03 अप्रैल 2010

कचहरी का बरगद

राजीव यादव
हम उस दिन दो युवकों की हिरासत में मौत को लेकर इलाहाबाद कचहरी में धरना स्थल पर पहुंचे। पर धरना स्थल यानी परंपरागत रुप से बरगद का पेड़ के नीचे अत्याधुनिक असलहों से लैस अर्द्ध सैनिक बल के जवान बैठे थे। चारों तरफ दर्जनों की संख्या में वज्र वाहन और जवानों की गश्ती ने पूरे माहौल में एक भय और सन्नाटे की सिहरन व्याप्त कर दी थी। खैर हम अपने दूसरे साथियों की खोज करने लगे, तो पता चला कि धरना कचहरी के बाहर सड़क पर हो रहा था।
धरने के दौरान ही पता चला कि अब कचहरी में बरगद के पेड़ के नीचे धरना देने की ही नहीं अब लाउड स्पीकर की भी मनाही है। थोड़ी देर में डंडा भांजते पुलिस के जवानों के साथ एक दरोगा आए और कहा ‘परमीशन लिया है क्या’, जवाब था ‘नहीं’, ‘तो फिर कैसे धरना दे रहे हो भागो यहां से नौटंकी बना लिया है क्या’। खैर थोड़ी देर की बहसों और मान-मनौव्ल के बीच हम अपने अधिकार, जिसे अराजकता का जामा पहना दिया गया है, प्रशासन के रहमों-करम पर ही कहेंगे, धरना दिया। यह अपने आप में हम जैसों के लिए स्वाभाविक परिघटना न थी। मेरे दिमाग में पूरे धरने के दौरान बरगद का वह पेड़, कचहरी और परिसर में स्थापित शहीद लाल पद्मधर की प्रतिमा अनेक बिंब बना रही थी। बरगद का वह पेड़ मेरे जानने मे अंग्रेजों के उस दौर का भी गवाह है जब युवा छात्र लाल पद्मधर ने तिरंगा फहराया और अंग्रेजों ने उन्हें गोलियों से छलनी कर दिया। बरगद इसकी भी गवाही करता है कि अंग्रेजों के शासन और उसके बाद हमारे सबसे बड़े लोकतंत्र को कैसे स्थापित और संचालित किया जा रहा है। मुझे धरने पर बैठे लोग और बरगद से एक स्वर में इस बात का एहसास हो रहा था कि हमारी व्यवस्था अपने में कितना असुरक्षा बोध रखती है।
बहरहाल तेज धूप में सड़क के किनारे बैठे बार-बार बरगद की छांह की कमी और एक मातृत्व भाव बार-बार खल रहा था। मैं तकरीबन पांच-छह साल पहले या कहें जबसे इलाहाबाद आया तबसे मेरा और मेरे जैसे तमाम लोगों का बरगद से ऐसा रिश्ता था, जिसमें हम एक लोकतांत्रिक सुकून का एहसास करते थे। आज सड़क के किनारे वो सुकून जेहन से नदारद था।
बार-बार इन हालात के लिए अपने जैसों को ही कोसने का मन कर रहा था कि हमारे प्रतिरोध के धीमें पड़ते स्वर ने बरगद को दूसरी गुलामी दे दी। क्या वह हमें माफ करेगा और क्या हम इसका प्रायश्चित कर पाएंगे। धरने के साथी राघवेंद्र भाई ने कहा कि अगला धरना हम उस बरगद के पेड़ के नीचे करेंगे। थोड़ा सुकून हुआ पर लगा लोकतंत्र की लड़ाई में हम एक युग पीछे चले गए हैं। क्या देश के सारे बरगद गुलाम हो गए और अगर वे गुलाम हो गए तो क्या हम आजाद हैं? यह एक सवाल जिसका हम जैसों का इलाहाबाद में उत्तर देना या तर्क करना सार्वजनिक जगहों पर उचित नहीं समझा जा रहा है। क्योंकि पिछले दिनों उसी इलाहाबाद जहां से निकलने वाले स्वराज के आठों संपादकों को व्यवस्था परिवर्तन और मूल्यों की पत्रकारिता करने पर जेल या काला पानी हुआ, वहां के पत्रकारों ने लिखा कि कुछ लोग व्यवस्था परिवर्तन की बात कर गरीबों का माइंड वास कर रहे हैं। और लाल सलाम का नारा लगाते है। लाल सलाम यानी देश ही नहीं दुनिया की कम्युनिस्ट पार्टियों के अभिवादन का प्रतीक, क्या इतना खतरनाक हो गया है। इसी तरह के तर्क अंग्रेजों की गुलामी के दौर में इंकलाब को लेकर भी था।
‘व्यवस्था परिवर्तन’ क्या यह शब्द राष्ट्दोह है? अगर है तो कटघरे में सबसे पहले अखबार आते हैं। क्योंकि पत्रकारिता एक व्यस्था परिवर्तन का मिशन है। बार-बार बरगद की इस गुलामी में मुझे पत्रकारों का हाथ दिख रहा था। थोड़ी-थोड़ी देर में कैमरों के चमकते फ्लैश और रंग-रुटों के जूतों की धमक बार-बार हमें एक सिकुड़ते दायरे में रहने की हिदायत दे रहीं थी। हाल ही में पत्रकार और मानवाधिकार नेता सीमा आजाद को इलाहाबाद से व्यवस्था परिवर्तन के साहित्यों के साथ गिरफ्तार करने का दावा पुलिस ने किया। सीमा दिल्ली पुस्तक मेले से आ रहीं थी। जो साहित्य पुस्तक मेले से मिला उसे अवैध घोषित किए जाने पर व्यवस्था परिवर्तन के वाहकों को जहां पुलिस को सावालों के कटघरे में लाना था वहां उन लोगों ने सीमा को कटघरे में ला दिया। इसे लेकर मीडिया में जो माहौल था वह बरगद के लिए नया नहीं था उसने देखा था कि किस तरह अंग्रेजों के शासन में उनके बुलेटिनों में भी ऐसी ही खबरें आती थीं। और उसके बाद हमारे लोकतंत्र के बरगद को लंबी कैद हो जाती थी।
इलाहाबाद की सोना उगलने वाली पत्थर की खदानें शोषण, भय और भुखमरी की खदानें हैं। क्या इसकी आवाज पत्रकार नहीं बनेगा? अगर वो बनेगा तो निःसदेह इसे व्यवस्था परिवर्तन के जनान्दोलनों की ही श्रेणी में रखा जाएगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिढोरा पीटने वालों ने सिर्फ बाई लाइन की लालच में अपने जमीर को गिरवी रख दिया है। निष्पक्षता और संतुलन के चाहे जो भी मायनें हैं, लेकिन उसमें प्रमुख जनपक्षधरता है। यह जन पक्षधरता बरगद की सबसे गहरी जड़ों का बनाए रखती है और हम जैसों को बरगद की लटें हर दौर में आवाज देती हैं कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
धरने के दौरान बाहर से खबर करने आए पत्रकार मित्र जयप्रकाश त्रिपाठी से फोन पर हो रही बात-चीत में मैंने बार-बार कहा मित्र जरुर कचहरी आइएगा और बरगद के चारों ओर लोकतंत्र के नाम पर हो रहे तांडव को जरुर महसूस करने की कोशिश करिएगा।

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