13 फ़रवरी 2010

‘पहचान’ का संकट

- राघवेन्द्र प्रताप सिंह

हमारे लाॅज में जहाँ हम रहते है, वहाँ पर कुछ लड़के बैंक की तैयारी कर रहे हैं। अभी-अभी स्टेट बैंक में निकली ग्यारह हजार भर्तियो में अपने सुनहरे भविष्य की कल्पना देख रहे हैं। उनके फार्म को भरते समय एक अजीब खिन्नता नजर आयी। प्रत्येक सहयोगी दस्तावेज पर एक राजपत्रित अधिकारी मुहर आवश्यक थी। मसला यहाँ तक भी ठीक था मगर साथ में चरित्र प्रमाण पत्र की भी जरूरत बतायी गयी। एक चरित्र प्रमाण पत्र इण्टर में जारी हो जाने के बाद भी दूसरी की क्या जरूरत थी? मगर हर फार्म के साथ यह शर्त अनिवार्य है।
आम तौर पर ऐसे छात्र अधिकांशतः उन क्षेत्रो के है जो राजधानी के आस-पास सटे इलाके के हो। यहाँ पर (लखनऊ) में मंहगी कोचिंग में पढ़ते है साथ-साथ इन फजीहतो में भी समय गवँाते है। मेरे कमरे के बगल रहने वाले विश्नू कहता है कि ‘‘ पहले तो हम जालोन में पढ़ते थे’’ अब लखनऊ में आए है, प्रमाण प्रत्र माँगने की क्या जरूरत थी। अब हम कहाँ से लाए हमें तो लखनऊ में कोई राजपत्रित अधिकारी पहचानता नहीं है। यह तो भला हो परिचित के ही भाई ओम प्रकाश जी का जिन्होंने हम लोगों का काम कराया।
ऐसे ही चक्करो में फंसकर हजारों लड़के या लड़कियाँ पहले ही चरण में हट जाते है। उन प्रतिभावन नौनिहाल का क्या कसूर हैं? नौनिहाल से तात्पर्य ऐसे छात्र जो अभी तैयारी करने आए होगें। यह केवल इसी क्षेत्र में नहीं वरन बाजार, राशन की दुकान, इन्टरनेट, मोबाइल प्राइवेट सेक्टर में भी जरूरी हैं। आप नेट यूज करना चाहते वहां भी अपना परिचय पत्र दीजिए। आप किराए का कमरा चाहते हैं परिचय पत्र और चरित्र प्रमाण पत्र दे। आपको यदि सभ्य समाज की कोई भी सहज सेवा चाहिए आप प्क् दो। आपके पास प्रत्येक समय अपनी पहचान को पुख्ता ढ़ग से रखने का संकट रहेगा। दिल्ली जैसे शहर में तो आम नागरिक रोज आतंकवादी होने के शक से रूबरू हो रहा है। कही कोई खास पहचान का आदमी निकल गया तो उसकी लालत-मलालत अलग से होगी। हमारे देश में अमरीकी मानसिकता के हजारों जगहें ऐसी है जहाँ नित-दिन यह समस्याएँ आती रहती है। कभी भी कोई खान-अली की डाढ़ी वा टोपी एक की जा सकती है।
पहचान के इस नए संकट से दूर जाने के लिए यूनिवर्सल आइडेन्टिटी का नारा दिया जा रहा है। हमारे देश में नदंन नीलेकाणी नामक बुद्विजीवी है जो ऐसा नारा दे रहा है। उनकी सदेच्छा में संदेह है क्योकि सार्वभौमिक पहचान कोई नहीं दे सकता। मनुष्य एक पहचान होती नहीं है। वह अपने जाति, धर्म,वर्ण वेष-भूषा से अलग-अलग तरह की पहचान रखता है। इस तरह के नारे वा निर्णय आदमी की विविधता पर प्रश्न चिन्ह लगायेंगे। उनकी पहचान सार्वभौम कर स्थानीय संस्कृति पर हमला करेगे।
इससे अधिक बेहतर है कि अन्तरास्टूीय मंचो पर बातचीत हो। पहचान की दो स्तर में बाँटा जाय। (1) राष्ट्रीय (2) गैर राष्ट्रीय। उसके बाद सबको बेहतर अवसर और विकास की मुख्यधारा में शामिल करें। राज्य को लोगों की पहचान का खतरा तभी होता है जब वह निरन्तर अपने ही देश के नागरिकांे से खतरा महसूस करती है। हम इस खतरों से निपटने के लिए समस्या की जड़ पर वार न कर ऊपर की शाखाएं कुतरते है। शाखाएं कुतरने पर और हरी भरी होकर बढ़ती है।
पहचान सार्वभौम नही विविधता भरी है ताकि हर व्यक्ति को जरूरत न पड़े की हम कौन हैं? यह सिद्ध करने में दिन न गुजर जाएं।

राघवेन्द्र प्रताप सिंह सामाजिक कार्यकर्ता हैं.

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