10 मई 2010

जनगणना में जाति पूछने से क्‍यों दुखी हैं विनोद दुआ?


 नवीन कुमार रणवीर

जातिगत जनगणना पर मीडिया जाति के आधार पर जनगणना के विरोध में और समर्थन में उठ रहे स्वरों पर एनडीटीवी इंडिया के खास कार्यक्रम विनोद दुआ लाइव (6 मई 10) में, विनोद जी का कहना है कि देश के वो नेता, जिन्‍होंने मंडल के दौर (90) से राजनीति में कदम रखा, अपने राजनीतिक भविष्य की नींव रखी – उन नेताओं को इसलिए इस सेंसेस की आवश्यकता है क्योंकि उन्हें ये पता चल जाए कि उनका वोट बैंक कितना है? विनोद जी ने अपनी खबर में ये भी कहा कि 1931 के बाद से जाति आधारित जनगणना नहीं हुई थी और 80 के दशक में कांग्रेस का नारा “जात पर ना पात पर मोहर लगेगी हाथ पर” ने जाति को तोड़ने का काम किया। विनोद जी का ये भी कहना है कि वीपी सिंह ने यदि आरक्षण का आधार आर्थिक रखा होता तो शायद देश में जाति के नाम पर होने वाले अत्याचार और भेदभाव न होते और मंडल कमीशन ने देश में जातिगत भेदभाव को कम करने में बाधा का काम किया है। इसका उदाहरण उन्‍होंने ये कहकर दिया है कि 80 के दशक में अंतरजातीय विवाह और प्रेम-विवाह के मामले ज्यादा आ रहे थे, जिससे ये लगता था कि देश अब जातिगत बंधनों से आगे की सोच की ओर अग्रसर है। परंतु वीपी सिंह जैसे नेताओं ने जातिगत भेदभाव बढ़ाने का काम किया है
विनोद जी ने ताजा मामले को मिसाल के तौर पर पेश करते हुए ये बताया है कि पत्रकार निरुपमा पाठक की हत्या भी अंतरजातीय विवाह के विरोध में हुई है, जिसमें बिहार का रहने वाला लड़का कायस्थ था और झारखंड की रहने निरुपमा ब्राह्मण थी। विनोद जी सीधे तौर पर आरक्षण के विरुद्ध हैं या सामाजिक आधार पर आरक्षण के विरुद्ध हैं? विनोद जी ने मंडल का उदाहरण दिया कि “इन नेताओं ने (मुलायम, लालू, पासवान, करुणानिधि) जातिगत भेदभाव को बरकरार रखने और बढ़ाने का काम किया है”।
लेकिन मैं विनोद जी से पूछना चाहता हूं कि देश में जितने अंतरजातीय विवाह सन 90 से लेकर आज तक हुए हैं, क्या उनकी संख्या 1950 से 90 (मंडल) तक से कम है?
क्या देश में जितने जातिगत अत्याचारों के मामले एससी-एसटी कमीशन में हैं या जो सामने आये हैं (संख्या सामने न आने वालों की ज्यादा है), वो सभी 90 के बाद की है? 90 से पहले के दौर में लोगों तक सूचना तो पूरी तरह तक पहुंचती नहीं थी और आप कह रहे है कि “देश जातिगत बंधनों से ऊपर उठ रहा था, देश में अंतरजातीय विवाह हो रहे थे”… विनोद जी क्या उस समय में (90 से पहले) किसी अखबार में जाति के आधार पर शादी के विज्ञापन नहीं आते थे? 90 से पहले तक कितने लोग जनरल कैटगिरी (सवर्ण) से सरकारी नौकरी पर या राजनीति में अच्छे पदों पर थे? और कितने बाबू जगजीवन राम और कपूरी ठाकुर थे? जिस दौर की आप दुहाई दे रहे हैं न, उसी दौर में एक दलित सरकारी कर्मचारी (कांशीराम) सरकारी तंत्र में भेदभाव के चलते अपनी नौकरी छोड़कर दलितों-अल्पसंख्यकों और पिछड़ों की आवाज को डीएस – 4 और बामसेफ के माध्यम से चेतना की मशाल लिये आगे बढ़ रहा था। ये वही दौर था जब कांशीराम के भाषणों के कैसेट्स को टेपरिकॉडर में सुनाने के लिए माहौल की तलाश में कई बार लोगों ने उच्च जातियों के अत्याचार सहे।
ये वही दौर था जब 1994 में डीएस – 4 को बसपा का नाम मिला। परंतु आपको लगता है कि एक वीपी सिंह आकर सारे देश में जातिगत भेदभाव फैला गया वरना तो देश के सवर्ण वर्ग के लोग दलितो से बेटी-रोटी का रिश्ता रखते थे। ये वीपी सिंह और मंडलियों (मंडल के कमीशन के समर्थक नेता) ने राहुल गांधी को देश के दलितों के घर में जाकर खाना खाने को मजबूर कर दिया। आपका तर्क था कि देश में आरक्षण का आधार यदि आर्थिक होता तो शायद देश इस जातिगत भेदभाव, जिसके कारण हाल ही में युवा पत्रकार निरुपमा पाठक की हत्या हुई है, वो नहीं होती, याकि देश में ऐसे मामले कम देखने को मिलते।
विनोद जी मैं आपको बता दूं कि मैं भी उसी संस्थान का छात्र रहा हूं, जहां निरुपमा और प्रियभांशु पढ़ते थे। दोनों ही सवर्ण हैं और दोनों में से कोई भी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। जातिगत भेदभाव आरक्षण का लाभ न लेने वाली जातियों में भी है और एक जाति में भी है, सवर्णों में भी वरीयता है और ब्राह्मणों में भी है। सरयूपारी-कानिबकुंज का भेद तो आपको पता ही होगा, नहीं पता तो मैं आपको बता देता हूं मुझे भी लखनऊ के ही दो शुक्लाओं (टीवी पत्रकारों) ने बताया था। रावण को मारने के बाद राम द्वारा किये गये रावण के श्राद्ध को खाने के लिए जो ब्राह्मण सरयू नदी पार करके गये थे उन्हें कानिबकुंज ब्राह्मणों ने वापस आने नहीं दिया और उनसे सारे संबध तोड़ दिये, क्योंकि रावण भी ब्राह्मण था और राम पर ब्रह्महत्या का पाप लगा था। आज भी वो लोग आपस में शादी-ब्याह का संबंध करने से बचते हैं। शुक्ला, तिवारी, पांडे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी, उपाध्याय उपनाम के लोग चौरसियाओं और त्यागीयों में शादी-ब्याह नहीं करते। वो तो किसी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। शर्मा जी का तो कोई भरोसा ही नहीं करता। शुक्ला, तिवारी, पांडे, द्विवेदी, त्रिवेदी, चतुर्वेदी और उपाध्याय लोगों का कहना है कि ये तो पता ही नहीं चलता कि ये (शर्मा जी) कौन से ब्राह्मण है?
भूमिहार ब्राह्मण और भूमिहार ठाकुर अन्य ठाकुरों और ब्राह्मणों से शादी करने के लिए जातिगत आडंबरों से आज तक ऊपर नहीं उठ पाये हैं। ये लोग भी आरक्षण के दायरे में नहीं आते। तो जब मामला सामजिक भेदभाव का हो तो उसे मिटाने या कम करने के लिए या समाज के उस तबके को ऊपर उठाने के लिए सामाजिक आधार होना महत्वपूर्ण ही नहीं, आवश्यक है। जातिगत भेदभाव पुश्तों से चली आ रही सामंती सोच की देन है। न कि बाबासाहब अंबेडकर या मंडल के समर्थक नेताओं की या किसी कमीशन की सिफारिशों की। सोच को बदलने के लिए कोई आरक्षण बाधा नहीं बनता, बल्कि अपनी आवाज और बात कहनें का हक देता है। जातिगत जनगणना आवश्यक है, ताकि लोगों को पता चले कि सदियों से शोषण करती आ रही जातियों के पास आज भी कितना सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व है तथा देश की कितनी बड़ी आबादी कभी साढ़े 22 फीसदी और कभी 27 फीसदी की हिस्सेदारी के लिए लड़ती है।
(नवीन कुमार रणवीर। 2007-08 में भारतीय जनसंचार संस्‍थान से डिप्‍लोमा करने के बाद गुरु जंभेश्वर विश्‍वविद्यालय (हिसार) से जनसंचार में एक किया। फिलहाल स्‍वतंत्र लेखन करते हैं और जेयूसीएस (जर्नलिस्ट यूनियन फॉर सिविल सोसाइटी) से जुड़े हैं। उनसे ranvir1singh@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

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