10 अगस्त 2010

ईश्वर का दंभ

अरुण कुमार उरांव
यह मेरे समझ में नहीं आता की जो इंसान भगवान को समझ लेता है।वह इंसान को क्यों नहीं समझ पाता? ऑफिस के दूसरे साल पूरा होने पर निदेशक ने कहा कि आप सभी भगवान के शुक्रगुजार है कि आपसबों को भगवान ने नौकरी दी, उन्होंने रिश्ते नाते को नौकरी देने की प्रक्रिया में वैसे लोगों को भी निकाल दिया । जो अपने वेतन से परिवार चलतेे थे । उन्हें यह याद नहीं था कि उसमें से आधे से अधिक स्टाफ उनके ही सगे संबंधी है। आजकल ऑफिस में बैठकर समाचार में छपे खबर के बारे में बात करना मुश्किल हो गया है। क्योंकि बगल में बैठा आदमी एक दूसरे को शक की निगाह से देखता है। साक्षत्कार में मुझसे जो प्रश्न किये गये वह प्रश्न थे। आदिवासी किस धर्म को मानते है? आदिवासी का निवास स्थान कहां है? यह प्रश्न अधिकारी पूछ रहे थे ।मैं कुछ का उत्तर दिया और कुछ में मौन रह गया। कुछ दिन बाद ऑफिस के केंटीन में बैठकर आपस में कुछ स्टाफ बात कर रहे थे ।उसमें मैं भी शरीक हो गया।बातों-बातों में एक महिला स्टाफ ने मुझसे पूछा कि हमारे गायब हुए डेटा को फिर से प्राप्त किया जा सकता है। मैं हां कर दिया। मैं यह काम तत्काल कैंटीन से आने के बाद ही कर दिया । उसके दूसरे दिन निदेशक अपने कमरे में बुलाया और बरस पड़े। निदेशक का पहला प्रश्न था कि किसके कहने पर आप डेटा को रीकवर किये। दूसरा इस ऑफिस में मेरे सलाह के बिना, ऐसा काम नहीं कर सकते । मैंने अपनी सफाई दी। वह पिछले दो दिन से परेशान थी, जिसके कारण तत्काल डेटा रीकवर करना पड़ा। बाद मैं पता चला कि डेटा को हटवाने का काम निदेशक ने करवाया था। उस महिला को हटाने के लिए यह साजिश रची गई थी । क्योंकि वह ऑफिस की उन महिलाओं में थी? जो निदेशक के पुरूष होने के दंभ को खारीज करती थी ।वह महिला स्टाफ अपने परिवार के लालन पालन के लिए दो जगह नौकरी करती थी। जो निदेशक को नागवार लगता था । सरकार महिलाओं के उत्थान के लिए सार्वजनिक कार्यक्रम का आयोजन ऐसे ही अधिकारी द्वारा आयोजित करवाती है, दीप जलाने से लेकर सभा के समापन भी भगवान के नाम को लेकर ही किया जाता है। सोचने वाली बात यह है कि जब ये अपना असली चेहरा लेकर सामने आते हैं,तो धर्मग्रंथ के सारे नियम कायदे धरा का धरा रह जाता है। ऐसे अधिकारी के हाथों में अंगुली से ज्यादा अंगुठी होती है। भगवान का नाम लेकर ये अधिकारी यह जताने की कोशिश करते हैं कि हम गलती नहीं करते । भारतीय प्रशासनिक सेवा में जिस तरह के चरित्र निखर कर सामने आ चुका है। उससे यह पता कर पाना कि विभाग को किसके भरोसे छोड़ा जाय।सरकारी काम सही समय पर नहीं किया जाता है। यह कमजोरी पिछले दिनों संसद में लिब्राहन रिपोर्ट के हिंदी संस्करण को लेकर देरी ।नौकरशाही व्यवस्था में रिश्वत लेने की प्रक्रिया को तरलता कहा जाता है। रिश्ते नाते को आगे बढ़ाने की प्रक्रिया को सहयोग करना, जिसका परिणाम आजादी के साठ साल बाद भी आरक्षण रहने के बाबजूद नौकरशाह को योगय दलित और आदिवासी नहीं मिल पाया है। सरकार ने इस काम को और आसान कर दिया है। प्रसार भारती के सारे कर्मचारी तीन महीने के अनुबंधन पर नियुक्त किये जाएंगे। ये कर्मचारी अधिकारी के रहमो करम पर ही रह पायेगें। जिससे अधिकारी के सहयोग करने की भावना और भी उजागर होगी।

कुछ दिन बाद चार नये स्टाफ ऑफिस में आये जो काम कम और चुगलखोरी में माहिर है। ये चार स्टाफ बिना साक्षत्कार के रख लिये गए हैं।इनके पक्ष में यह तर्क दिया गया कि इनको काम करने का बेहतर अनुभव है। यह संभव था कि अगर साक्षत्कार के लिए विज्ञापन निकाला जाता तो इसमें योगय व्यक्ति शामिल हो सकता था। लेकिन ऐसा नहीं किया गया क्योंकि ऐसा करने से ये चारों स्टाफ किसी न किसी तरह अयोग्य धोषित कर दिये जाते। भगवान को समझने वाले अधिकारी लोगों के भावनाओं को क्यों नहीं समझ पाते उस समय वह ऐसे किसी व्यक्ति का चयन नहीं करते है।जो वास्तव में उसके हकदार होते है।ऐसे अधिकारी भगवान को तो याद कर लेते है, लेकिन इंसान की भावना को समझ नहीं पाते । क्योंकि उसके सामने नौकरी के लिए आया हुआ व्यक्ति अपने रिश्तेदार से ज्यादा सम्पन दिखाई देता है। इंसान के दुख एवं ब्याकुलता को नाटक समझतें है। यही कारण है कि हमारे समाज में उन्हीं लोगों को सत्संग एवं भजन से बहुत प्यार होता है।जो रोड के किनारे खड़े व्यक्ति को जानवर समझता है। गुरू के प्रवचन का जाप वाताअनुकूलित कमरे में करता है। सहयोग के नाम पर सरकारी धन को दान में दे देते हैं । जिसका परिणाम बाबा को करोड़पति बनने में और गैरकानूनी आश्रम बनवाने के लिए तनिक भी असहजता महशूस नहीं होती ।

जनसत्ता में पूर्व प्रकाशित

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