27 नवंबर 2009

कहां गयी हेमन्त करकरे की बुलेटप्रूफ जैकेट !

क्या कविता करकरे कभी जान पाएंगी उनके पति कैसे मरें ?

26/11 पर विशेष

>-सुभाष गाताडे

पुलिस महकमे के लोग अपने ही वरिष्ठ सहकर्मी की किसी अहम कार्रवाई के दौरान मौत के प्रति कितने असम्वेदनशील और असम्पृक्त हो सकते हैं, इसे जानना हो तो महाराष्ट्र आतंकवाद विरोधी दस्ते के प्रमुख हेमन्त करकरे की पिछले साल बम्बई पर हुए आतंकी हमले के दौरान हुई मौत के प्रसंग पर नज़र डाली जा सकती है। कार्रवाई के लिए जाते हुए हेमन्त करकरे द्वारा पहनी जा रही बुलेटप्रूफ जाकिट कइयों ने टीवी पर देखी थी, लेकिन यह अब मालूम चल रहा है कि जब उनकी लाश अस्पताल लायी गयी तब शरीर से जैकेट गायब हो गयी थी।
उनकी पत्नी कविता करकरे ने अपने पति के शरीर से जैकेट के लापता होने के कारणों को जानना चाहा था, लेकिन उन्हें जवाब नहीं मिला था। अन्ततः उन्हें सूचना के अधिकार को आजमाना पड़ा तभी उन्हें आधिकारिक तौर पर बताया गया कि जैकेट गायब है। अब जबकि इस मसले पर काफी शोरगुल हुआ तो अपनी लाज बचाने के लिए महाराष्ट्र सरकार ने इस बात की जांच के आदेश दिए हैं कि आखिर जैकेट का क्या हुआ ?
अगर सरकार सच्चाई जानने के प्रति गम्भीर है तो वह आसानी से पता कर सकती है, उन लोगों से जो करकरे के मृत शरीर को अस्पताल पहुंचाए थे ! बहरहाल बुलेटप्रूफ जैकेट के गायब होने की घटना ने एक सामाजिक कार्यकर्ता द्वारा बम्बई की उच्च अदालत में डाली जनहितयाचिका की अहमियत और बढ़ जाती है, जिसमें यह कहा गया है कि बुलेटप्रूफ जाकिट की खरीदारी में अनियमितताएं बरती गयी थीं, यहां तक कि उसी फर्म से दुबारा जाकिट मंगवाये गये जिन्हें पहले खारिज किया गया था। इतनाही नहीं डिफेन्स रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट आर्गनायजेशन ने जाकिट की खरीदारी के मानक तय किए थे, वह भी डिजाइन के अनुरूप नहीं हैं। आर्गनायजेशन के अनुरूप जाकिट को गर्दन के नीचे का पूरा हिस्सा कवर करना चाहिए जबकि चित्रों में दिख रही जाकिट में हेमन्त करकरे के हाथ खुले दिख रहे हैं। गौरतलब है कि बुलेटप्रूफ जैकेट की खरीदारी की फाइल भी गायब है, जो इस बात पर रौशनी डालती कि इनकी खरीदारी में कितनी सावधानी बरती गयी थी या नहीं ! (टाईम्स आफ इण्डिया,13 नवम्बर 2009)
प्रश्न उठता है कि क्या सरकारी जांच इसी बात तक सीमित रहेगी कि जैकेट किसने गायब किया क्यों गायब किया या इस बात की भी पड़ताल करेगी कि क्या जाकिट वाकई कमजोर क्वालिटी का था जो पिस्तौल की गोली को बरदाश्त नहीं कर सका। या वह इस बात की भी जांच करेगी कि हेमन्त करकरे की मौत कैसे हुई क्या वह सीने में लगी गोलियों के चलते मरे या उन्हें गर्दन पर गोली लगी। और क्या यह भी जानने की कोशिश की जाएगी कि आतंकवादी हमले का मुकाबला करने के लिए जा रहे करकरे तथा अन्य अधिकारी बैकअप वैन के लिए चालीस मिनट तक इन्तज़ार करते रहे मगर कोई वैन क्यों नहीं आयी। या वह इस बात को लेकर खड़े विवाद को निपटाएगी कि करकरे कैसे मरे। उनकी मौत पर कहा गया था कि उनके शरीर पर पांच गोलियां लगी हैं, जबकि पिछले दिनों एक पत्राकार सम्मेलन में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्राी ने यह स्पष्ट किया कि गर्दन पर लगी गोलियों से उनकी मृत्यु हुई।
निश्चित ही जो भी हेमन्त करकरे जैसे कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी की मौत की बारीकी से छानबीन करेगा, उसके सामने ऐसे तमाम सवाल खड़े हो जाएंगे और वह सोचने के लिए विवश होगा कि आखिर किन वजहों से कविता करकरे ने 26/11 की याद में आयोजित एक सभा में पिछले दिनों सरकार एवम पुलिस विभाग को जम कर लताड़ा। (‘‘करकरेज् वाईफ स्लैम्स गवर्मेण्ट एण्ड काॅप्स’’ , मेल टुडे, नवम्बर 18, 2009) पूर्व पुलिस उपायुक्त वाई पी सिंह की पहल पर यह एक अलग तरह का कार्यक्रम आयोजित हुआ था। सुश्री कविता करकरे ने बताया कि अभीभी उन्हें इस बात का ठोस जवाब मिलना बाकी है कि उनके पति का देहान्त कैसे हुआ। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों से इस सम्बन्ध में की गयी मुलाकातों का ब्यौरा देते हुए उन्होंने यह भी बताया कि मुझे कहा गया है कि वे कैसे मरें यह मैं कभीभी जान नहीं पाउंगी।
यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि करकरे के साथ मारे गए अन्य वरिष्ठ अधिकारी अशोक कामटे की पत्नी विनीता की भी यही शिकायत रही है कि जब उन्होंने सूचना के अधिकार के तहत घटना के वक्त के वायरलेस सन्देशों के आदानप्रदान का विवरण चाहा तो उन्हें भी ठीक से जानकारी नहीं दी गयी। सुश्री विनीता का भी साफ कहना है कि पुलिस ने जो रेकार्ड रखे हैं उनमें विसंगतियां हैं जिससे यह सन्देह पैदा होता है कि कहीं उनसे छेड़छाड़ तो नहीं की गयी है।
सभी जानते हैं कि अपने जिन्दगी के अन्तिम छह माह में हेमन्त करकरे ऐसे बम विस्फोटों की जांच में लगे थे, जिनमें ऐसे संगठनों की संलिप्तता दिखाई दे रही थी जिसने हिन्दुत्व के आतंकवाद की अब तक नामालूम सी लगनेवाली परिघटना को उजागर किया था। जून माह में ठाणे के रंगायतन थिएटर, या पनवेल आदि स्थानों पर हुए बम विस्फोटों की जांच में उन्हें गोवा, महाराष्ट्र में अपने नेटवर्क फैलायी आध्यात्मिक कही जानेवाली ‘सनातन संस्था’ एवम ‘हिन्दु जनजागृति समिति’ के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता एवम सक्रियता दिखायी दी थी और इस सम्बन्ध में उन्होंने गिरतारियां भी की थीं। इन संस्थाओं के कार्यकलापों की जांच करते हुए उन्होंने उन पर पाबन्दी लगाने की सरकार से सिफारिश की थी।
उसके बाद सितम्बर माह में जब मालेगांव के भिक्खु चैक पर ‘सिमी’ के बन्द पड़े दतर के सामने रखी गयी स्कूटर में रखे गए विस्फोटों के धमाके में पांच लोगों की मौत हुई, तब इस मामले की तह में जाकर भी उन्होंने ‘अभिनव भारत’ नामक संगठन के कार्यकर्ताओं की संलिप्तता उजागर की थी जिसमें साध्वी प्रज्ञा, दयानन्द जैसे गेरूआधारी भी थे और लेटनेन्ट कर्नल पुरोहित जैसे सेनाधिकारियों की भी सक्रियता दिखाई दी थी। मालूम हो कि मालेगांव बम काण्ड की जांच का काम जैसे जैसे आगे बढ़ा तो उसके सूत्रा हिन्दुत्ववादी संगठनों के उन तमाम अग्रणियों तक भी पहुंचते दिखे, जो समाज में प्रतिष्ठित समझे जाते हैं। महाराष्ट्र के आतंकवाद विरोधी दस्ते के सामने इस बात के प्रमाण भी पहुंचे कि सेना में अपने नेटवर्क को फैलाने में मुब्तिला पुरोहित ने बम्बई के एक होटल में इन संगठनों के एक बहुचर्चित नेता से भी मुलाकात की थी। इतना ही नहीं इस काण्ड के जांच के सूत्रा उन बम काण्डों तक भी पहुंचते दिखे जिनमें विभिन्न कारणों से ठीक से जांच नहीं की गयी थी - जैसे अप्रैल 2006 का नांदेड बम काण्ड फरवरी 2007 में उसी शहर में हुआ दूसरा काण्ड, उसके पहले परभनी, जालना आदि नगरों में हुए बम विस्फोट।
यह कहा जा सकता है कि सभी आतंकी घटनाओं को अल्पसंख्यक समुदाय से जोड़ने का जो सहजबोध हमारे समाज में 9/11 के बाद मजबूत हुआ था, उस पर इस जांच ने प्रश्नचिन्ह खड़े किए थे। मानवाधिकार संगठनों, सेक्युलर तंजीमों द्वारा बार बार आतंकवाद को किसी समुदायविशेष के साथ जोड़ने से बचने की जो अपील की जा रही थी, वह अब अधिक प्रासंगिक मालूम पड़ रही थी।
यह एक अहम तथ्य है कि उनकी इस जांच के चलते ऐसे तमाम संगठन, लीडरान काफी खफ़ा थे, जिनकी समूची राजनीति किन्हीें समुदायविशेष के इर्दगिर्द केन्द्रित होती है। मालेगांव बम काण्ड के आरोपियों का समर्थन करने की उन्होंने खुल कर घोषणा की थी। शिवसेना के मुखपत्रा ‘सामना’ तथा अन्य हिन्दुत्ववादी संगठनों की तरफ से करकरे के खिलाफ काफी जहर उगला जा रहा था। 27 नवम्बर को इन विभिन्न संगठनों ने बम्बई बन्द का आवाहन भी किया था ताकि ‘मुसलमानों के तुष्टीकरण के लिए चलायी जा रही इस मुहिम’ की मुखालिफत की जा सके। यह अलग बात है कि 26 नवम्बर की रात को ही हेमन्त करकरे मार दिए गए। और रातोंरात करकरे उनके लिए ‘शहीद’ हो गए।
इस बात में कोई दोराय नहीं है कि अपने अन्तिम दिनों में हेमन्त करकरे जबरदस्त दबाव में थे। पत्राकारों या अन्य आत्मीयों से बात करते हुए उन्होंने बार-बार इस बात का इजहार किया था। (डीएनए, आईएएनएस, सण्डे, नवम्बर 30, 2008, 15ः19 ) उनकी मृत्यु के अगले दिन लिखते हुए इण्डियन एक्स्प्रेस के पत्राकार ने भी इस बात की ताईद की थी। (करकरेज् रिस्पाॅन्स टू ए डेथ थ्रेट: ए ‘स्माइली’) ‘मैं यह समझ नहीं पा रहा हूं कि आखिर यह मामला इतना राजनीतिक क्यांे हुआ है ? जबरदस्त दबाव हैं और मैं यही सोच रहा हूं कि इस मामले को इस समूची राजनीति से कैसे अलग करूं’।
करकरे की मौत के महज छत्तीस घण्टे पहले उन्हें मिली मौत की धमकी की भी कई चैनलों ने चर्चा की थी। पुणे से फोन करनेवाले उस अनाम व्यक्ति ने बताया था कि अगले दो-तीन दिन में उन्हें खतम किया जाएगा। यह बात रेखांकित करनेवाली है कि ऐसा शख्स - जो चन्द अहम काण्डों की ततीश में लगा था, जिसे मौत की धमकी मिल रही थी - जब आतंकी हमले के बाद खुद मोर्चा सम्हालने के लिए निकला तब उसे बैकअप वैन भी नहीं मिली। मुम्बई पुलिस के इन तीन वरिष्ठ अधिकारियों को अकेले ही आगे निकलना पड़ा।
हेमन्त करकरे की गायब बुलेटप्रूफ जैकेट, जैकेट की खरीदारी का विवरण देती फाइल की गुमशुदगी, इन अधिकारियों की रात की वह अकेली यात्रा, घटना के बाद के अन्तर्विरोधी रिपोर्ट, हेमन्त करकरे पर पड़ रहा जबरदस्त दबाव, उनकी मौत के असली कारणों का आज भी पता न चल पाना - आदि विभिन्न पहलू करकरे की मौत के विवादों को नयी मजबूती देती है।
इस सन्दर्भ में क्या यह जरूरी नहीं हो जाता है कि 26/11 के आतंकी हमलों से हेमन्त करकरे की मौत की जांच को अलग किया जाए और एक अलग जांच आयोग बनाया जाए। ऐसा नहीं है कि पहली दफा यह मांग उठ रही है। बम्बई के रिटायर्ड कर्मियों की एसोसिएशन पहले ही इस मांग को कर चुकी है। ( पुढारी, कोल्हापुर, 17 दिसम्बर 2008) इस सम्बन्ध में बम्बई उच्च अदालत में एक जनहित याचिका भी दायर की गयी थी। (पुढारी, कोल्हापुर, 19 दिसम्बर 2008)।
जाहिर है जब तक ऐसी निष्पक्ष जांच नहीं होती तब तक घटना के ‘आधिकारिक संस्करण’ पर लोगों का सन्देह बना रहेगा, लोगों को यही लगेगा कि आतंकी हमले का फायदा उठाते हुए उन लोगों ने करकरे को मार डाला, जो उनकी कर्तव्यनिष्ठा से क्षुब्ध थे।

सुभाष गाताडे वरिष्ट पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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