साभार जनादेश
अवनीश कुमार राय
इस साल के शुरु के दो महीनों में दो सूचना कार्यकर्ताओं की हत्या हुई । जनवरी में पुणे के सतीश शेट्टी की हत्या और फिर फरवरी में बिहार के बेगूसराय के शशिधर मिश्रा की हत्या। 15 जून 2005 को सूचना अधिकार अधिनियम पारित होने के बाद संभवतह ये किसी सूचना कार्यकर्ता की पहली हत्या की पहली घटनाएँ है। दोनो ही हत्याएँ सिर्फ इसलिए की गईं कि ये लोग सूचना अधिकार का इस्तेमाल कर शासन – प्रशासन में फैले भ्रष्टाचार को उजागर कर रहे थे। लेकिन सूचना अधिकार का इस्तेमाल करने वालों को परेशान करने की घटनाओं की कड़ी बहुत बड़ी है।
बात बिहार से शुरू करते हैं। सेना से रिटायर हुए चंद्रदीप सिंह ने 12 दिसंबर 2007 को दानापुर के सहायक पुलिस अधीक्षक से आरटीआई एक्ट के तहत अपने बेटे और बेटी की आट वर्ष पूर्व की गई हत्या के मामले में जांच की प्रगति रिपोर्ट जाननी चाही। पुलिस अधीक्षक ने उन्हें जानकारी तो मुहैया नहीं कराई, उल्टे उन्हें 16 मार्च 2008 को बलात्कार के एक झूठे मामले में फंसा दिया। लिहाजा अप्रैल से मई तक करीब एक महीने उन्हें जेल में बिताने पड़े। उनका कहना था कि आरटीआई दाखिल करने के बाद से ही पुलिस उन्हें किसी बड़े मामले में फंसा देने की धमकी देने लगी थी। इसी तरह भभुआ के किशोरी राम ने जून 2007 में मोहनियां के उप मंडल अधिकारी के कार्यालय में सूचना के अधिकार के नियम के तहत एक आवेदन देकर यह जानना चाहा कि कैसे कुछ दबंगों ने उनके गांव की सरकारी जमीन पर निजी घर बना रखा है। इसके बाद 21 जुलाई 2007 को रामगढ़ पुलिस ने किशोरी राम को सरकारी काम में बाधा डालने के झूठे आरोप में फंसाकर खुद उनके ही घर से उन्हें बेदखल कर दिया। बक्सर के एक किसान की भी यही कहानी है। शिवप्रकाश राय नामक इस किसान ने सितंबर 2006 में एक आरटीआई दाखिल कर 69 बैंको से यह जानकारी चाही थी कि प्रधानमंत्री रोजगार योजना के तहत कितना कर्ज दिया जा रहा है और उसमें सरकारी रियायत कितनी है। आरटीआई दाखिल करने के काफी दिनों बाद फरवरी 2008 में उन्हें जिला कलक्टर के दफ्तर बुलाया गया और उनसे कहा गया कि वे उस कागज पर दस्तखत कर दें जिस पर लिखा गया था कि जो सूचना उन्होने मांगी थी वो उन्हें मिल गई है। दस्तखत करने से जब उन्होने इंकार कर दिया तो बाद में 1 मार्च 2008 को उनपर सरकारी कर्मचारी के काम में बाधा डालने के आरोप में मामला दर्ज कर लिया गया। अपनी इस “गुस्ताखी” के लिए उन्हें 29 दिन जेल में काटने पड़े। बिहार में आरटीआई का प्रयोग करने पर सरकारी अधिकारियों द्वारा परेशान किए जाने के अब तक 42 मामले सामने आ चुके हैं।
ये ऐसे मामले हैं जिनमें स्थानीय प्रशासन ने अपनी शक्तियों का दुरूपयोग करके सूचना आवेदकों को हतोत्साहित करने का प्रयास किया है। महाराष्ट्र में यही काम दूसरे तरीके से किया गया है।एक उदाहरण तो वर्धा स्थित महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय का है। वहां छात्र-छात्राओं ने इस अधिकार के तहत सूचनाएं मांगने लगे तो सूचना देने की निर्धारित राशि दस रूपये को बढ़ाकर पचास रूपये कर दिया गया। दूसरे पिछले दिनों एक दलित छात्र राहुल ने पीएचडी में अपने नामांकन के नहीं होने से संबंधित जानकारियां मांगी तो उसे माफी मांगने के लिए कहा गया। उसने अपने संकायाध्यक्ष से चार बार माफी मांगी और फिर भी उसका नामांकन नहीं हुआ । आखिरकार उसे आमरण अनशन पर बैठना पड़ा। मजेदार तथ्य ये है कि इस विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रह चुके हैं और जागरूक लेखक के रूप में प्रचारित है। महाराष्ट्र में ही गैरसरकारी संगठन नेशनल आरटीआई अवार्ड्स सेक्रेटेरिएट के एक अध्ययन में यह बात सामने आई है कि साल 2008 में एक सूचना आयुक्त ने अपने यहां आए 74 फीसदी मामलों को मामूली तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया। इसी आयोग के एक दूसरे आयुक्त ने भी 1008 अपीलों को ऐसी ही तकनीकी आधारों पर खारिज कर दिया। कुछ यही हाल आंध्र प्रदेश का भी है। आरटीआई पर काम करने वाले संगठन नेशनल आरटीआई अवार्ड्स सेक्रेटेरिएट के मुताबिक 2008 में प्रदेश के दो आयुक्तों ने उनके सामने आए आवेदनो में से 50 फीसदी मामलों को मामूली तकनीकी आधार पर खारिज कर दिया। लेकिन इसी आयोग के दो आयुक्तों ने उन्हीं तकनीकी आधारों पर एक भी अपील खारिज नहीं की। यानी पहले वाले सूचना आयुक्त चाहते तो वे सूचनाएँ दे सकते थे लेकिन उन्होने ऐसा नहीं किया। नेशनल आरटीआई अवार्ड्स सेक्रेटेरिएट ने अपने अध्ययन में पाया है कि तकनीकी आधारों पर बड़ी संख्या में अपीलें खारिज करने से सूचना चाहने वाले आवेदक हतोत्साहित होते हैं। आरटीआई कार्यकर्ता और मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित अरविंद केजरीवाल कहते हैं कि जब देश में ऐसे उदाहरण मौजूद हों जहां सुप्रीम कोर्ट पोस्टकार्ड पर लिखी अर्जी को भी याचिका के रुप में स्वीकार कर ले तो सूचना के अधिकार कानून के तहत आवेदन करने वालों के मामले में इतनी सख्ती क्यों बरती जा रही है ? जाहिर है, इस अधिनियम का शुरू से ही विरोध कर रही नौकरशाही ने सूचना न देने के नए बहाने ढूंढ लिए हैं।
उत्तर प्रदेश में तो सूचना अधिकार कानून के और भी बुरे हाल हैं। मुरादाबाद के सलीम बेग ने होमगार्ड विभाग से प्रदेश में होमगार्डों की तैनाती और संख्या से संबंधित कुछ सवाल जानने चाहे थे। उनसे सूचना की कीमत के रूप में 7 लाख 68 हजार 284 रूपये जमा करने को कहा गया। जाहिर है, यहां पर “न नौ मन तेल होगा न राधा नाचेगी” वाली कहावत चरितार्थ होती है। हलांकि केंद्रीय सूचना आयोग इस संबंध में निर्णय दे चुका है कि सूचना एकत्रित करना सूचना अधिकारी का काम है और इसके एवज में वे सूचना मांगने वालों से खर्च की मांग नहीं कर सकते। उत्तर प्रदेश में कई ऐसे मामले सामने आए हैं जहां पुलिस और प्रशासन ने सूचना आवेदकों को प्रताड़ित करने का काम किया है। पत्रकार और जर्नलिस्ट यूनियन फार सिविल सोसाईटी के सदस्य ऋषि कुमार सिंह कहते हैं कि सूचना अधिकारी किसी भी कीमत पर सूचना देने को तैयार नहीं हैं। सूचना आवेदनो पर अव्वल तो वे कोई जवाब नहीं देते और अगर रिमाइंडर भेजा जाए तो सिर्फ इतना लिख कर भेज देते हैं कि संबंधित सूचना का इस कार्यालय से कोई संबंध नहीं है। सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा (6) में साफ लिखा है कि अगर मांगी गई सूचना आवेदन स्वीकार करने वाले अधिकारी के पास नहीं है तो वे आवेदन को उस विभाग में भेंजे जहां से सूचना संबंधित है। इस बारे में पांच दिनो के अंदर आवेदनकर्ता को भी सूचित करने का निर्देश है, लेकिन सूचित करने को कौन कहे, यहां तो पूरे आवेदन को ही अधिकारी दबा जाते हैं। अधिकतर भारतवासी आज भी नहीं जानते कि कौन का काम किस अधिकारी के अधिकार क्षेत्र में आता है। ऐसे में सूचना अधिकारी नियमों का उल्लंघन करने से बाज नहीं आते। ऐसा ही एक और मामला है जहां प्रदेश पुलिस द्वारा किए जा रहे एनकाउंटर से संबंधित सूचना मांगी गयी थी। सूचना आयुक्त ने एडीजी बृजलाल को तलब कर सूचना मुहैया कराने का आदेश दिया पर मांगने वाले को सूचना आज तक नहीं मिली। दरअसल सूचना आवेदनो का कोई निगरानी तंत्र विकसित न होने के कारण अधिकारी बेपरवाह बने रहते हैं। इस बारे में सूचना अधिकार कार्यकर्ता मनीष सिसौदिया कहते हैं – सूचना का अधिकार प्राप्त होने के बाद से स्थितियों में कोई नाटकीय बदलाव नहीं आया है। पचास बार नाक रगड़ने पर सूचना मिल पाती है और मिल भी जाती है तो सरकारी अफसरों का रवैया यह होता है कि सूचना मिल गई तो भी हमारा क्या कर लोगे। और ऐसा हो भी क्यों न। नेशनल आरटीआई अवार्ड्स सेक्रेटेरिएट के ही एक अध्ययन में यह बात भी सामने आई है कि अधिकांश राज्यों के सूचना आयोग दोषी अधिकारियों से अपने आदेश मनवाने में असफल रहे हैं। इसकी वजह पूछे जाने पर आरटीआई एक्टिविस्ट लोकेश बत्रा कहते हैं कि इसके लिए सूचना आयुक्तों को दोष देना उचित नहीं है। दरअसल सूचना आयुक्तों के फैसलों के क्रियान्वयन और उनुपालन की जिम्मेदारी प्रशासनिक मशीनरी पर ही होती है। इसलिए फैसलों की निगरानी के लिए एक तंत्र भी विकसित किया जाना चाहिए। इस संबंध में उन्होने मुख्य सूचना आयुक्त को एक मसौदा भी भेजा है जिसमें आरटीआई से संबंधित सारे मामलों को इंटरनेट से जोड़ने की वकालत की गई है, ताकि वादी और प्रतिवादी दोनो ही कार्य में हुई प्रगति से आसानी से वाकिफ रह सकें।
सूचना का अधिकार अधिनियम 2005 की धारा (2) में ही स्पष्ट रूप से कहा गया है कि प्रत्येक लोक अधिकारी निरतंर और स्वप्रेरणा से, सूचना के विभिन्न साधनो के माध्यम से, लोगों को इतनी अधिक सूचना उपलब्ध कराने का प्रयास करे कि जनता को सूचना प्राप्त करने के लिए इस अधिनियम का कम से कम सहारा लेना पड़े। इसके साथ ही अधिनियम की धारा (3) ये कहती है कि सूचना को स्थानीय भाषा में और ऐसे तरीके से प्रसारित किया जाए कि यह जनता तक सहज रूप में पहुंच योग्य हो। अधिनियम में यह भी प्रावधान है कि अगर सूचना का अनुरोध लिखित में नहीं किया जा सकता तो सूचना अधिकारी, अनुरोध करने वाले व्यक्ति को सभी युक्तियुक्त सहायता मौखिक रूप से देगा जिससे कि उसे लेखबद्ध किया जा सके। यानी कुल मिलाकर देखा जाए तो सूचना का अधिकार अधिनियम में इस बात का हरसंभव प्रयास किया गया है कि देश के अंतिम आदमी तक सूचना की पहुंच सुनिश्चित हो सके, लेकिन कानून होने और कानून का अनुपालन होने में बहुत अंतर है। जिस नौकरशाही का एक बड़ा तबका सूचना का अधिकार कानून बनने के शुरूआती दिनो से ही इसके खिलाफ रहा हो, उससे कानून के अनुपालन की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है।
दरअसल यह कानून गोपनीयता अधिनियम 1923 के बरक्श लाया गया है। गोपनीयता अधिनियम ने नौकरशाहों को अपने अधिकारों का दुरुपयोग करने की पूरी छूट दे रखी थी। इसकी आड़ में वे अपने हर भ्रष्टाचार को छुपा जाते थे। लेकिन बतौर लोकसेवक, जनता अब उनसे उनके हर कदम का हिसाब मांग सकती है। उनसे पूछ सकती है कि फलां कदम आपने किस वजह से उठाया। जाहिर है, ऐसे में नौकरशाही अपनी मनमानी नहीं कर सकती। उसे अपने कृत्यों की जवाबदेही का डर हमेशा बना रहेगा। और यही वजह है कि नौकरशाही फिर से इस कानून में कुछ ऐसे संसोधन करवाने में जुट गई है जिससे इसकी असली शक्ति के ही खत्म होने की आशंका है। बिहार सरकार इस संबंध में कुछ ऐसा ही संसोधन कर चुकी है।
लेकिन इन स्याह तस्वीरों के बीच कुछ उजाले भी हैं। उत्तर प्रदेश के ललित नारायण मिश्र ऐसे ही एक सूचना अधिकारी हैं। उन्हें हाल ही में एक गैरसरकारी संगठन द्वारा सर्वश्रेष्ठ लोक सूचना अधिकारी के पुरस्कार से नवाजा गया है। उनकी उपलब्धियां थीं सूचना के अधिकार के तहत मांगी गयी सूचनाओं को जल्दी से जल्दी उपलब्ध कराना। एक अच्छे सूचना अधिकारी का कर्तव्य निभाते हुए उन्होने हर संभंव तरीके से लोगों तक सूचनाएं पहुंचाने की कोशिश की और ईमेल से भी आरटीआई आवेदनो को स्वीकार करके उनका जवाब दिया। उनके विभाग के उच्चाधिकारी लखनऊ में तमाम टेक्नालॉजी और सुविधाओं के बीच बैठ सोचते ही रह गए और उन्होने शिक्षा विभाग की वेबसाईट भी लांच कर दी और विभाग से जुड़ी तमाम सूचनाएं उस पर डाल दीं। श्री मिश्र ने सूचनाओं तक लोगों की पहुंच आसान बनाने के लिए टेक्नालॉजी का जो अद्भुत प्रयोग किया है वो देश के तमाम सूचना अधिकारियों के लिए एक मिसाल है।
सूचना का अधिकार कानून इस मायने में विशेष है कि यह लोकतंत्र को सर्व समावेशी और उसमें आम जन की भागीदारी सुनिश्चित करता है। इसका प्रयोग करने वालों ने कई बार यह साबित भी किया है। लेकिन कानून बनने के बाद भी आम लोगों का संघर्ष खत्म नहीं हुआ है। अब उनका संघर्ष नौकरशाही की उस मानसिकता से है जो उन्हें सूचना देने से रोकती है।
अवनीश कुमार राय
संपर्क - 9910638355
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