16 दिसंबर 2010

मोबाइल संदेशों की भाषा

विजय प्रताप
आस्ट्रेलिया में हाल ही में एक ई.मेल में भारतीयों पर नस्लीय टिप्पणी की वजह से कुछ पुलिस अधिकारियों पर दण्डात्मक कार्रवाई की गई। न्यूजीलैंड में एक टीण्वीण् एंकर के दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का नाम गलत तरीके से उच्चारित करने के कारण भारत ने अपनी कड़ी आपत्ति जताई और उस एंकर को हटना पड़ा। विदेशी मीडिया ने इन घटनाओं को अपने यहां स्थान दिया तो बात भारत सरकार तक पहुंची। यह घटनाएं पहली बार नहीं हुई हैं। नस्लभेदी या रूढ़ियों के आधार पर भेदभाव करने वाले लोग हर समाज में होते हैं। लेकिन क्या हम अपने समाज में ऐसी घटनाओं के प्रति जागरुक रहते हैंघ्
भारत में मोबाइल फोन के उपभोक्ताओं की संख्या करीब 65 करोड़ हो गई है। इसमें हर माह करीब एक करोड़ नए उपभोक्ता जुड़ रहे हैं। इस प्रसार के कारण लोगों में मोबाइल से भेजे जाने वाले संदेशों ;एसएमएसद्ध की संख्या भी तेजी से बढ़ी है। आमतौर पर यह संदेश मोबाइल की काल दर से सस्ते होते हैं। इसका प्रयोग आपसी बातचीत के लिए कम मनोविनोद या मजाकिये चुटकुले ;जोक्सद्धए बधाई संदेश या शुभकामनाएं भेजने के लिए ज्यादा किया जाता है। यदि आप मोबाइल उपभोक्ता हैं तो आपके पास भी दिन में ऐसे कई संदेश आते होंगेए जिन्हें पढ़कर आप हंसे बिना नहीं रहते। वो संदेश क्या होते हैंघ् जरा इन संदेशों को हम फिर से देखें तो उनकी विषयवस्तु कुछ शब्दों के इर्दगिर्द ही मिलेगी। मसलन स्त्री ;पत्नीए महिला मित्र या लड़की के रूप मेंद्धए सरदार या बिहारी और जाति.धर्म विशेष से संबंधित लोग। इन लोगों पर की गई टिप्पणियां हमें खूब हंसाती हैं। लेकिन सोचें कि क्या हम इतने असंवेदनशील हैं कि कोई हमारे सामने किसी पर नस्लीयए जातिगत और लैंगिक टिप्पणियां करता रहे और हम उससे अपना मनोरंजन करेंघ् अगर हम असंवेदनशील नहीं हैं तो हमें इसे समझने की कोशिश करनी होगी।
ये संदेश हमारे पास कहां से आते हैंघ् अक्सर ये संदेश हम खुद नहीं रचते। यह हमें मित्रों या परिचितों से प्राप्त होते हैं और उन्हें भी ऐसी ही लोगों से। इस श्रृंखला में हम केवल एक कड़ी होते हैं। जब हम इस पर विचार करते हैं कि यह संदेश लिखे कहां जाते हैंए तो इसमें सबसे पहला नाम मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कम्पनियों का आता है। आप इनके उपभोक्ता हैं तो 15.30 रुपये की मासिक किस्त पर आसानी से ष्जोक्सष् के नियमित ग्राहक बन सकते हैं। इसके अलावा इंटरनेट पर भी ऐसी कई साइटें हैंए जहां से आप ऐसे संदेश मुफ्त प्राप्त कर सकते हैं। ऐसे संदेश जो समाज के बहुसंख्यक आबादी का मजाक उड़ाते होंए आखिर उस समाज द्वारा स्वीकार कैसे कर लिए जाते हैंघ्
 दरअसल यह मुद्दा समाज के उन तबकों से जुड़ा हुआ हैए जिनकी समानता के लिए अभी तक संघर्ष जारी है। मसलनए अगर ऐसे संदेशों में स्त्रियों की रूढ़िवादी छवि पेश की जाती हैए तो यह केवल पुरुषवादी मानसिकता या स्त्री विमर्श का मामला नहीं हैए किसी पर जाति या धर्म विशेष से जुड़े होने के कारण कोई टिप्पणी की जाती है तो यह उस जाति या धर्म विशेष का ही मामला नहीं है। पंजाब में बिहारियों पर और अन्य उत्तर भारत में सरदारों को हंसी का पात्र बनाया जाता है तो यह क्षेत्र विशेष की छवि का मामला नहीं है। लोकतांत्रिक राष्ट्र में हमें किसी भी जातिए धर्म को माननेए नहीं मानने की स्वतंत्रता है। किसी भी क्षेत्र में रहने की स्वतंत्रता है। लैंगिक आधार पर भेदभाव को अपराध की श्रेणी में रखा गया है। ऐसे में हमारी यह संवैधानिक स्वतंत्रता ष्मजाकष् का विषय क्यों बन रही हैघ् इसकी पड़ताल में हमें ऐसे संदेश तैयार करने वालों की पृष्टभूमि की तरफ देखना होगा। जिन मोबाइल कम्पनियों में ऐसे संदेश तैयार किए जाते हैंए वो ज्यादातर निजी क्षेत्र की हैं। उनकी आक्रामक व्यापार नीति को देखकर यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि वो उपभोक्ताओं को कुछ भी परोसने के लिए स्वतंत्र हैं। इन कम्पनियों में काम करने वाले लोगों में समाज के हर वर्गए क्षेत्र या लिंग का प्रतिनिधित्व समान नहीं है। यह कहना इसलिए भी आसान है कि क्योंकि ये कम्पनियां जातिए धर्म या लैंगिक आधार पर आरक्षण के नियमों से मुक्त हैं। ऐसे में अधिकतर निजी कम्पनियों के निर्णयकारी पदों पर एक खास धर्म के उच्च वर्ण के लोगों का वर्चस्व है। इससे इतर कहीं कोई धार्मिक अल्पसंख्यकए दलितए पिछड़ा या स्त्री ऐसे पदों पर दिखती भी हैए तो वह केवल उसकी पैदाइश पहचान हैए जिसे वह बदल नहीं सकती। मानसिकता के स्तर पर ऐसे ज्यादातर लोग सवर्ण होते हैं। सवर्ण मानसिकता हमेशा से जातिए धर्मए लैंगिक और क्षेत्रीय स्वतंत्रता की विरोधी रही है। उसकी सर्वोच्चता इसी में है कि दूसरी जाति.धर्मों के लोग उससे नीचे रहेंए स्त्रियां चारदीवारी में रहें और जहां वह रहते हैं वो पुण्यभूमि रहे। हमें हंसाने वाले संदेशों में यह मानसिकता साफ झलकती है। इसमें स्त्रियां पत्नी के रूप में हमेशा पति को सताने वाली और लड़कियां बेवकूफ या यौन उत्तेजना का प्रतीक होती हैं। लालू यादव या मुलायम सिंह यादव के रूप में अहिर व पिछड़ा वर्गए मायावती के रूप में दलित और सरदार के रूप में सिक्ख धर्म के लोग कथित तौर पर बेवकूफ होते हैं। बिहारियों को उनके पिछड़े क्षेत्र से होने के कारण हंसी का पात्र बनाया जाता है।
अब सवाल है कि इन कम्पनियों को कैसे इतनी छूट मिल गई कि वो हमारी संवैधानिक आजादी और मानवाधिकारों का ष्मजाकष् बनाएंघ् अक्सर आपने महसूस किया होगा कि मोबाइल सेवा प्रदान करने वाली कम्पनी आपके मोबाइल बैलेंस से बिना बताए एक निश्चित रकम कॉलर ट्यून या किसी अन्य सेवा के नाम पर काट लेती है। या ऐसी सेवाओं का प्रचार करने वाले अवांछित संदेश या फोन कॉल्स आपको परेशान करते रहते हैं। ऐसी शिकायतें आम होने के बाद टेलिकॉम ऑथारिटी ऑफ इंडिया ;ट्राईद्ध ने उपभोक्ताओं को अवांछित संदेश या फोन कॉल्स बंद करने की सुविधा उपलब्ध कराई है। लेकिन इसके लिए आपको अनुरोध करना होगा। मतलब ये कि ऐसे अवांछित हमले आप पर जारी रहेंगे। इससे बचना चाहते हैं तो अपनी सुरक्षा स्वयं करें। यह मोबाइल कम्पनियों का दवाब ही है कि सरकार हमें रक्षात्मक स्थिति में लाकर खड़ा कर दी है। इन कम्पनियों का यह दवाबए सरकार की मेहरबानी के बिना संभव नहीं है। सरकार यह मेहरबानी इसलिए करती हैए क्योंकि उसने इसे नीतिगत रूप से अपनी कार्यप्रणाली का हिस्सा बना लिया है। यह हम अन्य निजी क्षेत्रों में भी महसूस कर सकते हैं। निजी कम्पनियां जिन क्षेत्रों में काम कर रही हैंए वहां मानवाधिकार बेमानी साबित हो रहे हैं। इसमें सरकार का उन्हें पूरा सहयोग है।
दरअसलए ऐसा भी नहीं है कि सरकार इन पर रोक नहीं लगा सकती। अभी रामजन्म भूमि.बाबरी मस्जिद विवाद के फैसले से पूर्व गृहमंत्रालय ने ज्यादा तादाद में संदेश भेजने पर अस्थायी रोक लगा दिया था। सरकार का मानना था कि इससे अफवाहों को रोकने और सामाजिक समरसता को बनाए रखने में मदद मिलेगी। इससे पहले जम्मू.कश्मीर में भी समय.समय पर ष्सुरक्षाष् के नाम पर मोबाइल संदेशों पर प्रतिबंध लगाया जाता रहा है। सरकार अपनी जरूरत के अनुसार मोबाइल संदेशों को नियंत्रित करती रही है। लेकिन ऐसे संदेश जो हमारी जिंदगी का हिस्सा बनकर ष्सामाजिक समरसताष् को नष्ट कर रहे हैंए उन को नियंत्रित करना या ऐसी जाति.धर्मए लिंग व क्षेत्र के आधार पर अपमानजनक टिप्पणियां करने वालों को दण्डित करना उसकी प्राथमिकता में नहीं है। हद है कि ऐसे संदेश सामाजिक हलकों में चर्चा का भी विषय नहीं बनते। लैंगिकए धार्मिकए जातिय और क्षेत्रीय स्वंतत्रता के लिए अब तक चले तमाम आंदोलनों के बाद लोगों में ऐसी चेतना आई है कि कभी फिल्मोंए टीण्वीण्ए रेडियो या प्रिंट माध्यमों में ऐसे शब्दों से किसी को अपमानित किया जाता हो तो उसका तुरंत विरोध होने लगता है। कई फिल्मी गानों से जातिय संबोधन वाले शब्दों को निकाला भी गया है। लेकिन यही अपमानजनक शब्द जब एक अन्य संचार माध्यम के जरिए हम तक पहुंचते हैं तो हम केवल उस पर हंसते हैं। हम अपमानित महसूस नहीं करते। जबकि सामाजिक अलगाव पैदा करने वाला वर्ग नए सूचना माध्यम के जरिए अपना काम कर रहा होता।
पूंजीवादी शक्तियों की यह खासियत होती है कि वो हर जगह अपना मुनाफा तलाश लेती हैं। एक जड़ समाज में रूढ़ियां और सामाजिक असमानता भी उनके लिए मुनाफे का धंधा हैं। उनके लिए धर्मए आस्था या सामाजिक समानता कोई भावनात्मक मामले की बजाय उपयुक्त बाजार है। इसलिए वो आपको नवरात्र में ष्जय माता दीष् लिखकर 21 लोगों को भेजने की अपील करती हैं और सौ प्रतिशत  ष्गुडलकष् मिलने का भरोसा दिलाती हैं। आस्थावान लोग ष्गुडलकष् की आस में अपने मित्रों पर 21 संदेशों का बोझ लाद देते हैं। ष्दोस्ती.यारीष् पर मर मिटने की कसमें खाने वाले संदेशों को आप भले ही बड़े दिल से अपने मित्रों को भेजते होंए लेकिन यह मोबाइल कम्पनियों के लिए ष्दिलष् का नहीं ष्मुनाफेष् का मामला होता है।
सूचना प्रौद्योगिकी और तकनीकी विकास ने हमें नई उंचाइयां दी हैं। तकनीक अपने स्तर पर किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं करतीए लेकिन यह निर्भर करता है कि उसे संचालित कौन कर रहा हैं। भारत जहां की जातिए धर्मए लिंग या क्षेत्र के स्तर पर भारी असमानता हैए वहां इसका संचालन सामाजिक रूप से उच्च वर्गों के लोगों के हाथ में है। इसलिए यह वर्ग मोबाइल जैसे नए सूचना माध्यम के जरिए बहुसंख्यक आबादी को नीचा दिखाने की कोशिश कर रहा है। 21वीं सदी में सामाजिक समानता की लड़ाई में यह नई चुनौती है।

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