08 मार्च 2010

कोई थप्पड़ मारता,बांह मरोड़ता तो कोई बाल खींचता है !

अट्ठाइस राज्यों की सवा लाख महिलाओं में से एक तिहाई ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपने विवाहित जीवन में कम से कम एक बार उन्होंने पति द्वारा धक्का देने, झिझोड़ने व थप्पड़ मारे जाने वाले शारीरिक हिंसा के व्यवहार को ज़रूर सहा है। इनमें 34 प्रतिशत महिलाओं को थप्पड़ मारा गया, 15 प्रतिशत के बाल खींच गये या बांह मरोड़ी गई, 14 प्रतिशत के ऊपर चीजें़ फेंकी गई थीं। 62 प्रतिशत ने शादी के दो वर्षों के भीतर शारीरिक-यौनिक हिंसा झेली है।

हिंसा के साये में आधी आबादी

रोमा / सीमा श्रीवास्तव
पिछले तीस सालों में महिला आन्दोलन की अगुआई में दहेज व घरेलू हिंसा के मुद्दे पर बहुत से अभियान चलाये गए, कानून में संशोधन हुए, पीड़ित महिलाओं व परिवारों को न्याय दिलाने के संघर्ष भी चले, लेकिन आज भी ये दोनों मुद्दे हिंसा के विकराल रूप में समस्या बनकर हमारे समाज में मौजूद हैं और समाज का लगभग हर तबका इनसे पीड़ित है। पूरे हिन्दुस्तान में जितने पुरातन हमारे रीति-रिवाज हैं, उतना ही पुराना महिलाओं के प्रति हो रही हिंसा का स्वरूप भी है। वैश्वीकरण से बदलते परिवेश में इसका स्वरुप भी निरन्तर बदल रहा है, स्थिति की गंभीरता लड़कियों की घटती संख्या के आंकड़ों के रूप में देखी जा सकती है। आज के दौर में बालिका भ्रूण हत्या की सबसे बड़ी वज़ह दहेज़ को माना जा रहा है।
हिन्दुस्तानी समाज में महिलाओं के साथ घर में हो रही हिंसा को हिंसा के रूप में कभी स्वीकार नहीं किया गया। जिसकी वजह से जाने कितनी महिलाओं को अपने प्राणों की आहूति देनी पड़ी है, या फिर उन्हें मार दिया गया। सन् 2002 से 2006 तक महिलाओं के प्रति हो रही घरेलू हिंसा के आंकड़ों पर गौर करें तो पायेंगे कि इन वारदातों में लगातार वृद्धि हुई है। सन् 2002 में हुयीं इस तरह की 2816 वारदातें सन् 2006 में 4504 हो गयीं। यह एक चिंतनीय आंकड़ा है, जो हमारे शिक्षित समाज व बुद्धिजीवी वर्ग पर प्रश्नचिन्ह लगाता है। यानि शिक्षा के प्रसार के बावजूद महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा में कमी नहीं आ रही है। अगर हम उन्नीसवीं सदी में महिलाओं की स्थिति से आज की स्थिति में तुलना करें तो कुछ खास फर्क नहीं पायेगें । उन्नीसवीं शताब्दी में जब सती प्रथा हमारे समाज में प्रचलन में थी, तब उस दौर के सन् 1815 से 1824 तक के प्राप्त आंकड़े बताते हैं, कि इस कुप्रथा के तहत 378 से 572 महिलाओं को पति की चिता के साथ जला दिया गया। यह संख्या सबसे ज्यादा सन् 1818 में 839 दर्ज की गयी। हांलाकि सती प्रथा तो बंद हो गई लेकिन इसकी जगह पति के जीते जी ही आग में जलाये जाने के रूप में आधुनिक समाज में दहेज़ ने ले ली। यानि भारतीय समाज में अगर नारी को विवाहित जीवन बिताना है तो उसे आग में जलना ही होगा, चाहे सती के रूप में चाहे दहेज हत्या के रूप में। महिलाओं को जिंदा जलाये जाने वाली ऐसी घटनायें भारतीय समाज के आलावा शायद ही दुनिया के किसी और देश में होती हों।
हांलाकि सन् 2005 में संसद ने एक क्रांतिकारी कानून ‘ घरेलू महिला हिंसा कानून’ भी पारित किया है। जिसके तहत घरों के अन्दर महिलाओं के साथ हो रही हिंसा को हिंसा रूप में स्वीकार किया गया है। इस हिंसा में थप्पड़ मारना, बाल खींचना, गाली गलौच करना, खाना न देना, अपमानजनक शब्द कहना, पिटाई करना आदि को भी हिंसा माना गया है। लेकिन इसके दायरे में ससुराल पक्ष ही नहीं बल्कि मायके के अंदर होने वाली हिंसा भी निशाने पर है। यह कानून दहेज़ निवारण कानून से भिन्न है। इस कानून में महिलाओं के प्रति घरों में होने वाली हिंसा की व्याख्या की गयी है। जिसकी वजह से दहेज़ जैसी कुरीति हमारे समाज में विद्यमान है। इस कानून को लागू करने का दायरा कचहरी से बाहर रखा गया है व इस कानून के तहत अलग से सुरक्षा अधिकारियों की नियुक्ति किये जाने के प्रावधान है। ताकि कोई भी पीड़ित महिला कोर्ट कचहरी व वकीलों के पेचीदा कानूनी दाव पेच से बच सके। लेकिन सरकार इस कानून को गंभीरता से लेने के बजाय, इस के क्रियान्वन के सवाल पर चुप्पी साधे बैठी है। अभी तक बहुत से राज्यों ने इस कानून के संबध में अधिसूचना भी नहीं ज़ारी की है जिसकी वजह से अधिकारीगण इस कानून को गंभीरता से नहीं ले रहे हैं। साथ ही समाज में इस कानून के बारे में एक भ्रम फैलाया जा रहा है कि यह कानून घर तोड़ने का कानून है। जबकि यह कानून घरों के अंदर हो रही हिंसा चाहे वो महिलाओं के साथ हो या बच्चों के साथ हों उसको कानूनी रूप से ख़त्म करने की ओर प्रेरित करता है।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार 55 प्रतिशत भारतीय महिलाएं व लगभग 50 प्रतिशत पुरुष पत्नियों के साथ मारपीट को सही मानते हैं। 40 प्रतिशत महिलाओं ने अपने विवाहित जीवनकाल में घरेलू हिंसा को सहा है। इस सर्वेक्षण में अट्ठाइस राज्यों की सवा लाख महिलाओं में से एक तिहाई ने स्वीकार किया कि उन्होंने अपने विवाहित जीवन में कम से कम एक बार उन्होंने पति द्वारा धक्का देने, झिझोड़ने व थप्पड़ मारे जाने वाले शारीरिक हिंसा के व्यवहार को ज़रूर सहा है। इनमें 34 प्रतिशत महिलाओं को थप्पड़ मारा गया, 15 प्रतिशत के बाल खींच गये या बांह मरोड़ी गई, 14 प्रतिशत के ऊपर चीजें़ फेंकी गई थीं। 62 प्रतिशत ने शादी के दो वर्षों के भीतर शारीरिक-यौनिक हिंसा झेली है।
विभिन्न राज्यों में घरेलू हिंसा के मामलों का प्रतिशत और भी चौंकाने वाला है जो कि बिहार में 63 फीसदी, राजस्थान में 46.3 फीसदी, मध्य प्रदेश में 45.8 फीसदी, मणिपुर में 43.9 फीसदी, उत्तर प्रदेश में 42.4 फीसदी, तमिलनाडु में 41.9 फीसदी, प0बंगाल में 40.3 फीसदी है। घरेलू हिंसा का शिकार केवल महिलायें ही नहीं बल्कि बच्चे भी होते हैं। इसलिये जब तक राजनैतिक इच्छा शक्ति के साथ घरों के अंदर होने वाली इस हिंसा को जड़ से खत्म नहीं किया जायेगा व नारी व पुरूष की बराबरी को प्रजातांत्रिक समाज की बुनियाद नहीं माना जायेगा तब तक समाज में व्यापत हिंसा के इस विकराल रूप पर काबू नहीं पाया जा सकेगा। महिलाओं के होने वाली हिंसा मानवाधिकारों का घोर हनन है।
सीमा श्रीवास्तक जागोरी संगठन नई दिल्ली की कार्यकर्ता

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