-राम पुनियानी
इलाहबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ बेंच की तीन जजों की पीठ ने अयोध्या मामले में 30 सितम्बर 2010 को फैसला सुनाया। आशंकाओं के विपरीत, उस दिन और उसके बाद देश में कहीं हिंसा नहीं हुई। इसका श्रेय आमजनों की परिपक्व सोच को जाता है।
जहां तक इस निर्णय का सवाल है, यह तीनों पक्षकारों-रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा व सुन्नी वक्फ बोर्ड-के बीच संतुलन कायम करने की कवायद के सिवाय कुछ नही है। विवादित भूमि को तीन भागों में बांट दिया गया है और तीनों पक्षकारों को बराबर-बराबर जमीन दे दी गई है। अदालत ने यह भी कहा है कि चूंकि हिन्दुओं की आस्था के अनुसार बाबरी मस्जिद के बीच के गुंबद के ठीक नीचे भगवान राम का जन्मस्थल है इसलिए वह हिस्सा हिन्दुओं को दिया जाना चाहिए। फैसले से उत्साहित, आरएसएस प्रमुख ने घोषणा की है कि अब विवादित भूमि पर भव्य राम मंदिर बनाने का रास्ता साफ हो गया है और इस “राष्ट्रीय कार्य“ में सभी पक्षों को अपना सहयोग देना चाहिए।
इस मामले में मुलायम सिंह यादव की प्रतिक्रिया बिल्कुल ठीक है। श्री यादव का कहना है कि मुसलमान ठगे से महसूस कर रहे हैं। पहले उनकी मस्जिद में रात के अंधेरे में कुछ शरारती तत्व जबरदस्ती घुसकर रामलला की मूर्तियां स्थापित कर देते हैं। फिर, एक योजनाबद्ध षड़यंत्र के तहत संघ परिवार उस मस्जिद को ही जमींदोज कर देता है। और अब, न्यायालय ने संघ के इस दावे पर अपनी मोहर लगा दी है कि भगवान राम उसी स्थल पर जन्मे थे। ऐसा लगता है कि इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन में रत अध्येता अपना समय और उर्जा बर्बाद कर रहे हैं। उनके ज्ञान की किसी को कोई आवश्यकता ही नहीं है। इतिहास और पुरातत्व विज्ञान चाहे कुछ भी कहता रहे, कोई भी राजनैतिक शक्ति, किसी भी आधारहीन तथ्य को आस्था का जामा पहना देगी और फिर उस आस्था के अनुरूप गैर-कानूनी कार्य करेगी और अंततः अदालत उसके आपराधिक कृत्यों को इस
आधार पर सही ठहरा देगी कि वे समाज के एक हिस्से की आस्था पर आधारित हैं! इस देश के जो नागरिक हमारे स्वाधीनता संग्राम और भारतीय संविधान के मूल्यों में आस्था रखते हैं उनके लिए यह अकल्पनीय है कि कोई अदालत इस तरह का निर्णय दे सकती है।
संघ परिवार ने सन् 1980 के दशक में राममंदिर आंदोलन का पल्ला थामा। उसने अत्यंत योजनाबद्ध तरीके से हिन्दुओं के एक तबके को यह विश्वास दिला दिया कि भगवान राम ठीक उसी स्थल पर पैदा हुए थे जहां बाबरी मस्जिद स्थित थी। दिलचस्प बात यह है कि चन्द सदियों पहले तक राम, हिन्दुओं के प्रमुख देवता नहीं थे। वे मध्यकाल में प्रमुख हिन्दू देवता बने, विशेषकर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा राम की कहानी को सामान्य जनों की भाषा अवधी में प्रस्तुत करने के बाद। तब तक वाल्मिकी की संस्कृत रामायण प्रचलन में थी और चूंकि संस्कृत श्रेष्ठि वर्ग की भाषा थी इसलिए राम के पूजकों की संख्या अत्यंत सीमित थी। ब्राहम्ण तुलसीदास से बहुत नाराज थे क्योंकि उन्होंने ब्राहम्णों की देवभाषा संस्कृत की जगह जनभाषा अवधी में रामकथा लिखी। जिस समय विवादित भूमि पर स्थित कथित राम मंदिर को तोड़ा गया था उस समय तुलसीदास की आयु लगभग 30 वर्ष रही होगी। क्या यह आश्चर्यजनक नहीं कि तुलसी जैसे अनन्य रामभक्त ने अपने लेखन में कहीं इस बात की चर्चा नहीं की है कि उनके आराध्य के जन्मस्थल पर बने मंदिर को एक आतातायी बादशाह ने गिरा दिया है।
यह साफ है कि शासक-चाहे वे किसी भी धर्म के रहे हों-केवल सत्ता और संपत्ति के उपासक थे। कई मौकों पर वे युद्ध में पराजित राजा को अपमानित करने के लिए उसके राज्य में स्थित पवित्र धर्मस्थलों को नष्ट करते थे परंतु इसके पीछे केवल राजनीति होती थी धर्म नहीं। अंग्रेजों ने अपनी फूट डालो और राज करो की नीति के तहत इतिहास की इन घटनाआंे को इस रूप में प्रस्तुत किया कि मुस्लिम राजाओं ने हिन्दू धर्म का अपमान करने के लिए हिन्दू मंदिर ध्वस्त किए। साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से लिखे गए इसी इतिहास ने दोनों समुदायों को एक दूसरे का शत्रु बना दिया और यही बैरभाव आगे जाकर साम्प्रदायिक हिंसा का कारण बना। बाबरी मस्जिद एक संरक्षित स्मारक थी जिसकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारत सरकार की थी। भारत सरकार न तो 1949 में वहां गैरकानूनी ढंग से स्थापित रामलला की मूर्तियों को हटवा सकी और न ही 1992 में मस्जिद पर संघ परिवार के हमले को रोक सकी। भारत सरकार की ये दो बड़ी असफलताएं थीं।
अयोध्या मामले में हालिया निर्णय से आरएसएस के देश को साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत करने के एजेन्डे को बढ़ावा मिलेगा। इस निर्णय ने रामलला की मूर्तियों की स्थापना को वैधता प्रदान की है और बाबरी मस्जिद को ढहाए जाने के अपराध को नजरअंदाज किया है। संघ परिवार को अपने गुनाहों का शानदार इनाम मिला है।
अब आरएसएस और उसके बाल-बच्चे यह कह रहे हैं कि मुसलमानों को अपने हिस्से की जमीन हिन्दुओं को सौंप देनी चाहिए ताकि भव्य राम मंदिर बनाकर “राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं“ की पूर्ति की जा सके। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारतीय राष्ट्र, केवल हिन्दुओं का नहीं है। साथ ही, सभी हिन्दू इस बात में विश्वास नहीं करते कि विवादित स्थल भगवान राम की जन्मभूमि है और न ही सभी हिन्दू वहां राममंदिर बना देखना चाहते हैं। अधिकांश हिन्दू राम जन्मभूमि मुद्दे से दूर रहे हैं और उन्हें अत्यंत क्षोभ है कि आम हिन्दुओं की राम में आस्था का दुरूपयोग, भाजपा को सत्ता दिलाने के लिए किया गया। जब से राम मंदिर चुनावी मुद्दा बना, हिन्दुओं की बहुसंख्या ने कभी राम मंदिर के एजेन्डे का समर्थन नहीं किया। हिन्दुओं का एक तबका अवश्य राम मंदिर का समर्थक है परंतु विभिन्न चुनावों के परिणामों से साफ है कि बहुसंख्यक हिन्दू, राम मंदिर के एजेन्डे के साथ नहीं हैं। हाल में किए गए कुछ सर्वेक्षणों से यह सामने आया है कि हिन्दुआंें के एक बहुत छोटे हिस्से के लिए राम मंदिर एक मुद्दा है। युवा पीढ़ी को राम मंदिर से कोई लेना-देना नहीं है- विशेषकर ऐसे राम मंदिर से जिसे देश पर दो अपराधों के जरिए थोपा जा रहा हो।
कांग्रेस इस मुद्दे को मिल-बैठकर सुलझाने की बात कर रही है। संवाद के जरिए इस मुद्दे का क्या हल निकाला जा सकता है? पहली बात तो यह है कि कोई भी हल न्यायपूर्ण होना चाहिए और उसमें सभी संबंधित पक्षकारों के अधिकारों को मान्यता मिलनी चाहिए। कोई भी समझौता केवल लेनदेन के आधार पर हो सकता है। क्या जो लोग मुस्लिम समुदाय से सहयोग और समझौता करने के लिए कह रहे हैं, वे यह वायदा कर सकते हैं कि उसके बाद देश में मुसलमानों को सुरक्षा और समानता मिलेगी? मुस्लिम समुदाय सामाजिक-आर्थिक मानकों पर पिछड़ता जा रहा है। क्या सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्रा आयोग की रपटें बिना किसी देरी के लागू की जाएंगी? क्या आरएसएस राम मंदिर के बदले ये सब देने को तैयार है? क्या इसके बाद भारत मंे मुसलमान महफूज रहेंगे? मुसलमान भारत की आबादी का केवल 13.4 प्रतिशत हैं परंतु दंगों में मारे जाने वालों में से 80 प्रतिशत मुसलमान होते हैं। क्या मुसलमानों के सहयोग से अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनने के बाद आरएसएस अपने शिशु मंदिरों में मुसलमानों के खिलाफ घृणा फैलाने वाली पाठ्पुस्तकें पढ़ाना बंद कर देगा?
इस तरह के समझौते में कोई समस्या नहीं है। बल्कि, यह बहुत अच्छा होगा अगर अयोध्या में राम मंदिर के बदले ईसाई और मुस्लिम अल्पसंख्यकों को देश मंे समानता का दर्जा मिल जाए, अगर उनके खिलाफ किया जा रहा आधारहीन दुष्प्रचार बंद कर दिया जाए और अगर सरकार, मनमोहन सिंह के इस वायदे पर अमल करने को तैयार हो जाए कि देश के संसाधनों पर मुस्लिम अल्पसंख्यकों का पहला हक है। क्या राम मंदिर बनाने में सहयोग के बदले साम्प्रदायिक दंगों के दोषियों को सजा मिलना सुनिश्चित किया जाएगा? दिल्ली के सिक्ख विरोधी दंगों और मुंबई व गुजरात की मुस्लिम विरोधी हिंसा के लिए दोषी व्यक्ति आज भी छाती फुलाए घूम रहे हैं। क्या उनको उनके कुकर्मों की सजा दिलवाना, उस “बातचीत“ से निकाले जाने वाले हल का भाग होगा? क्या मुसलमानों से त्याग की अपेक्षा करने के पहले भारतीय राज्य उन्हें यह गारंटी नहीं देना चाहेगा कि देश मंे कानून का राज रहेगा और उन्हेें पूरी सुरक्षा और आगे बढ़ने के समान अवसर मिलेंगे?
यह साफ है कि राम मंदिर के मुद्दे का इस्तेमाल भारतीय संविधान की आत्मा को आहत करने और विभिन्न समुदायों के बीच सद्भाव को खत्म करने के लिए किया जाता रहा है। अल्पसंख्यकों से त्याग करने की अपील तो हम सब कर सकते हैं परंतु हम सभी को यह मालूम है कि उन्हें इस त्याग के बदले कुछ नहीं मिलेगा। साम्प्रदायिकता हमारे देश की सामूहिक सोच में इतनी मजबूत जड़ें जमा चुकी है कि मुसलमानों को दूसरे दर्जे का नागरिक बना दिया गया है। हिन्दू राष्ट्र के पैरोकार, हिन्दुत्व की राजनीति के झंडाबरदार मुसलमानों को कभी शांति और गरिमा से नहीं रहने देंगे। संघ परिवार के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी मूलभूत आवश्यकताएं कम महत्वपूर्ण हैं और अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए राम मंदिर, राम सेतु, गौ-हत्या आदि जैसे काल्पनिक मुद्दे अधिक।
यह सचमुच अत्यंत दुःखद है कि समाज और राजनीति का इस हद तक साम्प्रदायिकीकरण हो चुका है कि एक राजनैतिक धारा विशेष द्वारा प्रायोजित “आस्था“, न्यायिक निर्णयों का आधार बन रही है। यह भारत के लिए एक बहुत बुरा दिन है। हम केवल उम्मीद कर सकते हैं कि युवा पीढ़ी और वे सब जो भारतीय संविधान में विश्वास करते हैं, संकीर्ण पहचान की राजनीति से दूरी बनाएंगे-उस राजनीति से जो धार्मिक आस्था को सत्ता तक पहुंचने का शार्टकट बनाना चाहती है। हमंे उम्मीद है कि हम ऐसे समाज को बनाने में सफल हांेगे जहां सबको न्याय मिलेगा और समाज के पिछड़े वर्गों के साथ विशेष रियायत बरती जाएगी।
(लेखक आई.आई.टी. मुंबई में पढ़ाते थे, और सन् 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं।)
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