23 जनवरी 2010

“वे पूछते हैं माओवादियों का पता और बुरी तरह पीटते हैं”

कृपाशंकर चौबे

राजसत्ता यदि दमन और अत्याचार पर उतर आये, तो वह क्या नहीं कर सकती? वह अपने ही नागरिकों का जीवन दूभर कर सकती है, जैसा कि उसने लालगढ़ में सात महीने से कर रखा है। पश्चिम बंगाल और केंद्र सरकार की सशस्त्र पुलिस वाहिनी ने पश्चिमी मेदिनीपुर जनपद के लालगढ़ अंचल को पिछले सात महीने से दमन की प्रयोगशाला बना रखा है। इस दौरान राज्य व केंद्र की सशस्त्र पुलिस वाहिनी माओवादियों के किसी बड़े कैडर को तो स्पर्श नहीं कर पायी, पर हां, माओवादियों की तलाशी के नाम पर वह निरीह व निर्दोष आदिवासी बच्चों और महिलाओं को अपने अत्याचारों से आक्रांत और आतंकित जरूर किये हुए है। सशस्त्र पुलिस वाहिनी द्वारा लालगढ़ के आदिवासी बहुल गांवों में माओवादियों का पता नहीं बताये जाने पर ग्रामीणों की नाहक पिटाई, गिरफ्तारी, लूट-पाट, तोड़-फोड़ और यहां तक कि घरों में आग लगा दिये जाने की घटनाएं अब आम हो गयी हैं। इन घटनाओं के विरोध में लालगढ़ में लोकतांत्रिक तरीके से चल रहे आंदोलनों को कुचलने के लिए भी सशस्त्र पुलिस वाहिनी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रख रही है।

कोबरा समेत सशस्त्र पुलिस वाहिनी द्वारा माओवादी होने के संदेह में पकड़े गये निरीह आदिवासियों को छुड़ाने के लिए पिछले दिनों पांच हजार महिलाओं ने लालगढ़ के शीलापाड़ा कैंप का घेराव किया तो उन पर निर्मम तरीके से लाठीचार्ज किया गया और आंसू गैस के गोले छोड़े गये। इसी तरह माध्यमिक की टेस्ट परीक्षा देने जा रहे झारग्राम विकास भारती हाईस्कूल के तीन छात्रों – ललित महतो, स्वदेश महतो और शांतनु महतो को जोयलभांगा गांव के पास सशस्त्र पुलिस वाहिनी ने रोका और उनसे माओवादियों का पता पूछा। तीनों परीक्षार्थियों ने कहा, ”हमें नहीं पता।” इससे गुस्साये सुरक्षा बलों ने तलाशी की आड़ में तीनों किशोरों का शर्ट-पैंट खुलवाया। पूरी तरह नंगा कर अत्याचार किया। इस घटना के विरोध में झारग्राम विकास भारती हाईस्कूल के विद्यार्थियों ने स्कूल के पास सड़क जाम आंदोलन शुरू किया। छात्रों के उस लोकतांत्रिक आंदोलन को भी सशस्त्र वाहिनी ने लाठी-गोली का भय दिखाकर खत्म कराया।

लाठी-गोली और नाहक गिरफ्तारी का खतरा लालगढ़ और आस-पास के निवासियों के सामने लगातार खड़ा है। माओवादी होने के संदेह में तीस निर्दोष आदिवासियों को पिछले दिनों यूं ही पकड़ लिया गया और उन पर अकथ्य अत्याचार किया गया। बाद में सबूत के अभाव में उन्हें छोड़ दिया गया। इसी तरह माओवादी होने के संदेह में सुलेखा महतो को भी गिरफ्तार किया गया था। अब अदालत ने उसे निर्दोष करार देकर रिहा कराया है। रिहा होकर 18 साल की सुलेखा घर तो पहुंच गयी लेकिन उसका जो यातनामय समय महीनों कारागार में बीता, उसका हिसाब कौन देगा? ये घटनाएं बानगीभर हैं। सरकारी जुल्म की दास्तान लालगढ़ के सामने प्रतिदिन सामने आ रही हैं। इन दास्तानों को देख नवारुण भट्टाचार्य की यह कविता अनायास याद आती है,

बुरा वक्त कभी अकेले नहीं आता
उसके संग संग आती है पुलिस
उसके बूटों का रंग काला है
बुरा वक्त आने पर
हंसी पोंछ देनी पड़ती है रूमाल से।


लालगढ़ की हंसी सुरक्षा बलों ने पोंछ डाली है। स्कूलों तक में छात्रों का कोलाहल अब सुनाई नहीं पड़ता। लालगढ़ इलाके के बाइस स्कूलों को छह महीने तक सशस्त्र वाहिनी ने अपने कब्जे में कर वहां अपने शिविर खोले रखे, इसलिए वहां पढ़ाई पूरी तरह ठप रही। स्कूल बंद रहने से सैकड़ों माध्यमिक परीक्षार्थियों का भविष्य अंधकार में रहा। हजारों छात्रों को शिक्षा के मौलिक अधिकार से वंचित रखा गया। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा? मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने दो-दो बार एलान किया था कि लालगढ़ अंचल के स्कूलों को पखवारेभर में सुरक्षा बल खाली कर देंगे। पर घोषणा के मुताबिक स्कूलों से सुरक्षा बलों का शिविर नहीं हटाया गया। जो बुद्धदेव भट्टाचार्य अपनी घोषणा को अमली जामा नहीं पहना सके, उनकी सरकार पर आम नागरिक कैसे भरोसा करेगा? गत बत्तीस वर्षों के वाम शासन में हर तरह की वंचना के शिकार रहे आदिवासी यदि वाम शासन की तुलना में माओवादियों पर ज्यादा भरोसा कर रहे हैं तो इसमें उनका दोष कहां है?

मुख्यमंत्री के झूठे आश्वासन को देखते हुए मेदिनीपुर भूमिज कल्याण समिति ने लालगढ़ अंचल के स्कूलों से सुरक्षा बलों की छावनी हटवाने के लिए कोलकाता हाईकोर्ट में याचिका दायर की। उस पर सुनवाई करते हुए कोलकाता हाईकोर्ट ने साफ शब्दों में कहा कि स्कूलों पर कब्जा कर वहां सुरक्षा बलों का शिविर स्थापित किया जाना गैर कानूनी है। अदालत ने तीस दिसंबर तक सभी स्कूलों को खाली कराने का भी निर्देश दिया, तब जाकर स्कूल खाली कराये गये। सवाल है कि जो वाममोर्चा सरकार स्कूलों में सुरक्षा बलों की छावनी बना कर खुद गैर-कानूनी काम करती है, कानून का पालन करने का आश्वासन देकर भी उसे तोड़ती है, उससे किस दायित्व-बोध की उम्मीद की जाए? गत जून महीने में सशस्त्र पुलिस वाहिनी का माओवादी दमन अभियान शुरू करने के साथ ही राज्य सरकार ने उस अंचल की दरिद्रता दूर करने के लिए तत्काल कदम उठाने का एलान किया था। कई उच्चाधिकारी लालगढ़ गये थे। कई योजनाएं बनीं। सात माह हो गये, उन्हें क्रियान्वित किये जाने की बात तो दूर, पहले से चल रही विकास योजनाएं भी वहां ठप पड़ी हुई हैं। लालगढ़ की अठारह ग्राम पंचायतों में महीनों से ताला लटक रहा है। लालगढ़, बेलपहाड़ी, गोयालतोड़, शालबनी और मेदिनीपुर सदर ब्लाक स्थित पंचायत दफ्तरों के बंद चलने से केंद्र सरकार की परियोजनाएं भी ठप पड़ गयी हैं। पंचायतों को बंद रखकर, सुविधाओं से वंचित कर क्या आदिवासियों का मनोबल तोड़ा नहीं जा रहा है?

आदिवासियों का मनोबल तोड़ने के लिए ही पुलिस संत्रास विरोधी जनसाधारण कमेटी के नेता छत्रधर महतो को माओवादी बताते हुए गिरफ्तार किया गया। इसके बाद भी आदिवासियों और जनसाधारण कमेटी का आंदोलन नहीं थमा। बंगाल में विरोधी दल की नेता ममता बनर्जी द्वारा जनसाधारण कमेटी की खुलेआम आलोचना के बावजूद आदिवासियों व जनसाधारण कमेटी का मनोबल पहले जैसा ही है।

सच तो ये है कि माओवादियों के खिलाफ केंद्र व राज्य की सशस्त्र पुलिस वाहिनी के सात महीने से जारी अभियान के दौरान स्थितियां क्रमश: बिगड़ती गयी हैं। सुरक्षा बलों ने इलाके में पेयजल के एकमात्र स्रोत कुंओं में शौच कर उन्हें विषाक्त बना डाला ताकि आदिवासी पेयजल की सुविधा से वंचित होकर अन्यत्र चले जाएं और इलाके में जिंदल समूह अपना कारखाना बगैर किसी जनप्रतिरोध के बना सके। लालगढ़ में सरकारी दमन की पुष्टि वहां गये बुद्धिजीवियों के दल ने भी की थी तो अपर्णा सेन, सांवली मित्र की अगुवाई वाले उस दल का मनोबल तोड़ने के लिए उन पर निषेधाज्ञा के उल्लंधन का मामला दायर किया गया था।

कहना न होगा कि सुरक्षा बलों द्वारा आदिवासियों पर जितने अत्याचार हो रहे हैं, उतने ही वे माओवादियों की तरफ आकृष्ट हो रहे हैं। बुद्धदेव सरकार द्वारा लालगढ़ और आस-पास के आदिवासी इलाकों में बीपीएल कार्ड नहीं दिये जाने, इंदिरा आवास योजना के तहत घर नहीं बनाने, सौ दिन की रोजगार गारंटी योजना के तहत रोजगार नहीं देने और जंगल पर से आदिवासियों का अधिकार छिने जाने को भी सरकारी दमन के बर्बर तरीके के रूप में देखा जा रहा है। इन सवालों को भी माओवादियों ने मुद्दा बनाया है। जाहिर है कि माओवादियों के हाथ में ये मुद्दे बुद्धदेव सरकार ने ही दिये हैं। बुद्धदेव सरकार को यह बोध नहीं हुआ है कि लालगढ़ समस्या का समाधान बंदूक की नली से कभी नहीं होने वाला। लालगढ़ की समस्या के मूल में पुलिस अत्याचार के अलावा अंचल की दरिद्रता और वंचना है। इसलिए शासन को उस वंचना से लड़ना चाहिए, न कि माओवादियों से।

कृपाशंकर चौबे महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के जनसंचार विभाग में रीडर (एसोसिएट प्रोफेसर) हैं।

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