06 अक्तूबर 2010

धर्मनिरपेक्ष भारत में इस्लामिक पहचान (भाग 2)

-डॉ. असगर अली इंजीनियर

यद्यपि “वोट बैंक की राजनीति“ षब्द को गढ़ने का श्रेय भारतीय जनता पार्टी को है तथापि अब वोट बैंक की राजनीति सभी दल कर रहे हैं। हर राजनैतिक दल ने जाति और धर्म के अपने-अपने फार्मूले ईजाद कर लिए हैं, जिनके आधार पर वे चुनाव में विजय प्राप्त करना चाहते हैं। भाजपा के पास ऊँची जातियों व अन्य पिछड़े वर्गों के हिन्दुओं का अपना वोट बैंक है। यह इसके बावजूद कि भाजपा, कांग्रेस पर हमेषा से मुसलमानों का तुष्टिकरण कर उनका इस्तेमाल वोट बैंक के रूप में करने का आरोप लगाती रही है। वोट बैंक राजनीति के मामले में भाजपा, कांग्रेस से पीछे नहीं है। सच तो यह है कि कांग्रेस पर मुसलमानों के तुष्टिकरण का आरोप लगाने से उसे हिन्दुओं के एक तबके का समर्थन हासिल होता रहा है।
हिन्दुओं और मुसलमानों की पहचान और उनके आपसी संबंधों की दृष्टि से अस्सी के दषक के मध्य से लेकर नब्बे के दषक के मध्य के बीच घटी दो घटनाएं महत्वपूर्ण हैं। पहली है षाहबाने मामला और दूसरी रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद आंदोलन। षाहबानो एक मुस्लिम तलाकषुदा महिला थी जिसने अपने पूर्व पति से एक धर्मनिरपेक्ष भारतीय कानून-दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125-के तहत गुजारे भत्ते की मांग की। यह कानून उसे तब तक गुजारा भत्ता पाने का अधिकार देता था जब तक कि वह या तो पुर्नविवाह कर ले या उसकी मृत्यु हो जावे। जिस समय षाहबानो का तलाक हुआ उसकी उम्र 70 वर्ष की थी। उसकी मांग को जिला अदालत से लेकर उच्चतम न्यायालय तक सभी न्यायालयों ने उचित ठहराया और उसके पति को उसे गुजारा भत्ता देने का आदेष दिया।
उसके पति का कहना था कि चूंकि वे दोनों मुस्लिम हैं इसलिए उनपर केवल षरीयत कानून लागू होगा जिसके अनुसार तलाकषुदा बीवी केवल तीन महीने की इद्दत की अवधि के दौरान ही गुजारा भत्ता पाने की हकदार होती है। उसने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी इस मामले में पक्षकार बनाया परंतु उसकी कोई अपील स्वीकार नहीं हुई। उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद, देष के मुस्लिम नेताओं ने, जो हमेषा ऐसे मुद्दों की तलाष में रहते हैं जिनका इस्तेमाल भावनाएं भड़काने के लिए किया जा सके, इस मामले पर एक बहुत षक्तिषाली और आक्रामक आंदोलन खड़ा कर दिया। यह दावा किया गया कि भारत में इस्लाम और इस्लामिक पहचान खतरे में है।
दसियों लाख मुसलमान सड़कों पर उतर आए और उन्होंने षाहबानो मामले में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का इतना कटु विरोध किया कि अंततः राजीव गांधी सरकार ने इस निर्णय को पलटने के लिए एक नया कानून बनाया। “मुस्लिम वीमेन (प्रोटेक्षन आन डिवोर्स) एक्ट“ बनाया गया जिसके तहत मुस्लिम तलाकषुदा महिलाओं को केवल तीन माह तक गुजारा भत्ता पाने का अधिकार दिया गया।
षाहबानो मामले ने देष में एक अत्यंत व्यापक और कटु बहस छेड़ दी। धर्मनिरपेक्षता के अर्थ और धार्मिक पहचान के प्रष्न पर देष में विवाद उठ खड़ा हुआ। एक दूसरे को नीचा दिखाने और सत्ता में आने की आपसी होड़ के चलते मुस्लिम नेतृत्व ने आम मुसलमानों के हितों को गहरा आघात पहुंचाया। हिन्दू मध्यम वर्ग को भाजपा के इस आरोप पर भरोसा होने लगा कि कांग्रेस सरकार, मुसलमानों के वोट पाने के लिए उनका तुष्टिकरण करती है और वे भाजपा से जुड़ने लगे। कांग्रेस की अवसरवादिता को उच्च जातियों व उच्च आर्थिक वर्गों के हिन्दू, मुसलमानों के तुष्टिकरण के रूप में देखने लगे।
षाहबानो आंदोलन, मुस्लिम पहचान का अत्यंत गैर-जिम्मेदाराना और बिना सोचे-समझे किया गया दुरूपयोग था जिसने मुस्लिम समुदाय को बहुत नुकसान  पहुंचाया और दक्षिपंथी हिन्दू ताकतों-जो बाद में संघ परिवार कहलाईं-को मजबूती देने में महती भूमिका निभाई। धर्मनिरपेक्ष भारत में साम्प्रदायिक हिन्दू पहचान के प्रतिनिधि के रूप में आरएसएस, विहिप, बजरंग दल आदि उभरे।
षाहबानो मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय को पलटने के अपने कदम पर न केवल हिन्दुओं बल्कि
धर्मनिरपेक्ष षक्तियों की तीखी प्रतिक्रिया से राजीव गांधी सरकार इतनी घबड़ा गई कि उसने एक और मूर्खता कर दी। सरकार ने चालीस साल से बंद बाबरी मस्जिद के दरवाजे हिन्दुओं के लिए खोल दिए। हिन्दुओं को राम की पूजा करने का अधिकार देकर राजीव गांधी ने एक प्रकार से राम जन्मभूमि मंदिर और आंदोलन दोनों की नींव डाली।
राजीव गांधी को लगा कि षाहबानो मामले में नया कानून बनाकर और राम जन्मभूमि काम्पलेक्स के ताले खुलवाकर उन्होेंने मुसलमानों और हिन्दुओं दोनों को प्रसन्न कर दिया है। परंतु कांग्रेस के इन अवसरवादी कदमों को दोनों ही समुदायों के बड़े हिस्से ने पसंद नहीं किया। कांग्रेस ने दोनों समुदायों का समर्थन खो दिया और राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेेस 1989 का चुनाव हार गई।  यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता के लिए अत्यंत नाजुक दौर था। पहचान की राजनीति ने भारत की आत्मा को चोट पहुंचाई थी। कांग्रेस सरकार और भाजपा के नेतृत्व वाले विपक्ष दोनों ने धर्मनिरपेक्ष मूल्यों को नष्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी।
धार्मिक पहचान की इस कीचड़ भरी राजनीति में कांग्रेेस ने मात खाई और भाजपा विजयी होकर उभरी। इसके पीछे कई कारण थे। कांग्रेस ने अधिकांष चुनाव ब्राहम्णों, मुसलमानों और दलितों के वोट हासिल कर जीते थे। परंतु इस खेल को कांग्रेस बहुत होषियारी से खेलती थी और उसने अपना चेहरा हमेषा धर्मनिरपेक्ष बनाए रखा। श्रीमती इंदिरा गांधी राजनैतिक चालें चलने में सिद्धहस्त थीं और वे धार्मिक पहचान का इस्तेमाल अपनी पार्टी को लाभ पहुंचाने के लिए इस तरह से करती थीं कि पार्टी का धर्मनिरपेक्षता का लबादा बना रहे। राजीव गांधी के पास न तो पर्याप्त राजनैतिक अनुभव था और न ही अपनी मां या नाना जैसी राजनैतिक चालें चलने की क्षमता।
अपरिपक्व और उतावले मुस्लिम नेतृत्व ने राजीव गांधी के सामने असंख्य समस्याएं खड़ी कर दीं। दूसरी ओर भाजपा अपने उन समर्थकों को फिर से अपने झंडे तले लाने के लिए बैचेन थी जिन्हें उसने धर्मनिरपेक्षता और गांधीवादी समाजवाद अपनाकर और 1977 में जनता पार्टी का हिस्सा बनकर खो दिया था। भाजपा ने खुलेआम धार्मिक और भावनात्मक मुद्दों को उछालना षुरू कर दिया। उसने नारा दिया “गर्व से कहो हम हिन्दू हैं।“ संघ परिवार के सदस्य “जय श्रीराम“ कहकर एक-दूसरे का अभिवादन करने लगे। इस सबके चलते, भारतीय समाज साम्प्रदायिक आधार पर धु्रवीकृत होने लगा। सन् 1980 के दषक का अंत आते-आते तक सामाजिक वातावरण में एक तरह की बैचेनी, उत्तेजना व संषय के भाव स्पष्ट महसूस किए जाने लगे।
इस वातावरण को बनाने में एक के बाद हुए साम्प्रदायिक दंगों की भी भूमिका थी। अहमदाबाद (1985), मेरठ (1987) और भागलपुर (1989) में हुए दंगों में हर बार बड़ी संख्या में (200 से 800 के बीच) मुस्लिम मारे गए। इसके बाद, 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ढ़हा दी गई। इसके बाद भड़के दंगों में अकेले मुंबई में 1000 से ज्यादा मुसलमान मारे गए। सूरत, अहमदाबाद, कानपुर व भोपाल में भी भीषण साम्प्रदायिक हिंसा हुई।
आम मुसलमानों को अब अहसास हुआ कि उनके नेता उनके साथ क्या खेल खेल रहे थे और वे षनैः-षनैः भड़काऊ और उत्तेजक नारों से दूर जाने लगे। षाहबानो-बाबरी आदि जैसे मुद्दे जिन नेताओं की राजनीति का आधार थे उनके पैरों तले जमीन खिसक गई। आम मुसलमान अब आंखे मूंदकर उनके पीछे चलने के लिए तैयार नहीं था। सन् 1990 में व्ही. पी. सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की रपट लागू किए जाने के बाद हुए राजनैतिक मंथन से मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव, कांषीराम, मायावती आदि जैसे अनेक पिछड़े व दलित नेता उभरे। ये नेता साम्प्रदायिकता की बजाए जातिवाद की राजनीति करने में विष्वास रखते थे। पिछड़े वर्गों व दलितों की पहचान की राजनीति से भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति कमजोर पड़ने लगी। मुसलमानों को कांग्रेस व भाजपा के अलावा एक तीसरा विकल्प मिल गया। इसने उन्हें बहुत राहत दी।
अन्य पिछड़े वर्गों की जातिवादी राजनीति भी, दरअसल, पहचान की राजनीति ही है परंतु कम से कम अल्पसंख्यकों के लिए, वह भाजपा की धार्मिक पहचान की राजनीति से कहीं कम खतरनाक है। उदाहरणार्थ, बिहार, जो भीषणतम साम्प्रदायिक दंगों के लिए जाना जाता था, लालू प्रसाद यादव के सत्ता में आते ही मुसलमानों के लिए सुरक्षित बन गया। यादवों व मुसलमानों के समर्थन से सत्ता में आए लालू प्रसाद यादव ने भाजपा की साम्प्रदायिक राजनीति को कड़ी चुनौती दी।
इसी तरह, दक्षिण भारत की क्षेत्रीय राजनीति ने भी संघ परिवार की फिरकापरस्ती की सियासत को कमजोर किया। तेलुगूदेषम, डी. एम. के. व ए. आई. ए. डी. एम. के. जैसी पार्टियां भले ही यदा-कदा भाजपा से गठबंधन कर लेती हों परंतु वे साम्प्रदायिक राजनीति को बढ़ावा नहीं देतीं और इन दलों के प्रभाव क्षेत्रों में मुसलमान इनका ही समर्थन करते हैं। वैसे भी उत्तर भारत की तुलना में, दक्षिण भारत का कम साम्प्रदायिकीकरण हुआ है। यद्यपि भाजपा ने कर्नाटक में दक्षिण भारत की अपनी पहली सरकार बना ली है और उसका दावा है कि कर्नाटक उसके लिए दक्षिण का प्रवेष द्वार साबित होगा।
अभी कुछ समय पहले तक संघ परिवार भारत में होने वाले हर आतंकी हमले के लिए भारतीय मुसलमानों को दोषी ठहराता था। सैकड़ों मुस्लिम नौजवानों को आतंकी होने के संदेह में गिरफ्तार कर प्रताड़ना दी गई जिससे उनके जीवन बर्बाद हो गए। आरएसएस का यह नारा था कि यद्यपि सभी मुसलमान आतंकवादी  नहीं हैं परंतु सभी आतंकवादी मुसलमान हैं। अब कुछ ईमानदार पुलिस अधिकारियों द्वारा की गई जांच से यह साबित हो गया है कि अभिनव भारत व हिन्दू सनातन संस्था से जुड़े हिन्दुत्ववादियों ने हैदराबाद की मक्का मस्जिद, अजमेर की दरगाह षरीफ और मालेगांव में 2008 में आतंकी हमले किए। संभवतः यही तत्व लाहौर जा रही समझौता एक्सप्रेस पर पानीपत के पास हुए बम विस्फोट में षामिल थे। इस मामले में आगे जांच जारी है।
मुस्लिम नवयुवकों की बेजा गिरफ्तारियों के कारण मुसलमान स्वयं को बहुत असुरक्षित महसूस करने लगे थे। अब, कम से कम उपरी तौर पर वे स्वयं को सुरक्षित महसूस कर रहे हैं यद्यपि कोई नहीं जानता कि साम्प्रदायिक हिंसा में आई कमी और मुसलमानों के बारे में पूर्वाग्रहों के बारे में पुनर्विचार का यह दौर कब तक चलेगा। कम से कम अभी तो ऐसा लग रहा है कि आम हिन्दू, साम्प्रदायिक हिंसा से तंग आ गए हैं और भाजपा गहरे राजनैतिक दलदल में फंस गई है।
 आंतरिक कलह, गुटबाजी और एक के बाद सामने आए भ्रष्टाचार के किस्सों ने भाजपा को बहुत कमजोर कर दिया है। सोहराबुद्दीन, उसकी पत्नि और उसके साथी तुलसीराम प्रजापति की फर्जी मुठभेड़ में हत्या करने के आरोप में गुजरात के गृह राज्यमंत्री अमित षाह की गिरफ्तारी से भाजपा की छवि को गहरा धक्का पहुुंचा है।
परंतु राजनीति में किसी पार्टी या व्यक्ति के दिन फिरते देर नहीं लगती। आरएसएस अभी भी पूरे जोषोखरोष से साम्प्रदायिकता फैला रहा है। साम्प्रदायिक दंगे न होने का अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि समाज से साम्प्रदायिकता गायब हो गई है। लगातार चल रहे साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से लोगों के दिमाग में जहर भरता जाता है और अंततः किसी छोटे से मुद्दे पर हिंसा भड़क उठती है।                     
इस तरह, भारत की वर्तमान सामाजिक-राजनैतिक स्थिति अत्यंत जटिल है। जातिगत, साम्प्रदायिक और भाषायी पहचानों की राजनीति एक साथ चल रही है। जातिगत पहचान के उभार से साम्प्रदायिक पहचान की राजनीति कमजोर पड़ती हैै।  और साम्प्रदायिकता के उभार से जातिगत भेद कम होते हैं। भारतीय राजनीति दो अलग-अलग दौरों से गुजर चुकी है। पहला वह जिसमें साम्प्रदायिकता, जातिवाद पर हावी रही और दूसरा वह जिसमें जातिगत भावनाओं ने साम्प्रदायिक भावनाओं को दबा दिया।
जहंा तक मुसलमानों का सवाल है, बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करेगा कि उनके नेता क्या नीतियां अपनाते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है मुसलमानों का कोई ऐसा नेता नहीं है जिसका राष्ट्रव्यापी प्रभाव और छवि हो। क्षेत्रीय मुस्लिम नेताओं की सोच बहुत तुच्छ है और वे अवसरवादिता की नई-नई मिसालें कायम करते रहते हैं। थोड़े से लाभ के लिए भी वे एक पार्टी को छोड़ दूसरी में जाने में नहीं सकुचाते। भारत जैसे जटिल राजनीति और बड़े भूभाग वाले देष में उलेमा या धर्मषास्त्री मुसलमानों का नेतृत्व नहीं कर सकते। वे बहुत दकियानूसी हैं। उन्हें रूढ़ियों और धार्मिक सिद्धांतों की ज्यादा चिंता है भारतीय मुसलमानों की सुरक्षा और प्रगति की कम।
आम मुसलमान गरीब और अपढ़ हैं। साम्प्रदायिक दंगों में गरीब मुसलमानों का सबसे अधिक नुकसान होता है। पिछले कुछ चुनावों में इन्हीं गरीब और अपढ़ मुसलमानों ने राजनैतिक परिपक्वता का प्रदर्षन करते हुए अपने मत का उपयोग इस तरह से किया कि जहां तक संभव हो साम्प्रदायिक ताकतों की हार हो। जातिवाद, साम्प्रदायिकता और क्षेत्रवाद के दलदल से हमें केवल धर्मनिरपेक्षता बाहर निकाल सकती है। केवल धमनिरपेक्षता के सिद्धांतों को अपनाकर ही हमारा देष एक रह सकता है और विभिन्न धर्मों, जातियों और भाषाभाषियों में एकता बनी रह सकती है। इस तथ्य का अहसास अल्पसंख्यकों को तो है ही हिन्दुओं की बहुसंख्या भी यह समझती और जानती है कि धर्मनिरपेक्ष भारत में ही हम सबका उज्जवल भविष्य छिपा हुआ है।
(लेखक मुंबई स्थित सेंटर फॉर स्टडी ऑफ सोसायटी एंड सेक्युलरिज्म के संयोजक हैं, जाने-माने इस्लामिक विद्वान हैं अंौर कई दशकों से साम्प्रदायिकता व संकीर्णता के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

अपना समय