08 मार्च 2010

संघर्ष...घर से बाहर तक

अर्चना महतो
ना
तो मैं पहले अबला थी तब घर की तमाम जिम्मेदारियों का बोझ मेरे कंधों पर था...और ना मैं आज अबला हूं जब चौखट के बाहर उस पहचान को पाया है जिसपर अबतक एकमातर अधिकार पुरुषों का समझा जाता था...ना मैं पहले अबला थी ना आज अबला हूं...ये अबला और परदा तो शायद उस कोशिश का नतीजा थे जिसकी मंशा सदैव मुझे बेड़ियों में जकड़े रख उन अभिलाषाओं के पर कुरेतने की थी...तो रह-रहकर अपने अस्तित्व की उड़ान भरने के लिए फड़फड़ाया करते थे...कोशिश थी मेरे स्वाभिमान पर चोट की, मेरे अभिमान पर आघात की, मेरे वजूद पर वार की जो जाने तो कभी अनजाने परिवार और पति की आड़ में दफन होते रहे...लेकिन अफसोस ये दौर लंबा ना चल सका... ...बंदिशों ने तो पुरजोर कोशिश की मुझे बांधने की लेकिन मेरे हौंसलों के आगे वो टिक ना सकी.. .और .मैं चल पड़ी उस राह जहां मुझे लड़नी थी उस वजूद की लड़ाई जिसपर मेरा हक होते हुए भी ना था...बनानी थी अपनी स्वतंत पहचान जिसपर अबतक नहीं था मेरा अधिकार..इसलिए मैंने तोड़ी अपनी चुप्पी और जारी रखा अपना सफर...और आखिरकार इस राह पर चलते हुए उस मुकाम तक भी पहुंची...जहां मैंने साबित कर दिया कि मैं कमजोर नहीं मुझे कमजोर समझने वालों की भूल है...मैं अबला नहीं मुझे अबला कहकर हुई चूक है...मेरी कलाईयों में अगर रोटियां बेलने की ताकत है...तो ये कलम चलाना भी बखूबी जानती हैं...मकान को घरोंदा बनाना जानती हूं...तो दफ्तर की जिम्मेदारियों को भी कंधों पर उठा सकती हूं...बतौर गृहिणी अपने करतव्य निभा सकती हूं तो घर की दहलीज के बाहर के दायित्व भी संभाल सकती हूं.... मैं केवलमातर मोम की गुड़िया या कठपुतली नहीं...मैं आधी आबादी हूं...और बेहद शक्तिशाली हूं...मेरे लिए कुछ असंभव नहीं और इस सृष्टि की रचना मेरे बिना संभव नहीं...मैं मां हूं...पत्नी हूं...बेटी हूं...तो उच्च पदों पर आसीन नारी हूं...मां दुरगा, पारवती हूं तो मां काली भी हूं...बुलंद है हौंसले मेरे मैं अबला नहीं कामयाबी की कहानी हूं...
अर्चना महतो समय न्यूज़ चैनल की पत्रकार हैं और जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) से जुडी हैं

2 टिप्‍पणियां:

अवनीश ने कहा…

बहुत सही विश्लेषण किया है।

नवीन कुमार 'रणवीर' ने कहा…

अबला क्यों कहा किसी नें,
ये कभी ना जान पाई वो?
जिसे जना कोख से,
उसे ही ना पहचान पाई वो?
लूटाती रही उसी पुर अपना सब कुछ
खुद के लिए कुछ ना बचा पाई वो...
अपना सब कुछ देकर भी
कुछ ना किसी से मांग पाई वो?
हमेशा देना ही सीखा उसनें
दूसरों में ही अपनी जान पाई वो...
वो खुद के लिए भी ना बनीं कभी
समाज में किसी ना किसी से जान पाई वो...
कभी किसी की बेटी, कभी बहू,
कभी बहन, तो कभी पत्नी
बस यही पहचान पाई वो?
खुद को दूसरों पर आश्रित देखना
यही पहचान पाई वो...
इसीलिए समाज में अबला खुद को
हमेशा जान पाई वो...

अपना समय