24 जून 2010

राष्ट्वाद, कानून व्यवस्था और फर्जीमुठभेड़

शाहनवाज आलम
पिछले दिनों बहुचर्चित रनटोला मुठभेड़ कांड जिसमें उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले की पुलिस ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के दो छात्रों को डकैत बताकर मार डाला था पर न्यायालय ने चौदह दोषी पुलिसकर्मियों को उम्र कैद की सजा सुना दी। दोषी पुलिस कर्मियों ने न्यायालय और मीडिया के समक्ष बताया कि फर्जी मुठभेड़ उन्होंने तत्कालीन एसपी द्वारा ‘गुड वर्क’ दिखाने के लिए कहने पर किया था। इसलिए घटना के मुख्य जिम्मेदार एसपी हैं। लेकिन वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को ऐसे मामलों के क्लीन चिट देने की नीति के तहत ठोस सबूतों के बावजूद तत्कालीन एसपी के खिलाफ कार्यवायी नहीं की गयी।
     पुलिसिया शब्दकोष से वाकिफ लोग जानते होंगे कि ‘गुड वर्क’ यानि कानून-व्यवस्था बनाए रखने में चुस्ती दिखाने पर ही प्रोन्नति मिलती है। जिसके लालच में पुलिस फर्जी मुठभेड़ों को अन्जाम देती है। लेकिन क्या इस लालच और इसके तहत किए जाने वाली हत्याओं से बच निकलने का भरोसा पुलिस को हमारी राजनैतिक व्यवस्था ही नहीं देती?
      अगर गौर से देखा जाय तो फर्जी मुठभेड़ों का दौर ठीक उसी वक्त शुरु हुआ जब हमारे राजनीति के एजेंडे से मूलभूत सवाल गायब होने लगे और उनकी जगह कथित राष्ट्वाद के हौव्वे ने लेनी शुरु की। जिसके चलते देश आंतरिक तौर पर ‘वे और हम’ में बटने लगा और कुछ वर्गों को राष्ट्विरोधी ठहराया जाने लगा। राजनीति में आए इस बदलाव के साथ ही ‘कानून-व्यवस्था’ एक ऐसा शब्द बनता गया जिससे जनता को बार-बार उसके असुरक्षित होने का डर भी दिखाया जा सकता था और इस डर को दूर करने के नाम पर वोट भी लिए जा सकते थे। पिछली सदी की आठवें दशक से शुरु हुए इस राजनीति और इस दौरान कानून व्यवस्था के नाम पर आयी सरकारों का रिकार्ड इस तर्क के आलोक में खंगाला जा सकता है। कश्मीर और पंजाब में तो ‘कानून-व्यवस्था’ की भेंट चढे़ हजारों युवकों के अनाम सामूहिक कब्रों के मिलने का सिलसिला आज तक जारी है।
      बहरहाल कानून व्यवस्था की इस राजनीति का असर यह हुआ कि धीरे-धीरे वे तमाम गतिविधियां और शब्द जैसे मुठभेड,़ जो उससे पहले सिर्फ सीमा तक महदूद मानी जाती थी हमारे आंतरिक समाज में घुसपैठ करने लगीं। जिसके चलते समाज मनोवैज्ञानिक तौर पर एक छद्म आन्तरिक युद्ध में पहुंच गया। आज स्थिति यह है कि देश के अंदर ही जैसे गुजरात, छत्तीसगढ़ जहां ‘वे’ के खिलाफ ‘हम’ का छद्म राष्ट्वाद मुखर है, वहां मुस्लिम बहुल क्षेत्रों को ‘पाकिस्तान’ और नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को ‘चीनी’ एजेंट कहा जाने लगा है। फर्जी मुठभेड़ों के इस समाजशास्त्र को समझने के लिए ‘चीन और पाकिस्तान’ का हमारे देश के अन्दर बनते जाने की राजनीति को समझना जरुरी है। जिसकी आड़ में किसी को भी पाकिस्तानी या नक्सली बताकर कानून व्यवस्था के नाम पर फर्जीमुठभेड़ में मार देने को सामाजिक स्वीकार्यता मिलती जा रही है।
       इस कथित राष्ट्वाद और फर्जी एनकाउंटरों का नाभि-नाल संबंध कितना खतरनाक है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि कई मानवाधिकार संगठनों की रपटों में पंजाब के हजारों बेगुनाह युवकों को आतंकी बताकर मारने के आरोपी पूर्व पंजाब पुलिस प्रमुख केपीएस गिल पर जब प्रशासनिक अधिकारी रुपम देवोल के साथ छेड़खानी का मुकदमा चल रहा था। तब इस कथित राष्ट्वाद की सबसे बड़ी झंडा बरदार पार्टी भाजपा ने गिल को इसलिए माफ कर देने की वकालत की थी कि उन्होंने पंजाब में कथित तौर पर कानून व्यवस्था कायम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
        कानून व्यवस्था की इस राजनीति के चलते बने समाज के सैन्य मानसिकता का दूसरा असर यह हुआ कि छोटे-छोटे अपराधों को भी जो सामाजिक और आर्थिक कारणों से पैदा हुए उनके निवारण के लिए भी समाज सैन्य तरीकों का हामी होता गया जिसका सीधा फायदा पुलिस ने उठाया और फर्जी मुठभेड़ों का दुष्चक्र शुरु हो गया। आज आलम यह है कि किसी छोटे अपराधी को भी अगर पुलिस फर्जी मुठभेड़ में मार देती है तब विरोध करने के बजाय यह तर्क दिया जाने लगा है कि अपराधियों से निपटने का यही तरीका है। जबकि कानूनन पुलिस सिर्फ आत्मरक्षा में ही किसी को मार सकती है। समाज के एक बडे़ हिस्से में इस सोच के चलते देखते-देखते एक दशक में ही सैकड़ों ‘एनकाउंटर स्पेशलिस्ट पैदा हो गए। हालांकि इनमें से अनेक को न्याय के समक्ष लाया जा चुका है बावजूद इसके अभी खतरा टला नहीं हैं। एक आरटीआई से प्राप्त सूचना के मुताबिक दिल्ली में एनकाउंटर करने के लिए मशहूर स्पेशल क्राइमब्रांच में ही सत्रह ऐसे अधिकारी हैं जिन पर हत्या, उगाही और अपहरण के आरोप हैं। ऐसे लोग एनकाउंटर के नाम पर क्या कर सकते हैं अंदाजा लगाया जा सकता है।        
       दरअसल फर्जी मुठभेड़ों को रोकने का एक मात्र तरीका है कि पुलिस विभाग में आउट आफ टर्न प्रमोशन रोका जाय और छद्म राष्ट्वाद और कानून व्यवस्था की लफ्फाजी के बजाय मूलभूत सवालों को राजनीति के एजेंडे में लाया जाय। और यह तभी संभव होगा जब फर्जीमुठभेड़ में मारे गए लोगों के परिजन न्याय के लिए लड़ाई में अकेले नहीं रह जाएं बल्कि सामूहिक रुप से समाज उनके साथ लड़े।

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