13 मार्च 2010

जिंदगी पर भारी आंकड़ों की राजनीति

डेली न्यूज एक्टीविस्ट में प्रकाशित
ऋषि कुमार सिंह
कांग्रेस नीत संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में आगे बढ़ रही है,लेकिन बजट सत्र से पहले और बाद में सरकार के मंत्रियों और प्रधानमंत्री की बयानबाजियां तानाशाही होने की झलक दे रही हैं। वित्तमंत्री ने आर्थिक सर्वेक्षण में आर्थिक प्रगति की बेहतर छवि पेश की और बताया कि मंदी के वावजूद जीडीपी की विकास दर सात फीसदी रही है। निकट भविष्य में विकास दर 10 फीसदी होने की उम्मीद है। बजट में बड़े आयकर दाताओं को राहत देने के साथ पेट्रोलियम पदार्थों पर टैक्स बढ़ोत्तरी की घोषणा ने गरीबों का आटा गीला कर दिया। सरकार ने बढ़ती महंगाई से जनता को निकालने के बजाय पेट्रोल-डीजल का दाम बढ़ाकर साबित कर दिया कि उसे जनता की भूख की फिक्र नहीं है,सिवाय जीडीपी की रफ्तार के ,जो अपनी दर में अव्वल बनी रहे। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के शब्दों में विकास की कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी। लेकिन जब विकास के दायरों में वंचित वर्ग को तलाशने की कोशिश की जाती है,तो पूरा मामला पढ़े-लिखों की साजिश सा नजर आने लगता है। तब बड़ी ही बेबाकी से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि उच्च विकास दर से देश के उन करोड़ों लोगों के जीवन में क्या फर्क पड़ता है? जो कल भी अभाव में जी रहे थे,आज भी उनके जीवन में दो जून की रोटी का ही संघर्ष सबसे बड़ा है। कुल मिलाकर विकास की दर चाहे सात रहे या दस के पार हो जाये,गुणवत्ता के लिहाज से वंचित समुदाय की जिंदगी में कोई फर्क नहीं आया है। प्रतापगढ़ के कुंडा में मची भगदड़ जिसमें 63 लोग मारे गये थे, जो यह साबित करने के लिए काफी है कि जिस समुदाय के सशक्तीकरण का दावा सरकारें कर रही हैं,वह आज भी एक प्लेट-एक लड्डू के लिए जान से हाथ धो रहा है।
सरकार के गैर-संवेदनशील फैसले ऐसे समय में आ रहे हैं,जब महंगाई ने देश के खाते-पीते मध्यम वर्ग को,जिसे राजा तक कह दिया जाता था,संकट में डाल दिया है। यह वर्ग आज खाने-पीने के सामानों में कटौती करने के लिए मजबूर है। यानी जो वर्ग जीवन मूल जरूरतों से छुटकारा पाकर गुणवत्ता की दरकार कर रहा था,आज वह फिर से फिसलकर वहीं आ खड़ा हुआ है। इसलिए विकास की जिस डगर पर देश की आर्थिकी को ले जाया जा रहा है,उसके खतरों पर गौर करना जरूरी है।
नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में वंचित वर्ग की जानकारी के लिए बनायी सरकारी समितियों की सिफारिशें चौकाने वाली हैं। ये समितियां सरकार की सभी खुशफहमियों पर सवाल उठा रही हैं। सुरेश तेदुलकर रिपोर्ट में ,जिसे आर्थिक सर्वेक्षण में भी जगह दी गई है,गरीबी रेखा के नीचे की आबादी 37 फीसदी बतायी गई है। आज की महंगाई में इसके जीवन स्तर का अंदाजा लगाना कोई मुश्किल काम नहीं रहा है।क्योंकि अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी ने इस बात को पहले ही रेखांकित किया था कि देश 77 फीसदी आबादी 20 रूपये रोजाना की कमाई पर गुजारा कर रही है। तो एन.सी. सक्सेना कमेटी ने बीपीएल परिवारों की संख्या के दोगुना हो जाने की जानकारी को सरकार के सामने रखा है।
देश में गरीबी को लेकर नीतिगत स्तर पर हो रही धांधली के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति में आया बदलाव जिम्मेदार है। नियोजित विकास की प्रक्रिया में उदारीकरण की घटना ने विकास को वंचित वर्ग से अलग कर दिया है। यही कारण है कि जनविरोधी फैसलों की भरमार देखी जा रही है। सरकार के फैसलों का सबसे ज्यादा विरोध उदारीकरण के बाद नव उदारीकरण के दौर में ही देखने को मिल रहा है,क्योंकि सरकार चाहे जिस भी पार्टी की हो,फैसलों के मामले में उनकी जनउपेक्षा एक सी है। इसके लिए अन्य कई कारणों में से एक कारण राजनीति में विशेषज्ञों का हावी होना है। इस समस्या की तरफ अप्रत्यक्ष रूप से ही सही लेकिन लोकसभा के शीतकालीन सत्र में प्रश्नकाल के दौरान सांसद रेवती रमण सिंह के प्रश्न के जवाब में कृषि मंत्री ने इशारा किया था,जिसे बाद में रेल बजट पेश करते समय रेलमंत्री ममता बनर्जी ने रेखांकित किया है। केंद्र की राजनीति में एक खास किस्म की समस्या पैदा हो गई है। कृषि मंत्री का कहना था कि जब योजना आयोग गरीबी का आकलन करने वाली तमाम कमेटियों की सिफारिशों को मान्यता देते हुए मंत्रालयों के लिए निर्देश जारी नहीं करता है,तब तक कोई मंत्रालय इस दिशा में कुछ भी नहीं कर सकता है। जबकि योजना आयोग ने अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी,सक्सेना कमेटी की रिपोर्ट को मान्यता तक नहीं दी है। इससे पता चलता है कि विशेषज्ञों की परिषद यानी योजना आयोग अब नेताओं की परिषद यानी मंत्रिपरिषद पर भारी है। इसी वजह है कि योजना आयोग को सुपर कैबिनेट की भी संज्ञा दी जाती है। मौजूदा समय में योजना आयोग अध्यक्ष मनमोहन सिंह और उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया नवउदारवादी आर्थिकी के विशेषज्ञ और भारत में इसके आयोजनकर्ता माने जाते हैं। जिनकी जिम्मेदारी देश की जनता की भूख को कम करने की नहीं है,बल्कि आंकड़ों की बाजीगरी दिखाते हुए देश की खुशहाल तस्वीर बनाये रखने की है। हालांकि इस बाजीगरी के पीछे निवेश के लिए बेहतर माहौल बनाने का तर्क गढ़ा जा सकता है। इसलिए अगर भूख से योजना आयोग का कोई वास्ता होता तो अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी को मान्यता देने के साथ महंगाई से निपटने के ठोस उपाय किये गये होते। ऐसे माहौल में सक्सेना कमेटी की रिपोर्ट को योजना आयोग मान्यता मिलना मुमकिन नहीं लगता है। जबकि सक्सेना कमेटी ने सरकारी विकास के दावों की हवा निकालते हुए साफ शब्दों में इस बात को रखा है कि 1973-74 के 56 फीसदी गरीबी के मुकाबले 2004 में 28.8 फीसदी का जो घटता हुआ आंकड़ा हमारे सामने पेश किया जा रहा है,उसमें वास्तविक रूप से कोई गिरावट नहीं आयी है। यानी सरकार गरीबों के मामले में गलत आंकड़े पेश कर रही है। कह सकते हैं कि राजग गठबंधन के इंडिया शायनिंग कैम्पेन की चपेट में मौजूदा सरकार भी है।
इन सरकारी कमेटियों के जरिये आ रहे आंकड़ों को योजना आयोग और सम्बंधित मंत्रालय खारिज कर रहे हैं। योजना आयोग को पता है कि अगर वह इन रिपोर्ट को मान्यता देता है,तो फीसदी मार्का विकास की तस्वीर बिगड़ सकती है। साथ ही इस संदर्भ में आर्थिक नीतियों की समीक्षा की नौबत भी आ सकती है। तब इस सवाल का सामना भी करना पड़ सकता है कि आखिर देश का आर्थिक विकास किसके लिए हो रहा है और कहां जा रहा है,क्योंकि गरीबी और भुखमरी कम होने के बजाये बढ़ती जा रही है। ऐसे में देश का विश्वफलक की ताकत बनने का दावा कितना झूठा लगता है। देश का विकास होना जनता के जीवन में सुधार होने से अलग की प्रक्रिया है या फिर आयुधों से लेकर अंतरिक्ष के इतिहास में नाम दर्ज करा लेना ही देश के विकास की तस्वीर है।
यही नहीं महंगाई के मसले प्रधानमंत्री का लोक सभा में दिया गया बयान निराशाजनक है। उनका कहना है कि उन्हें महंगाई को कम करने के रास्ते यानी तरकीब नहीं पता हैं। तब बात उठती है कि अगर देश का नेतृत्व इस कदर निरीह होकर हाथ खड़े कर रहा है,तो सवालों का जवाब देने की या फिर उत्तरदायित्व लेने की जिम्मेदारी कौन उठायेगा ? महंगाई के लिए सरकार की अदूरदर्शी निर्यात नीतियों और बढ़ रही कालाबाजारी को जिम्मेदार ठहराया जाता है। ऐसे में प्रधानमंत्री की मासूमियत एक साजिश के सिवाय कुछ भी नहीं है। प्रधानमंत्री पर दबाव उन पूंजीपतियों की तरफ से आ रहा है,जो नवउदारवादी नीतियों के तहत ज्यादा से ज्यादा आजादी चाहती हैं। क्योंकि पूंजी और बाजार(जनता) के बीच राज्य की शक्तिशाली भूमिका लूटने के मौकों को सीमित करती है। इसलिए राज्य को ठिकाने लगाने या फिर उसे सेनाओं को बैरक से भीतर-बाहर लाने के काम तक सीमित किया जा रहा है।
भारतीय राजनीति अपनी जिम्मेदारियों से मुंह चुराने लगी है। राजनेता अपनी असफलता को सरेआम स्वीकार करने और अपने पद पर बने रहने की नैतिकता हासिल कर रहे हैं। विपक्ष की राजनीति सांकेतिक हो चुकी है। तो वहीं विपक्ष भी जनता के सामने मौजूद राजनैतिक विकल्पहीनता को जानता है। इसलिए सरकारों को अत्याचारी होने की छूट देता है,ताकि सत्ता परिवर्तन के जरिए सत्ता हासिल कर सके। इसलिए महंगाई और गरीबी के मुद्दे पर विपक्ष कोई ठोस असर डालने में नाकाम रहा है। आज की राजनीतिक जिम्मेदारियों का मूल्यांकन नाउम्मीदी पैदा करने लगा है। नाउम्मीदी में जी रहा वंचित वर्ग अंग्रेजों के शासन को आज की राजनीति से बेहतर मानने के लिये विवश हो रहा है। ऐसे में प्रश्न उठता है कि आखिर आजादी से अब तक ऐसा क्या हुआ कि एक औपनिवेशिक सत्ता,जिसे हमने अपनी मर्जी से उतार फेंका था,आज हमारी राजनीति से बेहतर नजर आने लगी है। इस प्रश्न का जवाब बदलती आर्थिक नीतियों और राजनीति में बढ़ती सत्तालोलुपता में छिपा है। दरअसल,हमने सदियों का अंतराल को यानी पिछड़ेपने को पाटे बिना ही,21वीं सदी(उदारीकरण) का साक्षात्कार कर लिया,जिसका खामियाजा है कि गरीबी और अमीरी के बीच का विभाजन गहरा हो चला है। ऐसे में शीर्षस्थ संस्थाओं का विकास के आंकड़ों से मोह देश को निराशा के घोर दलदल में ढ़केल रहा है। इसलिए जरूरत मौजूदा आर्थिक नीतियों पर पुनर्विचार की है,ताकि भारतीय जनता को अवसादग्रस्त होने से बचाया जा सके।

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय