24 जून 2010

आजमगढ़ के सहारे नए कांग्रेसी राजतंत्र की स्थापना

राजीव यादव
पुणे धमाकों के बाद एक बार फिर से आईएम और उसके बाद इन धमाकों में हिंदूवादी संगठनों की भूमिका के बाद पिछली तीन-चार फरवरी को आजमगढ़ की दिग्विजय यात्रा सवालों के घेरे में आती है कि क्या बिना जांच के आजमगढ़ कि छवि सुधरेगी। क्योंकि आईएम जिसका गृह जनपद आजमगढ़ बताया जाता है वहां के लड़कों को सिर्फ निर्दोष होने के प्रमाणपत्र देने से इस गंभीर आरोप से निजात नहीं मिलेगी। और क्या है आईएम की वास्तविकता, सरकार इसे क्यों नहीं जनता के सामने लाना चाहती। और लगातार दिग्विजय कहते हैं कि वो जानते हैं कि संघ परिवार वाले और बजरंगी बम बनाते हैं तो आखिर उन पर क्यों वैन नहीं लगाया जाता। जबकि पिछले साल जस्टिस गीता मित्तल ने सिमी पर यह कहते हुए वैन हटा लिया था कि कोई सुबूत नहीं है तो कांग्रेस चौबीस घंटे में स्टे आर्डर ले आयी। दिग्गी राजा की आजमगढ़ यात्रा और कांग्रेस द्वारा सिमी पर लगाया गया पांच फरवरी को पाचवां वैन दोनों काफी महत्वपूर्ण हैं। क्योंकि इस यात्रा के एक महीने पहले मीडिया में आयी खबर कि राहुल गांधी आजमगढ़ जाएंगे को लेकर आजमगढ़ में हुए विरोधों से कांग्रेस सहम गयी और दिग्विजय की यात्रा महज एक लिटिमस टेस्ट थी। 
        इस यात्रा के दौरान कांग्रेस के सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे के प्रभारी अमरेश मिश्र ने काफी जोड़-तोड़ की और इसी सिलसिले में वे कई बार सिमी के अध्यक्ष शाहिद बद्र फलाही से बात की और मिले जिस पर फलाही ने किसी भी समझौते की बात से इनकार करते हुए कहा कि कोर्ट तक ने हम पर से वैन हटा लिया है और सरकार में कद्वार सलमान खुर्शीद तक ने कहा कि वैन महज राजनैतिक है तब ऐसे में क्या बात। लेकिन फिर भी अमरेश अपने आका यानी दिग्विजय से मुलाकात करने की दुहाई देते रहे। मीडिया में दिए बयानों की सिमी अध्यक्ष शाहिद समेत तमाम सिमी के नाम पर प्रताड़ित लोग हमारे साथ आ गए हैं और बड़ी बेशर्मी से कांग्रेस द्वारा आयोजित इस शोक यात्रा का मकसद बताया कि 2012 के चुनावों में इसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा तो बात बिगड़ गयी। और शाहिद बद्र ने स्पष्ट रुप से अमरेश पर झूठा और अवसरवादी हाने का आरोप लगाया।
         यात्रा के ठीक तीन दिन पहले आजमगढ़ के शहजाद की गिरफ्तारी और आईएम के नाम पर हुयी इस गिरफ्तारी के मायने कई हैं और सवाल भी कई हैं। जैसे शहजाद हिंदुस्तान में 9/11 करना चाहता था और उसने पायलटिंग की थी। भले बाद में यह आरोप झूठा निकला क्योंकि वह इतने कम उम्र का है कि इस उम्र में कोई संस्थान उसे ट्ेनिंग नहीं दे सकता। पर यह आरोप इस वक्त लगा ऐसा माहौल बनाने के पीछे सिमी के आगामी प्रतिबंध की तारीख को ध्यान में रखा गया था। क्योंकि सिमी पर जब सितंबर 2001 में प्रतिबंध लगा था तो ठीक पहले 9/11 हुआ था। और आईएम को सिमी से जोड़ा गया है ऐसे में यह आरोप सिमी पर प्रतिबंध बढ़ाने के लिए तर्क देता। और आजमगढ़ यात्रा के बाद गोरखपुर यात्रा से इसके निहितार्थ लगाना आसान हो जाता है कि आजमगढ़ के मुसलमानों से यह प्रमाण पत्र की हम आपके यहां आए थे के बाद इसको समेटने के लिए 25 फरवरी को बड़ी बेशर्मी से अल्पसंख्यक सम्मेलन कर रहे हैं। इस सम्मेलन के जरिए कांग्रेस योगी जिन पर सांप्रदायिक दंगों के आरोप हैं वहां अपनी जमीन तलाशने का अभियान चलाने की कवायद में है। इसी अभियान के तहत दिग्विजय सिंह ने कहा कि योगी पूर्वांचल में हिंदू आतंकवाद फैला रहे हैं। पर योगी के कड़े रुख की वजह से दिग्विजय ने योगी से फोन पर माफी मांगी जिसे योगी ने मीडिया में भी सार्वजनिक किया। यह पूरा अभियान बिना आजमगढ़ गए नहीं चलाया जा सकता था क्योंकि खुद कांग्रेस पर मुसलमानों को आतंकवाद के नाम पर नृशंस तरीके से मारने और आतंकवाद में फसाने का आरोप है।
        आजमगढ़ भारतीय राजनीति का जम्मू-कश्मीर, जहां पिछले बांसठ सालों से न्याय की दरकार है, जो कब तक पूरी होगी इसका अब जवाब देना या कयास लगाना एक कोरी कल्पना होगी, अब उसका दूसरा संस्करण आजमगढ़ है। दिग्विजय की यात्रा का कांग्रेस या अन्य चाहे जो भी निहतार्थ निकालें, चाहे इसे 2012 की युवराज के सेहरे के तौर पर देखें या तुष्टिकरण की राजनीति पर आजगढ़ियों के मन-मस्तिष्क में एक मजबूत गांठ बन गयी कि जांच नहीं होगी और उनके मासूमों पर आतंक का कलंक बरकरार रहेगा। दिग्विजय ने बड़े सधे स्वर में बड़ी शालीनता से कह तो दिया कि ‘न्याय में देरी, न्याय न देने के समान है’ पर इसका क्या असर भारतीय लोकतांत्रिक व्यस्था पर पडे़गा इसका अन्दाजा लगाना भी उतना ही आसान है जितना कहना। दिग्विजय सिंह कांग्रेस के एक जिम्मेदार पुराने नेता हैं अगर ऐसा नहीं होता तो कांग्रेस उन्हें उत्तर प्रदेश का प्रभारी नहीं बनाती। ऐसे में किसी लोकतांत्रिक देश के सरकार पक्ष के वरिष्ठ नेता द्वारा न्याय जैसे विषय पर कहना और सरकार का उस पर कोई जवाब न देना सिकुड़ते कमजोर होते लोकतंत्र को दर्शाता है।
         जब दिग्विजय सिंह ने खुद इस बात को कहा था कि आजमगढ़ के युवाओं पर सोनिया गांधी और राहुल चिंतित हैं तो उनकी इस चिंता को 19 सितंबर को हुए बाटला हाउस पर न शब्द मिले और न डेढ़ साल बाद इस यात्रा के दौरान। इस तर्क को इस बात से मजबूती मिलती है कि जब सरकार के एक जिम्मेदार नेता का सरकार नहीं सुन रही है तो आम जनता का क्या सुनेगी। अगर दिग्विजय सिंह इतने ईमानदार नेता हैं तो जब उनकी सरकार मासूमों की मौत की न्यायिक जांच नहीं करवा रही है तब वे किस मुंह से कांग्रेस में बने हैं।
        दिग्विजय यह तो कहते हैं कि बाटला हाउस में मारे गए साजिद के सिर पर लगी गोलियां एनकाउंटर नहीं दर्शाती पर इस बात का उनके पास कोई उत्तर नहीं है कि आखिर मोहन चंद्र शर्मा को कैसे ‘शहादत’ मिली। अगर दिग्विजय ‘व्यक्तिगत स्तर पर’ मानते हैं कि साजिद के सिर पर लगी गोलियां एनकाउंटर नहीं दर्शाती तो वे अपने तत्कालीन गृह मंत्री शिवराज पाटिल और मुख्यमंत्री को क्या इस हत्या का आरोपी नहीं मानेंगे। क्या दिग्विजय ने शिवराज पाटिल और शीला दिक्षित से यह नहीं पूछा कि साजिद के सिर पर कैसे गोली मारी गयी। आखिर उन दोनों को टीवी स्क्रीनों पर एनकांटर की मानिटरिंग करते हुए और आतंक पर विक्ट्री की घोषणा करते हुए दिखाया गया था। क्या सब झूठ था? तो क्यों नहीं इस बात को कांग्रेस बताती। आजमगढ़ के मासूमों को मारकर आतंकी घोषित किया तो फिर अब क्यों खुद अपने द्वारा कहे गए आतंकियों के घर कांग्रेस आयी।  
         बाटला हाउस में मारे गए आतिफ अमीन के पिता ने दिग्विजय से नहीं मिले और कहा जो न्याय नहीं दे सकते उनसे क्या मिलना। पूरे रास्ते भर हजारों काले झंडों से कांग्रेसियों ने अपना मुंह काला किया और इस यात्रा के दौरान किसी भी गाड़ी पर कांग्रेसीयों को झंडा लगाने की हिम्मत नहीं हुयी। दिग्विजय बार-बार आजमगढ़ में और वहां से निकलने के बाद घूम-घूमकर कर कह रहे हैं कि मनमोहन सिंह ने राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग से जांच करवायी थी यह एक झूठा बयान है। यह जांच हाईकोर्ट ने एक याचिका के बाद हाईकोर्ट के निर्देष पर राष्ट्ीय मानवाधिकार आयोग ने की थी। अगर कांग्रेस इतनी शुभ चिंतक रहती तो दिल्ली सरकार की पुलिस यह तर्क न देती की इससे पुलिस का मनोबल गिर जाएगा दरअसल इससे कांग्रेस का हत्यारा चेहरा जनता के सामने आ जाता। यह कौन सा न्याय का समीकरण हमने अपने लोकतंत्र में देखा कि सुप्रिम कोर्ट कहता है कि जांच होगी तो पुलिस का मनोबल गिर जाएगा। पोस्टमार्टम की रिपोर्ट इसलिए परिजनों को नहीं दी जाएगी क्योंकि इसका फायदा बाटला हाउस से भागे आतंकी उठा लेंगे। आखिर किसी पोस्टमार्टम रिपोर्ट से कोई आतंकी कैसे फायदा उठा सकता है।
       बहरहाल बात अब बाटला हाउस पर नहीं अब बात उस पर हो रही राजनीति की हो रही है। जिसे कांग्रेस भी बखूबी जानती है और मुसलमान भी। आजमगढ़ के मुसलमानों के लिए भले ही यह नया कांग्रेसी अनुभव हो पर और के लिए यह पुराना और बखूबी आजमाया हुयी कांग्रेसी चाल थी। पर उन लोगों और खासकर जो लोग कहते हैं कि मुसलमानों पर अगर ज्यादती होगी तो वह आतंकवादी बन जाएगा के लिए आजमगढ़ ने फिर एक मिशाल खड़ी कर दी है वो शाहिद आजमी के रुप में। शाहिद को उस दौर में जब आजमी के नाम पर नकेल नहीं थी तब आतंकियों से संबंध रखने के आरोप में टाडा के तहत लम्बे समय तक तिहाड़ में बंद रखा गया। पर शाहिद ने घुटने नहीं टेके और जेल में ही शिक्षा का कार्य नियमित रुप से किया और जेल से निकलने के बाद वकालत करके अपने जैसे निर्दोषों और मजलूमों की आवाज बने। शाहिद की यह जंग उस व्यवस्था के खिलाफ थी जिसने उन पर उन जैसे सैकड़ों लोगों पर आतंक का नाम चस्पा किया था। शाहिद मालेगांव, बाटला हाउस, गुजरात समेत तमाम केशों को देख रहे थे और उनका संकल्प था कि आजमगढ़ ही नहीं देश में जहां भी आतंकवाद के नाम पर अत्याचार हो रहा है वो उसकी आवाज बनें। शाहिद आजमी ने निर्दोषों को मुक्त कराकर सरकारों के आतंकवाद के नाम पर मुस्लिमों के उत्पीड़न को बेनकाब किया। और इसी जंग में उनको अंत में कुर्ला स्थित उनके चेम्बर में शहादत मिली। शाहिद आजमी की हत्या के निहितार्थ राजनीतिक हैं और इस पर किसको फायदा और किसको नुकसान होगा इसकी जांच जरुरी है और वो तय करेगी कि हमारी सरकारें कितनी निरंकुश हैं।
                                                                                              डेढ़ साल बाद कांग्रेस ने सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे के जरिए आजमगढ़ में घुसने की जो कोशिश की उसे बहुत बड़ी जीत के बतौर देखना हमारी बड़ी भूल होगी। इस यात्रा के जरिए कांग्रेस के न्याय समीकरण जिसके जद में हमारी न्यायपालिकाएं भी हैं इसको आासनी से समझा जा सकता है। जिस दिन यूपी में सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे का गठन हुआ उसी दिन यह भी खबर थी कि शिवानी भटनागर की हत्या के आरोप में बंद आर के शर्मा को जमानत मिली और उनके दामाद अमरेश मिश्र सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चे के प्रभारी बने। अमरेश जिनके सहारे कांग्रेस नयी सियासत करना चाहती है उनकी पुराने थुक्का फजीहती इतिहास को जरुर जानना चाहिए। अमरेश का शुरुवाती दौर में वामपंथी थे और इन पर 1857 की क्रांती को लेकर एक डाक्यूमेंट्ी बनाने के लिए अपने साथी सतेन्द्र सिंह से लिए गए चालीस हजार रुपए के कर्ज को न देने का आरोप भी है और इन पर इस मामले में इलाहाबाद में मुकदमा भी है। खैर यह तो छोटी सी बात है अमरेश ने जो 1857 पर किताब लिखी उसको लाल कृष्ण आडवानी जैसे लोगों से विमोचन करवाकर अवसरवादी और विचारधारा विरोधी कृत्य किया। इसके बाद अमरेश यूडीएफ होते हुए आजमगढ़ में ओलमा काउंसिल की शरण में पहुंचे। पर अपने खरीद-फरोख्त और जहां उनकी परिणति होनी थी उस कांग्रेस में वे अन्ततः समाहित हो गए।
          अमरेश ने बाटला हाउस के बाद इस कांड पर सवाल भी उठाया था और इसी से उन्होंने कांग्रेस से धंधेबाजी की। कांग्रेस का अमरेश को लेकर किया गया मूल्यांकन इसी पर टिका है कि कांग्रेस ने जो आजमगढ़ के मुसलमानों के साथ किया उसका सौदा कैसे किया जा सके। क्योंकि कांग्रेस को अमरेश की हैसियत का पूरा अंदाजा है कि जो व्यक्ति खुद तीन हजार वोट पाता है वो कैसे किसी को वोटों की गणित में उबार पाएगा। लेकिन मनोवैज्ञानिक तरीके से अमरेश ही वो व्यक्ति थे जिसके जरिए कांग्रेस आजमगढ़ में मुंह दिखाने पहुंच सकती थी। कांग्रेस ने इसी गणित में शुरुवाती दौर में ओलमा काउंसिल से बात की पर ओलमा काउंसिल ने दिग्विजय से कहा जो वह बन्द कमरे में बाटला हाउस को फर्जी कहते हैं उसको आगे खुले मंच पर कह के दिखाएं।
         दिग्विजय की यह यात्रा मुस्लिम वोटों के लिए नहीं बल्कि मुसलमानों में मुंह दिखाने के लिए की गयी। क्योंकि ऐसा नहीं है कि मुसलामानों का रुझान कांग्रेस के प्रति नहीं है। अगर ऐसा होता तो लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को बीस सीटें नहीं मिलती। लेकिन अब कांग्रेस के पास पूरे देश में घूम-घूमकर यह कहने के लिए हो गया कि वह आजमगढ़ गयी थी। यहां इस बात को भी जानना जरुरी होगा कि सरायमीर बीनापारा के अबुल बसर की गिरफतारी के बाद पूर्व मुख्य मंत्री रामनरेश यादव बीनापारा गए जहां उन पर पत्थरबाजी की गयी। और कांग्रेस बखूबी जानती थी कि वह अगर वह बिना मुखौटा लगाए आजमगढ़ जाएगी तो इससे ज्यादा दुर्गति होगी और वो मुखौटा बना सांप्रदायिकता विरोधी मोर्चा।
       आजमगढ़ में दिग्विजय ने जो तर्क दिए वो हमारे कमजोर होते लोकतंत्र को दर्शाता है। जैसे जांच की मांग मत करिए देश में जांचों का जो हश्र होता है मुसलमान अच्छी तरह जानता है यह कह दिग्विजय सिंह ने उन दर्जन भर युवकों के परिजनों से सौदेबाजी की जिनके लड़के पिछले डेढ़ साल से गायब हैं। और जो लड़के जेलों में बंद हैं उनके लिए कहा कि एक न्यायालय में मुकदमें चलाए जाएंगे कुल मिलाजुलाकर मुसलमानों के लिए एक रिलीफ पैकेज। क्या दिग्विजय सिंह इसका जवाब देंगे कि जो बार-बार उन्होंने आजमगढ़ दौरे के दौरान कहा कि वे और उनकी पार्टी आजमगढ़ की छवि सुधारना चाहते हैं। आखिर वे कैसे सुधारेंगे। जब देश में धमाके हो रहे थे और हर राज्य हर धमाके में आजमगढ़ के लड़के को कह रहा था तो यह कोई पागलपन नहीं बल्कि भविष्य की राजनीति तय की जा रही थी। एक-एक लड़के पर पांच-पांच राज्यों में धमाकों और उन पर पचास-पचास मुकदमें और डेढ़ सौ से लेकर दो सौ तक गवाह। अब सोचा जा सकता है कि इतने मुकदमें एक नहीं दस जनम में भी नहीं लड़े जा सकते। और अब मुकदमें लड़ने के नाम पर राजनैतिक सोदेबाजी।
          इशरत जहां एनकाउंटर, मोदी और तमांग रिपोर्ट शायद न भूलें हो तो यह भी याद करिए कि उसको माहराष्ट्ा चुनावों में कैसे मुस्लिम वोटों के रुप में तबदील कर लिया गया। तब आखिर जब तमांग मात्र पच्चीस दिनों में रिपोर्ट दे सकते हैं तो आखिर क्यों नहीं बाटला हाउस एनकाउंटर की जांच करवायी जाती। सिर्फ इसलिए कि कांग्रेस का राष्ट्वाद खतरे में पड़ जाएगा। आज उसी को दिग्विजय का चेहरा लगाकर ठीक चुनावों के पहले यह यात्रा महज चुनावों और युवराज की आजमगढ़ में भद्द न पिटे इसके लिए मुसलामनों को मानसिक तौर पर नियंत्रित करने के लिए की गयी।

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