राम पुनियानी
जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द ने हाल ही में पारित एक प्रस्ताव में मुसलमानों से यह कहा है कि वे वंदे मातरम् न गाएं. इसका कारण यह बताया गया है कि इस राष्ट्रगीत के कुछ अंतरे इस्लाम के सिद्धांतों के खिलाफ हैं. इसी तरह का फतवा कुछ साल पहिले दारूल उलूम, देवबन्द ने भी जारी किया था. उस समय भी इस पर खासा विवाद हुआ था. हालांकि ये दोनों संस्थाएं यह फतवा भी जारी कर चुकी हैं कि हिंसा और आतंकवाद, इस्लामिक मूल्यों के खिलाफ हैं.
वंदे मातरम् संबंधी प्रस्ताव के पारित होते ही देश में फिर से बहस शुरु हो गयी है. राष्ट्रवाद के स्वनियुक्त पहरेदारों- भाजपा और संघ ने प्रस्ताव को राष्ट्रविरोधी घोषित कर दिया. संघ के मुखिया मोहन भागवत ने कहा कि वंदे मातरम् कहना होगा. इससे पहिले, संघ परिवार के कई सदस्यों, जिनमें शिवसेना भी शामिल थी, ने यह नारा बुलंद किया था कि ''इस देश में रहना है तो वंदेमातरम् कहना होगा.''
इस विवाद में एक बीच का रास्ता है. टेलीविजन पर हुई बहसों में अधिकांश मुस्लिम प्रतिभागियों ने कहा कि जमायत का प्रस्ताव उन्हें स्वीकार्य नहीं है और वह महत्वहीन है क्योंकि भारतीय संविधान ने इस मामले को अंतिम रूप से तय कर दिया है. गाने के पहले दो अंतरे, जो कि हिन्दू धार्मिक प्रतीकों से मुक्त हैं, को गाया जाना है.
कई टिप्पणीकारों का यह भी कहना है कि किसी भी नागरिक को किसी गीत विशेष को गाने के लिए मजबूर करना, उसकी धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन है और यह धार्मिक स्वतंत्रता भी संविधान की ही देन है.
इस तरह, इस मामले में तीन तरह के विचार हैं. पहली श्रेणी कट्टरपंथी, दकियानूसी मुसलमानों की है जो वंदे मातरम् गाये जाने के धुर विरोधी हैं. दूसरी श्रेणी में वे हैं जो वंदे मातरम् गाने या न गाने को विवाद का विषय नहीं बनाना चाहते. तीसरी श्रेणी के अधिकांश मुसलमानों का यह कहना है कि उन्हें वंदे मातरम् गाने में कोई आपत्ति नहीं है और वे उसे गाएंगे.
दूसरे छोर पर है आरएसएस का डरावना फतवा. संघ, हाथ में डंडा लेकर सबसे वंदे मातरम् गवाना चाहता है.
इस गाने का जटिल इतिहास है. इसे बंकिमचन्द चटर्जी ने लिखा था और बाद में यह उनके उपन्यास ''आनंद मठÞ का हिस्सा बन गया. यह उपन्यास निश्चित तौर पर मुस्लिम- विरोधी है.
स्वतंत्रता के पहले वंदे मातरम् समाज के एक हिस्से में लोकप्रिय था परन्तु मुस्लिम लीग को तब भी इस पर सख्त आपत्ति थी क्योंकि इसमें भारत की तुलना देवी दुर्गा से की गई है. इस्लाम एकेश्वरवादी धर्म है और वह अल्लाह के अलावा किसी को ईश्वर नहीं मानता. अन्य एकेश्वरवादी धर्मों को मानने वालों को भी इस गाने पर आपत्ति थी.
सन् 1937 में ऑल इंडिया कांग्रेंस कमेटी की ''सांग कमेटी'' ने जन-गण-मन को राष्ट्रगान के रूप में चुना और वंदे मातरम् के पहिले दो अंतरों को राष्ट्रगीत का दर्जा दिया. इस समिति के सदस्यों में पंडित जवाहरलाल नेहरू व मौलाना अबुल कलाम आजाद शामिल थे.
गीतों का यह विवाद सुप्रीम कोर्ट भी पहुंचा. ''जहनोवॉस विटनेसिस'' नामक पंथ को मानने वाले केरल के स्कूली छात्र-छात्राओं ने यह कहकर जन-गण-मन गाने से इंकार कर दिया था कि उनका धर्म इसकी इजाजत नहीं देता. स्कूल ने इन विद्यार्थियों को निष्कासित कर दिया. मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि कोई अदालत यह निर्णय नहीं कर सकती कि कोई धार्मिक विश्वास सही है या गलत. अदालत केवल इस बात पर विचार कर सकती है कि 1. संबंधित समुदाय के अधिकांश सदस्य वास्तव में और पूरी श्रध्दा से उक्त विश्वास रखते हैं या नहीं और, 2. वह विश्वास सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के खिलाफ है या नहीं.
सुप्रीम कोर्ट ने विद्यार्थियों के निष्कासन को इस आधार पर अवैध ठहराया कि वह संविधान के अनुच्छेद 25 के तहत सभी नागरिकों को दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ था. न्यायमूर्ति चिन्नपा रेड्डी द्वारा दिए गए इस निर्णय की व्याख्या करते हुए जाने-माने कानूनविद् सोली सोरबजी ने कहा कि, ''हमारी परंपरा हमें सहिष्णुता सिखाती है, हमारा दर्शन हमें सहिष्णु बनने की प्रेरणा देता है, हमारा संविधान सहिष्णु है. आईए, हम इस सहिष्णुता को बनाए रखें.''
कानूनी स्थिति यह है कि जहां संविधान वंदे मातरम् को राष्ट्रगीत का दर्जा देता है, वहीं वह सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतंत्रता भी देता है और सुप्रीम कोर्ट ने अपने कई निर्णयों में यह साफ किया है कि किसी गाने का गाया जाना अनिवार्य नहीं किया जा सकता.
यह विवाद सन् 2006 से चल रहा है, जब यूपीए सरकार ने इस गाने को स्कूलों में गाए जाने का आदेश दिया था. दिलचस्प बात यह है कि शिरोमणि गुरूद्वारा प्रबधंक कमेटी ने भी सिक्खों से वंदे मातरम् न गाने को कहा था परंतु अधिकांश सिक्खों ने कमेटी की एक न सुनी और वंदे मातरम् गाना जारी रखा.
वंदे मातरम् के सबसे मर्मस्पर्शी प्रस्तुतिकरणों में से एक जाने-माने संगीतकार ए. आर. रहमान का है. राष्ट्रद्रोही जैसे लेबिल बिना पर्याप्त आधार के किसी पर भी चस्पा कर देना अनुचित और अन्यायपूर्ण है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जमायत-ए-उलेमा-ए-हिन्द सांझा भारतीय संस्कृति और राष्ट्रवाद की पक्की समर्थक है. हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि मुसलमानों में भी कई मत हैं. मौलाना अबुल कलाम आजाद, मौलाना हुसैन अहमद मदनी व कई अन्य मुस्लिम धर्मशास्त्री, वंदे मातरम् के पहले दो अंतरों को गाए जाने के पक्षधर थे.
एक प्रजातांत्रिक समाज में मतभेदों को किस तरह सुलझाया जाना चाहिए? डॉ. अम्बेडकर का कहना था कि प्रजातंत्र में अल्पसंख्यकों को आहिस्ता-आहिस्ता अपनी अलग ''अल्पसंख्यक पहिचान'' से मुक्त होना चाहिए और बहुसंख्यकों को ऐसी परिस्थितियां निर्मित नहीं करनी चाहिए, जिसमें अल्पसंख्यक स्वयं को असुरक्षित महसूस करने लगें और अपनी अल्पसंख्यक पहिचान के खोल में घुस जायें.
यह साफ है कि हम एक ऐसा वातावरण बनाने में, जिसमें अल्पसंख्यकों को सुरक्षा और समानता मिले; जितने सफल होंगे, अल्पसंख्यकों के इस तरह के फतवों को नजरअंदाज करने की संभावना उतनी ही बढ़ेगी. हमने सिक्खों के मामले में यह देखा है कि वे एसजीपीसी के अनेक आदेशों को दरकिनार करते आए हैं.
अल्पसंख्यकों को या तो बहुसंख्यकों के स्वनियुक्त प्रतिनिधियों की इच्छाओं के आगे झुकने के लिए मजबूर किया जा सकता है या ऐसी परिस्थितियां बनाई जा सकती हैं जिसमें अल्पसंख्यक स्वयं को इतना सुरक्षित और आश्वस्त महसूस करें कि वे इस तरह के आदेशों का अपनी मर्जी से उल्लघंन करें.
साभार रविवार डोट कॉम
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