डॉ. असगर अली इंजीनियर
बहुधार्मिक, बहुसांस्कृतिक व बहुभाषी देषों में प्रजातांत्रिक राजनीति अक्सर धार्मिक, भाषायी, नस्लीय व जातिगत पहचानों पर आधारित होती है। यह एक बहुत जटिल मुद्दा है जिसे गहन विचार और विष्लेषण से ही समझा जा सकता है। परंतु एक बात बहुत साफ है कि वोटों पर आधारित किसी भी षासन व्यवस्था में, पहचान की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।
पहचानों को हम दो हिस्सों में बाँट सकते हैं। पहली हैं वे पहचानें जो जन्म आधारित होती हैं और दूसरी वे जो हम स्वयं बनाते हैं। जन्म-आधारित पहचानंे भावनात्मक ज्वार पैदा करने में सक्षम होती हैं। बाद में बनाई गई पहचानें व्यक्ति की भावनाओं से जुड़ी नहीं रहतीं। हमारी जन्म-आधारित पहचानों को हम चुन नहीं सकते। हाँ, अपने जीवन में हम अपनी क्या पहचान बनाएं, यह हम पर निर्भर रहता है।
अपने ज्ञात इतिहास में भारत हमेषा से बहुसांस्कृतिक व बहुधार्मिक देष रहा है। यहाँ कभी एक संस्कृति या एक धर्म का राज नहीं रहा। बाहर से आये आर्यों, हूणांे, षकों, मुगलों आदि ने भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक व भाषायी विविधता को और बहुरंगी बनाया। ब्रिटिष साम्राज्यवाद ने भी भारत की सांस्कृतिक विविधता को नए आयाम दिए। हर नए प्रवासी, हर नए आक्रमणकारी ने देष की संस्कृति को और समृद्ध किया। ऐसा नहीं है कि केवल बाहर से आए लोगों ने भारत की संस्कृति पर असर डाला। भारत की संस्कृति से वे भी प्रभावित हुए बिना न रह सके। उनकी पहचानों, प्रथाओं व परंपराओं पर भी भारतीय संस्कृति का प्रभाव पड़ा। यही कारण है कि आज हम “भारतीय इस्लाम“ या “भारतीय ईसाई धर्म“ की बात करते हैं। पंरतु इस बारे में हम फिर कभी चर्चा करेंगे।
इस लेख में हमारी विषयवस्तु है आधुनिक, धर्मनिरेपक्ष भारत में इस्लामिक पहचान और राजनीति। इस विषय का ऐतिहासिक पहलू तो है ही ब्रिटिष राज ने इसमें कई नई समस्याएं व जटिलताएं पैदा कर दी हैं। हमारा जोर मुख्यतः वर्तमान परिस्थतियों पर होगा।
इस्लाम, भारत में उत्तर और दक्षिण दोनों दिषाओं से आया। दक्षिण भारत में वह अरब व्यापारियों के जरिए आया। इस्लाम के प्रादुर्भाव के पहले से ही, अरब देषों व केरल (मालाबार) के बीच व्यापारिक रिष्ते थे। यह व्यापार, इस्लाम के आगमन के बाद भी जारी रहा। कई अरबी व्यापारियों ने स्थानीय स्त्रियों से विवाह कर लिया। इन महिलाओं ने इस्लाम अपनाया और इस तरह केरल में इस्लाम का प्रसार होने लगा। केरल में देष की सबसे पुरानी मस्जिद है जिसके बारे में माना जाता है कि उसका निर्माण पवित्र पैगंबर के एक साथी मलिक दिनार ने करवाया था।
उत्तर में इस्लाम मुहम्मद बिन कासिम के हमले के साथ भारत आया। ऐसा कहा जाता है कि मुहम्मद बिन कासिम ने यह हमला, सिंध के राजा दहीर को सबक सिखाने के लिए किया था क्योंकि दहीर ने उन लुटेरांे को कासिम को सौंपने से इंकार कर दिया था जिन्होंने कुछ अरबी व्यापारिक नौकाओं को लूटा था। राजा दहीर की हार हुई और बिन कासिम, सिंध में इस्लाम की विरासत छोड़ गया। जिस तरह दक्षिण में केरल, भारत का पहला इस्लामिक केन्द्र था उसी तरह उत्तर में सिंध देष का पहला वह स्थान था जहाँ इस्लाम पहुँचा। सिंध
धीेरे-धीरे समृद्ध सांझी सभ्यता व संस्कृति का केन्द्र बन गया। सूफी इस्लाम का सबसे ज्यादा प्रभाव सिंध पर ही पड़ा।
मुहम्मद बिन कासिम के बाद उत्तर भारत पर तुर्कों और अनेक मध्य एषियाई आक्रान्ताओं ने हमले किए। हर मुस्लिम आक्रान्ता अपने साथ अपनी अलग संस्कृति लेकर आया। गौरी, गजनवी, खिलजी, तुगलक, लोदी आदि अलग-अलग सांस्कृतिक व भाषायी पृष्ठभूमि से आए थे। वे सत्ता की खातिर एक दूसरे से लड़ते-भिड़ते रहते थे। इस तरह यह साफ है कि षुरूआती दौर से ही भारतीय मुसलमान एकसार नहीं थे। न तो उनकी संस्कृति समान थी और न ही भाषा।
यह दिलचस्प है कि तुर्की, अरबी व फारसी के साथ कुछ उत्तर भारतीय भाषाओं जैसे मैथिली, खड़ी बोली, पूरबी, पंजाबी व संस्कृत (जो सामान्यजनों की भाषा नहीं थी व केवल हिन्दू धार्मिक विद्वानों तक सीमित थी) के सम्मिश्रण से एक नई भाषा उभरी जो उर्दू कहलाई। कुछ ही पीढ़ियों में उर्दू, श्रेष्ठि वर्ग की प्रिय भाषा बन गई। आज, उत्तर भारत में उर्दू मुसलमानों की पहचान का भाग और सांप्रदायिक राजनीति करने वालों के लिए एक मुद्दा बन गई है। उत्तर भारत में एक नई, मिलीजुली संस्कृति उभरी जिसे “गंगा-जमुनी तहज़ीब“ का नाम दिया गया। यह सांझा सांस्कृतिक विरासत-कम से कम षहरी श्रेिष्ठ वर्ग के मामले में-हिन्दुओं व मुसलमानों दोनों की पहचान बन गई।
भारत की इस सांझा संस्कृति ने कई महान संगीतज्ञों, चित्रकारों, वास्तुविदों व कवियों को तो जन्म दिया ही, उसने धार्मिक सहिष्णुता को भी जन्म दिया। परंतु साम्राज्यवादी दौर में उभरी सांप्रदायिक राजनीति ने हिन्दुओं व मुसलमानों की सांझा संस्कृति की बजाय उनके धर्मो के बीच के अंतर पर ज्यादा जोर देना षुरू कर दिया। धर्म को संस्कृति से अधिक महत्व दिया जाने लगा और गलाकाट राजनैतिक प्रतिस्पर्धा ने श्रेिष्ठ वर्ग की जीवन षैली व संस्कृति की एकरूपता पर कुप्रभाव डाला।
जैसा कि पहले कहा जा चुका है, जन्म-आधारित पहचानंे निष्चित व अपरिवर्तनीय होती हैं व इसलिए वे व्यक्ति को सुरक्षा व स्थायित्व का भान कराती हैं। तुलनात्मक रूप से, सांस्कृतिक पहचान की प्रकृति कहीं अधिक जटिल होती है। यद्यपि एक दृष्टि से सांस्कृतिक पहचान भी जन्म-आधारित होती है तथापि उसमें परिवर्तन आते रहते हैं। संस्कृति कभी स्थिर नहीं रहती। उदाहरणार्थ, भारत पर मुस्लिम राजवंषों के राज करना षुरू करने के बाद, भारतीय संस्कृति में बदलाव आने लगे। मुगलों के आने के बाद संस्कृति का फारसीकरण हो गया। फारसी संस्थाओं, भाषा, व्यंजनों आदि को प्रमुखता मिलने लगी।
इसी तरह, ब्रिटिष षासन में, षहरी श्रेष्ठि वर्ग ने अंग्रेजी भाषा के साथ-साथ ब्रिटिष जीवन षैली भी अपना ली। ब्रिटिष षासन के साथ भारत में कई नई राजनैतिक व सामाजिक अवधारणाएं, आधुनिक सोच व नई वैज्ञानिक तकनीकें भी आईं परंतु भारत के आमजनों के लिए ब्रिटिष षासन, मुगलों के षासन की तुलना में कहीं अधिक दुःखदायी था। मुगल राजवंष, भारतीय संस्कृति में घुलमिल गए थे। उन्होंने हिन्दू सामंती व श्रेष्ठि वर्ग से संबंध स्थापित कर लिए थे। उन्हें “बाहरी“ नहीं समझा जाता था। वे भारतीय संस्कृति व समाज का हिस्सा बन गए थे।
ब्रिटिष षासकों ने ऐसा नहीं किया। वे स्वंय को भारतीयों की अपेक्षा अधिक सभ्य व सुसंस्कृत मानते थे और उनसे दूरी बनाए रखते थे। भारतीय भी अंग्रेजों को “विदेषी“ मानते थे और उनके षासन को “गुलामी“। अंग्रेजों के खिलाफ चले राजनैतिक संघर्ष को गुलामी से मुक्ति का संघर्ष ही माना जाता था। यह मुस्लिम षासन व ब्रिटिष षासन के बीच मूल व महत्वपूर्ण अंतर था।
यह भी सच है कि ब्रिटिष षासन ने भारत के हिन्दुओं व मुसलमानों को एक-दूसरे से दूर किया। दोनों समुदायों के सांप्रदायिक तत्व अपनी-अपनी अलग पहचान पर जोर देने लगे। हिन्दू फिरकापरस्तों ने भारत की “गुलामी“ की अवधि को एक हजार साल तक खींच डाला और मुगलकाल को भी उसमें षामिल कर लिया।
ब्रिटिष काल और उसके पूर्व के भारत में एक महत्वपूर्ण अंतर यह था कि ब्रिटिष काल के पहले तक, सत्ता केवल तलवार के बल पर हासिल की जा सकती थी। साम्राज्यवादी काल में कई नए राजनैतिक संस्थान व संगठन अस्तित्व में आए और तलवार का स्थान, मताधिकार ने लिया। यद्यपि यह मताधिकार अत्यंत सीमित था परंतु फिर भी वोट कबाड़ने के लिए धार्मिक पहचानों का उपयोग होने लगा। बड़ी चालाकी से अंग्रेजों ने धार्मिक पहचान को नेपथ्य से मंच पर ला दिया। सांस्कृतिक व क्षेत्रीय पहचानें-जो अधिक महत्वपूर्ण थीं- का स्थान धार्मिक पहचान ने ले लिया।
हिन्दू व मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग अपनी-अपनी धार्मिक पहचान के नाम पर सत्ता में अपना हिस्सा माँगने लगे। सभी राजनीतिज्ञ, यद्यपि, इस सोच के नहीं थे। राजनैतिक श्रेष्ठि वर्ग का एक हिस्सा यह अच्छी तरह से समझता था कि भारत बहुसांस्कृतिक व बहुधार्मिक देष है और भारत तभी एक रह सकता है जब हिन्दू व मुसलमान कंधे से कंधे मिलाकर अंग्रेजों से लडं़े। उन्हें इस बात का भी अहसास था कि स्वतंत्र भारत को धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र ही बनना होगा।
यह महत्वपूर्ण है कि ब्रिटिष काल में धर्म का राग अलापने वालों के लिए भी धर्म महत्वपूर्ण नहीं था। महत्वपूर्ण था सत्ता पर काबिज होना। पढे-लिखे श्रेष्ठि वर्ग की रूचि धार्मिक मसलों में कम, सत्ता पाने में अधिक थी। धार्मिक पहचान की राजनीति ने आगे जाकर एक खतरनाक मोड़ ले लिया। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम षिक्षित श्रेष्ठि वर्ग ने अलगाववाद का रास्ता पकड़ लिया। इसके विपरीत, देवबंद के उलेमा के नेतृत्व में मुस्लिम धार्मिक श्रेष्ठि वर्ग ने कांग्रेस को अपना समर्थन दिया और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रवाद को स्वीकार किया। देवबंद के उलेमा ने देष के विभाजन का विरोध किया और हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन किया। जमायत-ए-उलेमा-ए-हिंद के तत्कालीन अध्यक्ष मौलाना हुसैन अहमद मदनी ने एक पुस्तिका लिखी जिसका षीर्षक था “मुत्तहिदा कौमियत और इस्लाम“ (सांझा राष्ट्रवाद और इस्लाम) जिसमें उन्होंने कुरान और हदीस के आधार पर सांझा राष्ट्रवाद का समर्थन किया और मुस्लिम लीग के मुसलमानांे के अलग राष्ट्र होने के दावे को गलत ठहराया।
पढ़े-लिखे वर्ग व धार्मिक वर्ग की सोच में यह अंतर इसलिए था क्योंकि जहां षिक्षित श्रेष्ठि वर्ग की प्राथमिकता सत्ता पाना था वहीं धार्मिक नेता केवल आजाद भारत चाहते थे-ऐसा आजाद भारत जिसमें वे बिना किसी रोकटोक या डर के अपने धर्म का पालन कर सकें।
स्वतंत्र भारत में मुस्लिम पहचान
भारतीय संविधान धर्मनिरपेक्ष है और सभी नागरिकों को पूर्ण धार्मिक स्वतंत्रता व मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है। संविधान, धार्मिक व भाषायी अल्पसंख्यकों को कुछ विषेष अधिकार भी देता है जिनमें षामिल हैं स्वयं के सांस्कृतिक संगठनों की स्थापना का अधिकार व अपने धर्म व संस्कृति की रक्षा व प्रसार करने का अधिकार। (अनुच्छेद 30)
भारत में अल्पसंख्यकों ने अपने षैक्षणिक व सांस्कृतिक संस्थान स्थापित भी किए हैं। ऐसा ही एक संस्थान है “अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी“। इस संस्थान का अल्पसंख्यक चरित्र बनाए रखने के लिए मुसलमानों को लंबी व कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी। इसी तरह, उर्दू के भी बुरे दिन आ गए हैं। स्वतंत्रता के पहले तक, उत्तर भारत में उर्दू को जो महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था वह धीरे-धीरे खत्म हो गया। उर्दू का स्थान देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी ने ले लिया।
यद्यपि मुस्लिम पर्सनल लॉ “(षरीयत कानून) से छेड़छाड़ नहीं की गई तथापि हिन्दू दक्षिणपंथी ताकतें लगातार समान नागरिक संहिता की बात उठाती रहीं हैं और इसे मुसलमान अपनी पहचान के लिए खतरा मानते हैं। धर्मनिरपेक्ष मुस्लिम बुद्धिजीवी भी यह स्वीकार करते हैं कि स्वतंत्र भारत में इस्लामिक पहचान, भावनात्मक मुद्दों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। मौलाना आजाद व जाकिर हुसैन के बाद कोई ऐसा मुस्लिम नेता नहीं हुआ जिसकी पूरे देष में प्रतिष्ठा व सम्मान हो। उल्टे, मुस्लिम नेताओं ने भावनात्मक मुद्दों का दोहन करने की कोषिष की और इस प्रयास में हिन्दू फिरकापरस्तों को और मजबूत किया।
नेहरू जैसे सम्मानित, लोकप्रिय व प्रतिबद्ध नेता भी स्वतंत्रता के बाद के भारत में साम्प्रदायिक दंगे नहीं रोक सके। इनसे मुसलमानों में असुरक्षा का भाव पनपा। स्वतंत्र भारत का पहला बड़ा साम्प्रदायिक दंगा मध्यप्रदेष के जबलपुर षहर में सन् 1961 में हुआ था। नेहरूजी को कतई अपेक्षा नहीं थी कि स्वतंत्र भारत में इतने भीषण दंगे होंगे और जबलपुर दंगे ने उन्हें बहुत व्यथित किया। वे आदर्षवादी थे और मानते थे कि स्वतंत्र भारत की जनता, धर्मनिरेक्षता के मूल्यों की स्वयं ही रक्षा करेगी। परंतु ऐसा नहीं हुआ।
इसके पीछे कई कारण थे। यद्यपि कांग्रेस, सिद्धांततः धर्मनिरपेक्ष थी परंतु स्वतंत्रता संग्राम के दिनों से ही हर किस्म के तत्वों ने कांग्रेस में घुसपैठ कर ली थी। इनमें से कुछ ही धर्मनिरपेक्षता के प्रति अंसदिग्ध प्रतिबद्धता रखते थे। यहां तक कि कांग्रेस के षीर्ष नेतृत्व में भी ऐसे दक्षिणपंथी हिन्दू विचारधारा वाले लोग थे जो अल्पसंख्यकों से मन ही मन चिढते थे। मध्य व निचले स्तर पर तो ऐसे तत्वों की भरमार थी। ऐसा कहा जाता है कि जबलपुर में षांति स्थापना के लिए नेहरू के दूत के रूप में मध्यप्रदेष पहुंची सुभद्रा जोषी से मुख्यमंत्री कैलाष नाथ काटजू ने काफी उपेक्षापूर्ण व्यवहार किया था।
इसके अतिरिक्त, देष के विभाजन ने उत्तर भारत के हिन्दुओ के मन में मुसलमानों के प्रति काफी कटुता पैदा कर दी थी। वे सभी मुसलमानों को विभाजन के लिए जिम्मेदार मानते थे। यहां तक कि उनमें से कुछ यह मानते थे कि चूंकि मुसलमानों ने अपना अलग देष ले लिया है इसलिए उन्हें भारत में रहने का कोई हक नहीं है। जनसंघ यह बात काफी लंबे समय तक कहता रहा। कई धर्मनिरपेक्ष हिन्दू भी ऐसा ही मानते थे।
तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि स्वतंत्र भारत में पाठ्य पुस्तकों में अपेक्षित सुधार नहींे किए गए। ये पुस्तकें वही पढ़ाती रहीं जो हमारे ब्रिटिष षासक हमें पढ़ाना चाहते थे। ये पुस्तकें आज भी जहर फैला रही हैं। वे बालमनों में यह भर रही हैं कि मुसलमान हमेषा से हिन्दुओं को घृणा की दृष्टि से देखते आ रहे हैं और उन्होंने हिन्दुओं के सैकड़ों मंदिर नष्ट किए हैं।
हर चुनाव, धार्मिक व जातिगत मुद्दों पर लड़ा जाता है और हर चुनाव के बाद साम्प्रदायिकता तथा जातिवाद और मजबूत होकर उभरते हैं। (षेष अगले अंक में)
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।)
एल. एस. हरदेनिया
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