राम पुनियानी
अयोध्या मामले में इलाहबाद उच्च न्यायालय, 24 सितम्बर 2010 को अपना फैसला सुनाने वाला है। यह मामला अदालतों में कई दषकों से लंबित है। मूलतः, अदालत को तीन मुद्दों पर अपना निर्णय सुनाना है। पहला यह कि क्या विवादित भूमि पर सन् 1538 के पहले कोई मंदिर था? दूसरा यह कि क्या बाबरी मस्जिद कमेटी द्वारा सन् 1961 में दायर मुकदमा, निर्धारित समय सीमा बीत जाने के बाद पेष किया गया है और इसलिए सुनवाई योग्य नहीं है? और तीसरा यह कि क्या उक्त स्थान पर मुसलमानों के लंबे समय तक लगातार काबिज रहने से उस पर उनका मालिकाना हक स्थापित हो गया है?
जहां एक ओर फैसले का इंतजार हो रहा है वहीं इस मुद्दे पर तनाव बढ़ता जा रहा है। इस मामले को आस्था से जोड़ दिया गया है और काफी लंबे समय से इसका इस्तेमाल साम्प्रदायिक जुनून पैदा करने के लिए किया जाता रहा है। राम के नाम पर खड़े किए गए साम्प्रदायिकता के दानव के मुख्य षिकार मुसलमान हुए हैं।
इस विवाद की षुरूआत 22 दिसम्बर 1949 की रात को हुई जब कुछ हिन्दुत्व कार्यकर्ता, जबरदस्ती बाबरी मस्जिद में घुस गए और वहां पर रामलला की मूर्तियां स्थापित कर दीं। तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बार-बार कहने के बाद भी राज्य सरकार व स्थानीय प्रषासन ने इस मामले में कोई निर्णायक कदम नहीं उठाया। दिलचस्प बात यह है कि फैजाबाद के तत्कालीन जिला मजिस्ट्रेट के. के. नैयय्र, जिन्होंने इस विवाद के बीज बोए थे, बाद में भारतीय जनसंघ के सदस्य बन गए। वे उस क्षेत्र से सांसद भी चुने गए।
सन् 1980 के दषक में भाजपा ने बाबरी मस्जिद को अपने लिए वोट कबाड़ने का मुख्य हथियार बना लिया। विहिप और अन्य संगठनों के दबाव में आकर प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने बिना सोचे-समझे बाबरी मस्जिद के ताले खुलवा दिए और वहां मंदिर निर्माण के लिए षिलान्यास हो गया। आडवानी की रथयात्रा ने इस मुुद्दे को और गर्माया। हिंसा षुरू हुई और अंततः तथाकथित कारसेवकों ने 6 दिसम्बर 1992 को मस्जिद को गिरा दिया। मस्जिद को गिराने के काम का समन्वय भाजपा-विहिप-बजरंग दल ने किया और यह पूरी कार्यवाही इन संगठनों की पितृ संस्था आरएसएस की देखरेख में हुई। मस्जिद के ढहाए जाने के बाद देष भर में, विषेषकर मुंबई, सूरत और भोपाल में भयावह दंगे हुए। मस्जिद के ढहाए जाने के बाद से भाजपा की ताकत बढ़ने लगी। लोकसभा में उसके सदस्यों की संख्या में आषातीत वृद्धि हुई और यहां तक कि वह केन्द्र में सत्ता में आने में सफल हो गई। अपनी साम्प्रदायिक राजनीति व रणनीति के बावजूद पिछले दो आम चुनावों (2004 एवं 2009) में भाजपा ने बुरी तरह मुंह की खाई।
भाजपा लंबे समय से किसी भावनात्मक मुद्दे की तलाष में है जो उसे एक बार फिर सत्ता में ला सके। इस दिषा में उसने संघ परिवार के अन्य सदस्यों के जरिए कई प्रयोग किए परंतु वे असफल रहे। अयोध्या मामले में अदालती निर्णय आने की संभावना ने संघ परिवार को अत्यंत उत्साहित कर दिया है और वह यह मांग कर रहा है कि अदालत चाहे जो फैसला दे अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर ही बनना चाहिए।
समाज के विभिन्न हिस्सों में फैसले के इंतजार में विभिन्न तरह की गतिविधियां हो रही हैं। अयोध्या के स्थानीय षांति संगठन, जिन्होंने बाबरी मस्जिद ढ़हाए जाने के बाद अयोध्या में षांति बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, अपील कर रहे हैं कि अदालत जो भी निर्णय दे उसे दोनों पक्षों को स्वीकार करना चाहिए और यही सामाजिक सद्भाव व नैतिकता के हित में होगा। सरकार इसे एक कानूनी मसला मानकर लोगों से समाज में षांति बनाए रखने की अपील कर रही है। अधिकांष मुस्लिम संगठनों ने कानून व व्यवस्था बनाए रखने का अनुरोध किया है। उन्होंने यह भी साफ कर दिया है कि वे अदालत के निर्णय को स्वीकार करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
दूसरी ओर, “हिन्दुओं का एकमात्र प्रतिनिधि“ संघ परिवार अपना अलग राग अलाप रहा है। उसका कहना है कि अदालत का फैसला अर्थहीन है और अदालत चाहे जो कहे, विवादित स्थल पर राम मंदिर ही बनना चाहिए क्योंकि यह हिन्दुओं की “इच्छा“ है। आरएसएस प्रमुख कई बार यह कह चुके हैं कि राम मंदिर तो उस स्थल पर बनेगा ही परंतु मुस्लिम यदि उसे स्वीकार कर लेंगे तो वे अपने आप को देषभक्त साबित करेंगे!
इस मामले में भाजपा बहुत उत्साह नहीं दिखा रही है। उसे ऐसा लगता है कि पिछले दो आम चुनावों के नतीजों ने यह साबित कर दिया है कि भारत की जनता, राजनीति में इस तरह के मुद्दों के घालमेल के पक्ष में नहीं है। परंतु भाजपा की तुलनात्मक उदासीनता से आरएसएस को कोई समस्या नहीं है। उसके पास अपना एजेन्डा लागू करने के लिए कई मुखौटे हैं। इनमें से एक, विहिप ने एक जोरदार आंदोलन प्रारंभ भी कर दिया है। गोष्ठियों, पर्चों, पुस्तिकाओं और एसएमएस के जरिए, हिन्दुओं का आव्हान किया जा रहा है कि वे विवादित स्थल पर राम मंदिर बनाए जाने की मांग करें। विहिप की अपील की भाषा मंे भावनात्मकता का जोरदार तड़का लगाया गया है और इसका उद्देष्य हिन्दुओं को उत्तेजित करना है। वो अपने इस अभियान में “साधुओं“ को भी षामिल करने जा रही है और उसने अदालती निर्णय के परिपेेक्ष्य में धर्मससंद बुलाने की घोेषणा भी की है। स्पष्टतः यह धर्मसंसद यह मांग करेगी कि अदालत का निर्णय चाहे जो हो उक्त स्थान पर मंदिर बनना ही चाहिए।
बुद्धिजीवियों का एक वर्ग यह मांग कर रहा है कि एक स्थायी “हिस्ट्री एण्ड ट्रूथ कमीषन“ (इतिहास व सत्यान्वेेषण आयोग) गठित किया जाए जो अतीत में हुए अत्याचारों या गलतियों के दावों की सच्चाई का पता लगाए। इस मांग से यह तो पता चलता ही है कि इतिहास का राजनैतिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए कितना अधिक इस्तेमाल किया जा रहा है। हमारे ब्रिटिष षासकों ने सबसे पहले इतिहास का साम्प्रदायिकीकरण किया था ताकि वे अपनी “फूट डालो और राज करो“ की नीति पर अमल कर सकें। जहां मुस्लिम लीग व हिन्दू महासभा-आरएसएस ने इतिहास के इस साम्प्रदायिक संस्करण को अपनाया वहीं गांधीजी के नेतृत्व में चले राष्ट्रीय आंदोलन ने इतिहास की साम्प्रदायिक व्याख्या को स्वीकार नहीं किया। लोगों को एक करने के लिए यह आवष्यक था। भगतसिंह और अम्बेडकर की दृष्टि में भारत का इतिहास, आर्थिक वर्ग या जाति के आधार पर दमन का इतिहास था। उनके लिए इस बात का कोई महत्व नहीं था कि षासक किस धर्म या जाति के थे। एक ओर इस तरह के आयोग की नियुक्ति के प्रस्ताव का स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि अंग्रेज जो जहर हमारे समाज में फैला गए हैं उसे खत्म करने के लिए यह एक प्रभावी तरीका हो सकता है। दूसरी ओर हमें यह ध्यान भी रखना चाहिए कि इतिहास केवल राजाओं और बादषाहों का इतिहास नहीं है और इन षासकों को धर्म के चष्मे से देखना तो कतई उचित नहीं कहा जा सकता। हमें केवल षासकों के इतिहास को इतिहास नहीं मानना चाहिए। श्रमिकों, किसानों, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को भी इतिहास में उपयुक्त स्थान मिलना चाहिए।
यह देखना बहुत महत्वपूर्ण होगा कि भारत, मंदिर विवाद की चुनौती से कैसे निपटता है। रोटी, कपड़ा, मकान और रोजगार जैसी मूल समस्याओं का हल खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। मंदिर-मस्जिद विवादों को इतिहासज्ञों को सौंपकर भुला दिया जाना ही उचित होगा। हम सब को यह दृष्किोण अपनाना होगा और यह निष्चय भी करना होगा कि हम भारतीय संविधान के मूल्यों और इस देष की विधिक प्रक्रिया को समुचित सम्मान देंगे।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
एल. एस. हरदेनिया
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