनकी प्रकाशित कृतियां हैं- समर शेष है, इतिकथा-अथ कथा, मुदाü स्थगित, पहरुआ, छछिया भर छाछ (कहानी संग्रह), महासमर का साक्षी व अंधेरे युगांत के (नाटक) और पहियों पर रात-दिन (यात्रा वृत्तांत)। महेश कटारे ग्रामीण जीवन पर लिखते ही नहीं, बल्कि उसे जीते भी हैं। उनके पूरे व्यक्तित्व में ही किसान की छवि उभरकर आती है। धोती-कुर्ता पहने, सहज स्वभाव वाले महेश जी अपने प्रशंसकों से भी हाथ जोड़कर झुकते हुए ही मिलते हैं। महेश कटारे को अब तक मध्य प्रदेश का साहित्य अकादमी पुरस्कार, सारिका द्वारा 1985 में आयोजित सर्वभाषा कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, साहित्य परिषद सम्मान, शमशेर सम्मान, वागेश्वरी सम्मान जैसे पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। कथाकार महेश कटारे से नई पीढ़ी की साथी शालिनी वाजपेयी की बातचीत

अपने रचनात्मक लेखन के लिए आप पुरस्कार को किस रूप में देखते हैं?
- प्रबुद्ध वर्ग जब लेखन को मान्यता देता है तो उसके पीछे क्या छिपा हुआ है, यह देखना होता है। पुरस्कार किसको मिले, इसका निर्णय एक पूरा निर्णायक मंडल करता है। मेरे जैसे लेखक को दिल्ली में क्या चलता है, इससे क्या लेना-देना है। कभी-कभी लगता है कि पुरस्कार किसी बेहतर व्यक्ति को मिल जाता, बहुत बार मिल भी जाता है। मैं तो खुलकर अपनी राय देता हूं कि इसको नहीं, इसको मिले।

आपकी अधिकतर कहानियों में महिलाओं को ही बदलाव की भूमिका में रखा गया है, ऐसा क्यों?
- औरत में बहुत ताकत होती है। उसमें सहन करने की क्षमता बहुत ज्यादा होती है। उनमें जब सहन करने की इतनी क्षमता है तो लड़ने की कितनी ताकत होगी। मैं अपनी मां से बहुत प्रभावित हूं। यह शायद उन्हीं का प्रभाव है।

आप तो खैर ग्रामीण कथाकार हैं लेकिन आजकल यह जो दिल्ली में रहकर लिखने का फैशन चला है, इस पर क्या कहेंगे?
- बुरा वह भी नहीं है। कम से कम लिख तो रहे हैं। कैसे भी लिखें.

समाज के बदलाव के लिए किसकी तरफ देखते हैं?
- बदलाव वही कर सकता है, जिसके पास खोने के लिए कुछ भी नहीं और पाने के लिए सारी दुनिया है। जो वर्ग झोपड़पटि्टयों से आकर पढ़-लिख गया है, उसमें वर्तमान व्यवस्था के प्रति रोष है, वह ललकारेगा। बर्तन मांजने वाली यदि कह दे कि हम बर्तन नहीं मांजेंगे तो त्राहि-त्राहि मच जाएगी। दूधवाला दूध देेना बंद कर दे फिर देखो क्या हाल होता है।

सामाजिक बदलाव में साहित्य की क्या भूमिका देखते हैं?
- साहित्य से दिमाग बदलेगा।

आप जिनके जीवन पर लिख रहे हैं, वह तो आपकी किताबें खरीद ही नहीं पाते, फिर पढ़ेंगे कैसे?
- यह षड्यंत्र चल रहा है। किताबों को एक खास वर्ग के लोगों तक पहुंचने दिया जा रहा है। जैसे महाश्ेवता देवी का बांग्ला में कोई उपन्यास खरीदिए तो वह 40-भ्0 रुपए में मिल जाएगा लेकिन वही अनूदित होने के बाद 200-300 रुपए में मिलने लगता है। यह सब प्रायोजित है। प्रकाशक बताता ही नहीं है कि कितनी किताबें बिकीं। इससे उसे लेखक को रॉयल्टी नहीं देनी पड़ेगी।

आप ज्यादातर कहानियां ही लिखते हैं, उपन्यास क्यों नहीं लिखा?
- मुझे उपन्यास में डर लगता रहता है। इसमें इतना विस्तार होता है, पता नहीं संभाल पाऊंगा कि नहीं। इसी डर से उपन्यास नहीं लिख पाता।

हिन्दी में क्या उपन्यास कम लिखे जा रहे हैं?
- उपन्यास लिखे जा रहे हैं और चर्चा भी होती है। लेकिन हां, राग दरबारी और काला पहाड़ जैसे उपन्यास नहीं लिखे जा रहे हैं।

आप किसान परिवार से हैं, वहां से लेकर आज इस पुरस्कार तक के सफर में किस तरह की चुनौतियां मिलीं?
- वही चुनौतियां, जो सभी के सामने हैं। वही समस्याएं, जो आम आदमी के सामने हैं। रोजमर्रा की जो समस्याएं हैं, वही समस्याएं।

गांवों से और लोग नहीं निकल पा रहे हैं, क्या कारण है?
- गांवों में आधारभूत सुविधाएं नहीं हैं। लालटेन के लिए तेल नहीं मिलता है। बहुतों के पास तो लालटेन भी नहीं है। चार घंटे बिजली मिलना भी मुश्किल है। सौ कहानी पढें़गे तब जाकर कहीं एक कहानी लिखने के लिए तैयार हो पाएंगे। गांवों में इंफ्रा स्ट्रक्चर नहीं है।

नामवर जी ने कहा कि प्रेमचंद का गांव शहरी दृष्टि से देखा गांव है। इस पर क्या कहेंगे?
- वह बड़े लोग हैं। वो जो कहेंगे, उसको सिद्ध भी कर देंगे। प्रेमचंद बहुत आदरणीय हैं, उनके लिए कुछ नहीं कहा जा सकता है।

आप अपने को किस कथा-पर परा से जोड़कर देखते हैं?
- व्यास, प्रेमचंद, सआदत हसन मंटो, फणीश्वर नाथ रेणु, रांगेय राघव, हरिशंकर परसाई, काशीनाथ सिंह...यही सब हैं हमारी कथा परंपरा में।

युवा कथाकारों से आपको क्या उममीदें हैं?
- युवा कथाकार अच्छा काम कर रहे हैं। उन्होंने पुरानी भाषा को तोड़ा है। नई भाषा दी है। बस उनमें जि मेदारी का अभाव है। वह उन्हें इस अपने चारों तरफ से मिली ही नहीं। जैसा माहोल मिला, उस हिसाब से अच्छा काम हो रहा है।

नया क्या लिख रहे हैं?
- एक उपन्यास पर काम कर रहे हैं।

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