27 नवंबर 2009

पूंजीवाद के निर्माण में कम्युनिस्ट भूमिका

-प्रभात पटनायक

पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में जब किसी एक राज्य में साम्यवादी दल की सरकार बन जाती है और वह राज्य सरकार पूंजीपतियों को अपने राज्य में निवेश करने का मौका देती है तो इससे यह अर्थ निकाला जाता है कि सा यवादियों ने समाजवाद से अपना नाता तोड़ लिया है। पश्चिम बंगाल में कुछ साम्यवादी नेताओं के बयान पर अखबारों में जो प्रतिक्रियाएं छपीं, उनसे यही अर्थ निकलता है। लेकिन बेहतर यह होगा कि इस सवाल पर सैद्धांतिक दृष्टि से विचार हो।
समाजवाद कायम करना साम्यवादी दल का मु य लक्ष्य रहा है। इस लक्ष्य की प्राçप्त के लिए वह निरंतर संघर्ष करता है। परंतु समाजवादी क्रांति से पहले सामाजिक क्रांति का होना जरूरी है जिसमें उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व के बजाय सामाजिक स्वामित्व हो। उत्पादन के साधनों पर जब तक निजी स्वामित्व रहेगा, तब तक राज्य का चरित्र पूंजीवादी बना रहेगा और वह निजी स्वामित्व के स्वार्थों की रक्षा करता रहेगा। राज सत्ता पर सर्वहारा के कब्जा करने में समय लगता है, तब तक सा यवादी दल चुप नहीं बैठ सकता। वह उसी पूंजीवादी व्यवस्था में ल बे समय तक काम करता है, मजदूर वर्ग को क्रांतिकारी विचारों से लैस करते हुए उसे आने वाले संघर्ष के नेतृत्व हेतु तैयार करता है। समाजवादी क्रांति की ओर तभी बढ़ा जा सकता है, जब जनवादी क्रांति या तो पूरी हो चुकी हो या पूरी होनेवाली हो। ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाए तो जनवादी क्रांति का नेतृत्व बूज्र्वाजी करती रही है। कई देशों में पूंजीवाद का विकास देर से होता है। ऐसे देशों में जनवादी क्रांति के लिए सामंतवाद और पूर्व पूंजीवादी तत्वों से समझौता कर लिया जाता है। रूस में बोल्शेविक क्रांति से पहले इसी तरह का समझौता हुआ था और बाद के दिनों में इस तरह के समझौते तीसरी दुनिया के देशों और साम्राज्यवादियों के बीच हुए हैं।
जिन देशों में जनवादी क्रांति का नेतृत्व बूज्र्वाजी के न रहने में सर्वहारा वर्ग करता है, वहां पर सामंतवाद विरोधी संघर्ष भी सर्वहारा ही करता है और इस संघर्ष में उसका मु य सहयोगी किसान होता है। सर्वहारा के नेतृत्व और किसानों के सहयोग से चलने वाली इस जनवादी क्रांति को जनता की जनवादी क्रांति कहते हैं। तीसरी दुनिया केसा यवादियों की कार्यसूची में सबसे पहला और तात्कालिक कार्य जनता की जनवादी क्रांति है। संघर्ष को आगे बढ़ाने में वह जनवादी क्रांति से अभिन्न रूप से जुड़ी होती है और इसके सामने लक्ष्य होता है कि सारे बंधनों को तोड़ते हुए पूंजीवाद के विकास के लिए सबसे अधिक मजबूत और व्यापक आधार वाले हालात तैयार करना। पूंजीवादी विकास के लिए सर्वहारा जो तरीके अपनाता है, वह पूंजीवादी नेतृत्व से भिन्न होते हैं। जनता की जनवादी क्रांति का नेतृत्व करने और पूंजीवादी विकास के लिए स्वस्थ और व्यापक आधार तैयार करने के बाद सर्वहारा वर्ग चुपचाप नहीं बैठता, वह अपना ऐतिहासिक दायित्व निभाते हुए जनता की जनवादी क्रांति को समाजवादी क्रांति की ओर अग्रसर करने के लिए कटिबद्ध हो जाता है। इस संदर्भ में दो महत्वपूर्ण सवालों पर विचार करना जरूरी है- पहला, जनता की जनवादी क्रांति जिस पूंजीवादी विकास के लिए हालात तैयार करती है, उसकी प्रकृति अन्य तरीकों से होने वाले पूंजीवादी विकास की प्रकृति से भिन्न होती है। सभी पूंजीवादी विकास एक जैसे नहीं होते। औपनिवेशिक भारत में जो आर्थिक विकास पूंजीवादी था। स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले लोग जैसा आर्थिक विकास चाहते थे, वह भी पूंजीवादी था। आजादी के बाद नेहरू युग में जो आर्थिक विकास हुआ, वह भी पूंजीवादी विकास था। आज का नवउदारवाद जिस आर्थिक नीति को बढ़ावा दे रहा है, वह भी पूंजीवादी है और सर्वहारा के नेतृत्व में जनता की जनवादी क्रांति जिस विकास के लिए हालात तैयार करती है, वह भी पूंजीवादी विकास है। जनता की जनवादी क्रांति जिस पूंजीवादी विकास के लिए काम करती है, उसका स्वरूप अन्य पूंजीवादी विकास के स्वरूप से भिन्न होता है। सर्वहारा के नेतृत्व में जिस पूंजीवादी विकास के हालात तैयार होते हैं, वे ठोस और व्यापक आधार वाले होते हैं। यह एक ऐसा पूंजीवादी विकास होता है, जिससे बुनियादी भूमि सुधार और व्यापक जनता की सुविधा के लिए बाजार के विस्तार की सुविधाएं जुड़ी होती हैं।
दूसरा सवाल है कि सर्वहारा के नेतृत्व में संघर्ष के द्वारा जब ठोस और व्यापक आधार वाले पूंजीवादी विकास के हालात तैयार हो जाते हैं तो सर्वहारा निश्चिंत होकर चुपचाप नहीं बैठ जाता, बल्कि वह अपने संघर्ष को जारी रखते हुए समाजवाद तक पहुंचाता है। बहरहाल, हमारे जैसे मुल्क में पूंजीवाद के नेतृत्व में जनवादी क्रांति का सफलतापूर्वक स पन्न होना आसान नहीं है। अतज् यहां सर्वहारा के नेतृत्व में ही जनवादी क्रांति हो सकती है, जो समाजवादी क्रांति से अभिन्न रूप से जुड़ती है।
हमारे देश की साम्यवादी पाटिüयों को अभी इसी पूंजीवादी व्यवस्था में रहते हुए काम करना है और जनता की जनवादी क्रांति के लिए परिस्थितियां तैयार करना है। सरकार बनाकर काम करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी के लक्ष्य में फर्क नहीं आता। हालांकि सरकार में काम करने के तरीके और उससे मिलने वाले अनुभव अन्य क्षेत्रों से भिन्न किस्म के होते हैं। संविधान के विशेष नियमों और कानूनी दायरे में सरकार चलाते हुए सा यवादी पार्टी का लक्ष्य होना चाहिए कि वह वर्ग शçक्तयों के आपसी स बंधों को बदल डाले और विरोधी रुझानों से संघर्ष करते हुए जनता की जनवादी क्रांति के हालात तैयार करे। राज्य सरकार का नेतृत्व करते हुए कम्युनिस्ट पार्टी को चाहिए कि उत्पादक शçक्तयों के विकास के लिए सही नीति अपनाए। अन्य राज्यों के मुकाबले कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व की सरकारों वाले राज्य में उत्पादक शçक्तयों के विकास में ठहराव आ गया है। इस ठहराव से रोजगार के अवसरों में कमी आई है। इससे क युनिस्टों को अपने लक्ष्य तक पहुंचने में बाधा आ सकती है। लोगों का उनसे अलगाव हो सकता है। इसीलिए पूंजीपति जानबूझ कर इन राज्यों में निवेश नहीं करते। रोजगार के अवसर पैदा करने के लिए भूमि का उपयोग जब वैकçल्पक व्यवसाय के लिए किया जाता है तो वहां पहले काबिज लोगों पर प्रतिकूल असर पड़ता है। ऐसे कामों से भी क युनिस्टों के संघर्ष में प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।
जनता की जनवादी क्रांति और उसकेलिए होने वाले संघर्ष के उलझन भरे हालात की सही समझ के अभाव में प्रायज् क युनिस्ट पार्टी के समालोचक गलती करते हैं। वे कम्युनिस्ट पार्टी और उनके द्वारा शामिल राज्य सरकार में फर्क नहीं करते। पार्टी और सरकार को एक साथ नहीं रखा जा सकता। पार्टी विचारों और सिद्धांतों की वाहिका है, जबकि पार्टी नेतृत्व में चलने वाली सरकार को इस पूंजीवादी व्यवस्था के संविधान में बंधकर दिन-प्रतिदिन के प्रशासनिक कायोZ से जुड़ना होता है। पार्टी क्रांति के प्रति समर्पित होकर काम करती है तो उसे अनेक सामाजिक कामों से जुड़ना पड़ता है। उनमें से एक काम सरकार चलाने का भी होता है। संविधान की शतोZ में बंधकर जब सरकारी काम होते हैं तो वे पार्टी की सैद्धांतिक कसौटी से भिन्न हो जाते हैं। सरकारी काम दिन-प्रतिदिन की जरूरतों को ध्यान में रखकर किए जाते हैं, उनका मूल्यांकन पूरी तरह से पार्टी की सैद्धांतिक स्थिति से नहीं किया जा सकता। भारत में कम्युनिस्ट पाटिüयों के नेतृत्व में चलने वाली सरकारों की ठोस नीतियों के बारे में विचार-भिन्नता हो सकती है, इस विषय पर अलग से विचार किया जा सकता है। इन विभिन्न विचारों का मूल्यांकन सैद्धांतिक समझ के संदर्भ में करना जरूरी है।

(लेखक वि यात अर्थशास्त्री और जेएनयू में प्रोफेसर हैं)

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