18 मई 2010

निरूपमा जातीय उत्पीड़न की शिकार हुई


अनिल चमड़िया


ये लोकप्रिय भाषा में बात कहीं जा सकती है कि दिल्ली के अंग्रेजी समाचार पत्र में काम करने वाली पत्रकार निरूपमा पाठक की हत्या कोई अकेली घटना नहीं है। इसे और ज्यादा सूत्रबद्ध करके ये तक कहा गया कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट जाति के वर्चस्व वाले इलाके में ही खाप पंचायतें नहीं है बल्कि हर घर में खाप बैठी हुई है। लेकिन इस बात की पड़ताल जरूर की जानी चाहिए कि आखिर इन खापी मानसिकता के एक ढांचे के रूप में बने रहने के क्या कारण है। इसमें बैंक में शाखा प्रबंधक पिता धर्मेन्द्र पाठक की दिल्ली के भारतीय जनसंचार संस्थान में रेडियों और टेलीविजन का कोर्स पूराकर अंग्रेजी का पत्रकार बनने वाली बेटी निरूपमा के नाम लिखी चिट्ठी मददगार साबित होती है। उन्होने पत्र में लिखा है कि संविधान को तो बने महज साठ वर्ष हुए हैं । इसके विपरीत धर्म सनातन कितना पुराना है कोई नहीं बता सकता है। अपने धर्म और संस्कृति के अनुसार उच्च वर्ण की कन्या निम्म वर्ण के साथ व्याही नहीं जा सकती है।दरअसल ये पूरा पत्र अपने आप में समाज में इस तरह के चल रहे संघर्षों को समझने का आधार प्रदान करता है।
भारतीय संविधान को स्वीकार करने का क्या मतलब है जबकि हम अपनी तमाम पुरानी संस्थानों को बरकरार रखने के भावनात्मक तर्क देते हो।समाज में व्यवस्था के नये ढांचे की जरूरत हमेशा पुरानी व्यवस्था में पिसते, घुटते और कष्ट उठाने वाले हिस्से को होती है। मौजूदा संविधान को मंजूर इसीलिए किया जा सका क्योंकि समाज का बड़ा हिस्सा उसे पुरानी व्यवस्था को बदलने के लिए उठ खड़ा हुआ था। जब ऐसी स्थिति आती है तो समाज पर वर्चस्व रखने वाला छोटा हिस्सा अपने रूख में उपरी तौर पर परिवर्तन दिखाने लगता है। वह नई व्यवस्था या उसकी परिकल्पना में घुसपैठ कर लेता है और उसे अपने लिए इस्तेमाल करने के तौर तरीके निकालने लगता है। संविधान को स्वीकार किए जाने के बाद से समाज का यह कमजोर हिस्सा लगातार संविधानमूलक व्यवस्था पर काबिज होने वाले हिस्से के दमन, शोषण, उत्पीड़न और तरह तरह के अत्याचार का शिकार होता रहा है।वह छोटा सा हिस्सा अपनी उन तमाम संस्थाओं को बचाने की योजना में लगा रहा है जोकि उसकी वर्चस्वता को बनाए रखती है। धर्म और उससे जुड़ी वर्ण –जाति व्यवस्था भी उनमें एक हैं।
ये बात सीधे सीधे समझ में आने वाली है कि यदि संविधान में सबको बराबरी का हक दिया गया है, व्यस्क और अव्यस्क की स्थिति को परिभाषित किया गया है  तो इसके साफ मतलब है। ये समाज और परिवार में बैठी संस्थाओं की जगह पर नई संस्थाएं तैयार करने की स्वीकृति देता है। मां पिता या अभिभावकों द्वारा लड़की के लिए लड़का और लड़के के लिए लड़की देखकर शादी कराने की प्रथा के पीछे क्या आधुनिक तर्क हो सकते हैं।लड़का और लड़की की अनुभवों की कमी का होना ।खासतौर से लड़कियां घरों में रखी जाती रही हैं लिहाजा उनकी जान पहचान नहीं है, समाज को देखने और परखने का अनुभव नहीं है। मां पिता या अभिभावक अपने अनुभवों का इस्तेमाल यहां जब करता है तो ये तर्क समझ में आता है। लेकिन निरूपमा आधुनिकता के पैमानों को पूरा करती है। वह घर से  दुनिया के आधुनिकतम शहर दिल्ली आई।अंग्रेजी की पत्रकार बनी।लेकिन उसके पिता आधुनिकता के इन तमाम पैमानों पर तो अपनी बेटी को खरा देखना चाहता थे लेकिन बेटी के जीवन साथी के फैसले को वे अपनी न जाने कब की संस्था से बंधे रखना चाहते थे। वह अपनी बेटी के फैसले पर भरोसा नहीं करना चाहते थे।ये कैसे संभव होगा। इससे बड़ा उत्पीडन और क्या हो सकता है। दूसरे और शायद सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात की ये जातीय उत्पीड़न नहीं है तो क्या है।धर्मेन्द्र पाठक जाति व्यवस्था में इस कदर बैठे हुए है कि उन्हें संविधान का कोई कद ही दिखाई नहीं देता है। उनका परिवार अपनी इस व्यवस्था को लेकर इतना कट्टर है कि वह अपनी जनी बेटी को भी मौत के घाट उतार देता है।शायद प्रकृति का सबसे कोमल बेटी के गर्भ में पलने वाले शिशु के प्रति वह कठोरता की सारी निर्ममता को उतार देता है।मैंने हिन्दी की एक साहित्यिक पत्रिका में एक बहस शुरू की थी। वह थी कि समाज में वर्चस्व रखने वाली जातियों में जन्मे लेकिन आधुनिक लड़के लड़कियों को अपने जातीय उत्पीड़न की कहानियां लिखनी चाहिए। दलितों ने अपने उत्पीड़न की कई कहानियां लिखी है। लेकिन जिस जातीय हथियार से दलितों का उत्पीड़न होता रहा है उत्पीड़क जातियों के परिवारों के बच्चे भी उसी जातीय हथियार से उत्पीडित होते रहे है। ये जातीय हथियार उन्हें विचारों से आधुनिक बनने से रोकते रहे हैं। निरूपमा का उत्पीड़न क्या जातीय उत्पीड़न नहीं है? उसके पिता तो बहुत स्पष्ट शब्दों में ये बात अपने पत्र में ही कहते हैं।निरूपमा अपने फैसले के अनुसार शादी भी कर लेती तो उसे उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता।जैसे धर्म बदलने से दलित का उत्पीड़न कम नहीं होता।निरूपमा को भी शादी के बाद समाज उत्पीडित करता।वह पूरा समाज नहीं समाज का जातिवादी हिस्सा होता।जातीय उत्पीड़न के शिकार होने वालों का एक क्रम बनाया जाए तो वर्ण-जाति के बाद पहला नंबर महिला का होता है।
समाज को आधुनिकता के चरण में केवल संविधान में लिखकर नहीं ले जाया जा सकता है। संविधान द्वारा यदि हम ये लिखित तौर पर अपनी सहमति जाहिर करते है कि हम संविधान के अनुरूप नये समाज का निर्माण करेंगे तो उसे बनाने की जिम्मेदारी हर किसी को लेनी होगी। दरअसल हम दो तरह के विचारों में पिसने वाली जाति के रूप में अपने को निर्मित कर रहे हैं।इसीलिए हमारा व्यक्तित्व बराबर टूटे फूटे व्यक्तित्व के रूप में निकलकर सामने आता है। हम पुरानी संस्थाओं के फसान से निकलकर नए समाज और नये रिश्ते बनाने के बजाय ये कहने में अपनी शान समझते है कि न जाने कब से ये प्रथा चल रही है।लेकिन जरा ये भी सोचा जाए कि कभी तो ये प्रथा शुरू हुई होगी।किसी नई बात की शुरूआत भी तो करनी होती है तभी तो वह पीढियों तक चलती है।हम केवल पुरानी संस्थाओं को ढोने वाली जाति तो नहीं है।वरना पीढियों को कितना कष्ट उठाना पड़ता है, इस बात पर जरा विचार करें कि लड़कियों को ओढ़नी पहनाना जब शुरू किया गया होगा तब सायकिल पर नहीं चलती होगी।वह रिक्शे की सवारी नहीं करती होगी। मोटर सायकिल नहीं चलाती होगी।लेकिन आज इन सवारियों को चलाते वक्त यदि उन्हें ओढ़नी या इस तरह का कोई वस्त्र पहनने से मुक्त कराने की कोशिश नहीं की जाएगी तो क्या होगा।मैंने कई घटनाएं देखी है कि इन सवारियों के चक्के से ओढ़नी फंसकर लड़कियों व महिलाओं को बुरी तरह घायल कर देती है। कल नदियों के किनारे शहरी सभ्यता बनी। आज शहरी सभ्यता मैट्रों के किनारे विकसित हो रही है। मैट्रों आज की नदी है।आधुनिकता को ग्रहण करने के लिए कंप्यूटर के फेनड्राइव में खराब और करप्ट हो चुकी फाइलों को डिलिट करके नए के लिए जगह बनानी पड़ती है।निरूपमा के पिता बैंक में कंप्यूटर पर काम करते हुए भी विचारों की करफ्ट फाइलों से दबे पड़े हैं।लेकिन इसका मतलब ये भी नहीं निकाला जाना चाहिए कि हर नये विचार को आधुनिकता का नाम दे दिया जाए।निरूपमा की हत्या समाज में जातीय उत्पीड़न के खिलाफ  सभी को एक साथ उठने की जरूरत को जाहिर कर रहा है। यह हमारे आधुनिक होने की सबसे बड़ी बाधा थी और आज भी है।                  

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