03 अप्रैल 2010

खबर का असर

शाहनवाज आलम
उस रात जब हम लोगों ने न्यूज चैनलों पर पाकिस्तानी राष्ट्पति जरदारी के बयान वाली हेडलाइन ‘पाकिस्तान 26/11 की घटनाओं को भविष्य में रोकने की गारंटी नहीं दे सकता क्योंकि वह खुद भी आतंकवाद से अपने सुरक्षा की गारंटी नहीं कर पाया है’ देखी तभी अंदाजा हो गया कि कल के अखबारों में यह खबर कैसे परोसी जाएगी। हमारे अनुमान के मुताबिक लगभग सभी अखबारों ने ‘मुबई जैसे हमलों को दुबारा न होने की गारंटी नहीं दे सकते- जरदारी’ को ही मुख्य शीर्षक बनाया और जरदारी के बयान के पीछे के तर्क को लगभग सभी अखबारों ने डायल्यूट कर दिया।
पत्रकारिता की सैद्धांतिक कसौटी पर परखें तो आधी अधूरी और तोड़ मरोड़ कर लिखे गए इस बयान का असर यह हुआ कि दूसरे दिन जहां अखबारों ने पाकिस्तान को लानत भेजते हुए संपादकीय लिखे और सरकार को किसी भी कीमत पर पाकिस्तान से वार्ता न करने की नसीहत दी। वहीं मुख्य विपक्षी दल ने सरकार को पाकिस्तान के प्रति वोट बैंक के लिए नर्मी दिखाने का आरोप लगाया। परिणाम स्वरुप सरकार ने भी मीडिया और विपक्ष के दबाव में पाकिस्तान से फिलहाल वार्ता न करने का बयान दे दिया। इस तरह मीडिया ने अपनी कलाबाजी से एक ऐसा अनावश्यक मुद्दा खड़ा कर दिया जिस पर दो-तीन दिन तक खूब हो-हल्ला हुआ। यहां यह समझा जा सकता है कि अगर जरदारी के बयान से छेड़-छाड़ न हुयी होती तो दोनों देशों में बात-चीत को लेकर एक सकारात्मक माहौल बन सकता था।
दरअसल पाकिस्तान विरोध हमारे दौर की कारपोरेट मीडिया का एक ऐसा पसंदीदा विषय है जिसमें सतही और उग्र राष्ट्वादी मध्य वर्ग को तृप्त करने वाले सभी मसाले जैसे राष्ट्वाद, बंदूक, संस्कृति और रोमांच अन्तर्निहित हैं। जो किसी भी अखबार या चैनल की प्रसार संख्या और टीआरपी बढ़वाने की गारंटी तो है ही, उस पर कोई तोड़-मरोड़ या गलत बयानी का आरोप भी राष्ट्विरोधी घोषित होने के डर से नहीं लगा सकता। इसलिए हम रोज अखबारों में कम से कम चार-पांच पाकिस्तान केंद्रित खबरें और वो भी अधिकतर आखिरी रंगीन पेज पर जिसमें फिल्मी दुनिया की खबरें होती हैं, देखते हैं या इसी परिघटना से अचानक कुकुरमुत्ते की तरह उपजे रक्षा और कूटनीतिक विशेषज्ञों के लेख पढ़ते हैं। दूसरी तरफ चैनलों का हाल यह है कि प्राइम टाइम में अगर आप रिमोट घुमाएं तो दर्जनों चैनल ‘पाकिस्तान-पाकिस्तान’ खेलते दिख जाएंगे। एक प्रगतिशील लुक वाले एंकर तो एक दिन, रात को दस बजे पाकिस्तान से वार्ता न करने के दस कारण गिना रहे थे। समझा जा सकता है, अगर कार्यक्रम का समय बारह बजे होता तो शायद कारणों की संख्या बारह होती।
पाकिस्तान के प्रति मीडिया के इस रुख के चलते यह असर हुआ है कि जहां एक ओर खास तौर से हिंदी अखबारों और चैनलों में अपने इस पड़ोसी देश की विदेश नीति, अर्थ नीति और सामाजिक बदलाव पर कोई गंभीर विश्लेषण देख-पढ़ नहीं सकते। वहीं इस मीडिया ने एक ऐसे राष्ट्वाद को प्रचारित प्रसारित किया है जिसके केंद्र में पाकिस्तान विरोध है। जो कुल मिलाकर यही पैमाना रखता है कि अगर आप पाकिस्तान से बात-चीत के समर्थक हैं तो आप राष्ट्विरोधी हैं और उससे लड़ने झगड़ने पर उतारु हैं तो राष्ट्भक्त।
पिछले दिनों आईपीएल में पाकिस्तानी खिलाड़ियों के नहीं चुने जाने के मुद्दे पर शाहरुख खान के बयान से उपजे बाल ठाकरे बनाम शाहरुख मामले में भी मीडिया के एक हिस्से को पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की अपनी इस कसौटी को आजमाते हुए देखा गया। लेकिन थोड़ा दूसरे अंदाज या यूं कहें कि पिछले दरवाजे से। वो यूं कि जब बाल ठाकरे ने शाहरुख की तुलना कसाब से करते हुए उन्हें पाकिस्तान चले जाने का फरमान सुना दिया। तब कुछ अखबारों ने बाल ठाकरे के खोखले राष्ट्वाद को उजागर करने के लिए यह खबर छापी कि ठाकरे मशहूर पाकिस्तानी खिलाड़ी जावेद मियांदाद का अपने ‘मातोश्री’ में मेजबानी ही नहीं कर चुके हैं बल्कि शारजहां कप के फाइनल में चेतन शर्मा की आखिरी गेंद पर छक्का मारकर भारत को हराने वाले इस खिलाड़ी कि तारीफ भी की थी। ऊपर से देखें तो लग सकता है कि यह खबर ठाकरे परिवार के मौजूदा उत्पाती राजनीति को बेनकाब करती हो। लेकिन इसे बारीकी से परखें तो इस खबर की वैचारिक दिशा और शिव सेना की सोच में कोई फर्क नहीं है। क्या इस खबर में यह संदेश नहीं छुपा है कि पाकिस्तान या पाकिस्तानी लोगों से संबंध रखने वाला राष्ट्भक्त नहीं हो सकता। इस छुपे संदेश और शिव सैनिकों द्वारा खुलेआम चिल्लाकर लगाए जाने वाले ऐसे ही नारों में क्या फर्क है? इस विवाद के पटाक्षेप यानी माई नेम इज खान के सफल रिलीज पर मीडिया के इस भाव वाली टिप्पड़ी कि, कलाकार का कोई मजहब नहीं होता, में भी पाकिस्तान विरोधी राष्ट्वाद की गंध महसूस की जा सकती है। अगर शाहरुख मुसलमान नहीं होते तो क्या उनके लिए भी मजहब से ऊपर उठना जरुरी होता? या वे फिल्म स्टार के बजाय एक आम मुसलमान होते जिनके पाकिस्तानियों से संबंध होते या भारत-पाक वार्ता के समर्थक होते तो क्या तब भी मीडिया उन्हें राष्ट्विरोधी न होने का प्रमाण पत्र देती?

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