22 अप्रैल 2011

विनायक सेन के बाद अब सीमा आजाद की बारी !

अंबरीश कुमार
विनायक सेन को जमानत मिलने के बाद अब मानवाधिकार कार्यकर्त्ता और पत्रकार सीमा आजाद की बारी आ रही है । माओवादी साहित्य के चलते ही इलाहाबाद की पुलिस ने दिल्ली के प्रगति मैदान से पुस्तक मेले से लौट रही सीमा आजाद को इलाहाबाद स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया था । बाद में पुलिस ने सीमा आजाद को भारत देश के खिलाफ युध्द छेड़ने वालों में शामिल करते हुए जेल भेज दिया था । जेल भेजने से पहले पुलिस ने अपने चरित्र के अनुरूप ही सीमा आजाद और उसके साथ गिरफ्तार साथी के साथ पुलिसिया व्यवहार भी किया था । मामला उठा पर कही पुलिस माओवादी न घोषित कर दे इसलिए कई लोगों ने अपने पैर पीछे कर लिए । सीमा आजाद पिछले साल फरवरी से जेल में है । आज सुप्रीम कोर्ट के यह तर्क देने के बाद कि महज कोई गांधीवादी साहित्य रखने से गांधीवादी नही नही हो जाता तो माओवादी साहित्य रखने से देशद्रोही कैसे हो जाएगा , मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को काफी ताकत मिली है ।उत्तर प्रदेश की पुलिस का राजनैतिक ज्ञान तो ऐसा है कि एक बार एक वामपंथी कार्यकर्त्ता को तो फिदेल कास्त्रों और चेग्वेरा का साहित्य रखने पर उसे माओवादी बताकर पकड़ लिया बाद में बहुत समझाने पर वह छूट पाया । ऎसी पुलिस सूबे की सरकार के हिसाब से काम करती है ।
करीब दो साल पहले मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रोमा को नक्सली बताकर मिर्जापुर की पुलिस ने गिरफ्तार किया और फिर उन्हें देश की सुरक्षा के लिए खतरा मानते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल भेज दिया । न तो कोई मीडिया का आगे आया और न निचली अदालत से कोई राहत मिली । जब इस अखबार में खबर प्रकाशित हुई तो मुख्यमंत्री मायावती ने खुद हस्तक्षेप कर रोमा को रिहा करवाया । इससे साफ़ है कि किसी भी राज्य की पुलिस कभी भी किसी को भी देश के लिए खतरा मानते हुए जेल भेज सकती है । पीयूसीएल के पदाधिकारी शाहनवाज आलम ने कहा - ऐसी घटनाओं में सबसे ज्यादा दिक्कत अदालतों के रुख से होती है जिन पर सत्तारूढ़ दल का राजनैतिक दखल बढ़ता जा रहा है । छतीसगढ़ में प्रदेश सरकार विनायक सेन के खिलाफ मुहिम छेड़े हुई थी तो अदालतों ने भी उसी रस्ते पर चलते हुए सेन को कोई राहत नहीं दी । आज देश की सर्वोच्च अदालत के फैसले ने निचली अदालतों के तौर तरीकों पर भी सवाल खड़ा किया है । उदाहरण प्रदेश का लेते है यहाँ बसपा की सरकार है तो सपा के कोई नेता को अदालत से भी जल्द कोई राहत नही मिलती । अगर सपा की सरकार होती तो यही हाल बसपा का होता । सुप्रीम कोर्ट को इस तरफ भी ध्यान देना चाहिए । हर आदमी सुप्रीम कोर्ट तक नहीं जा सकता और न ही विनायक सेन जैसा सभी का कद होता है । सीमा आजाद उदाहरण है ।
सीमा आजाद पत्रकार वही और कई पात्र पत्रिकाओं में उनकी ख़बरें और लेख प्रकाशित होते रहे है । पर पुलिस ने सीमा आजाद को भी देशद्रोही बताते हुए जेल भेज दिया । यह वह पुलिस है जो हत्या से लेकर बलात्कार जैसे मामले में भी सत्तारूढ़ दल का हस्तक्षेप होते ही भीगी बिल्ली बन जाती । बंद बलात्कार कांड में तो पुलिस ने पहले दौर में बसपा के विधायक को बाकायदा क्लीन चिट देने का काम किया था । यह कोई नई बात भी नही है । उत्तर प्रदेश में दर्जन भर से ज्यादा बाहुबली और माफिया फरार चल रहे है पर पुलिस को वे दिखाई भी नहीं देते । सत्तारूढ़ दल से जुड़े या उसके संरक्षण में पलने वाले बाहुबली सरेआम हत्या कर देते है पर वे देश तो दूर किसी मोहल्ले तक लिए खतरा नही माने जाते । खतरा है तो एक युवा पत्रकार सीमा आजाद जो सवा साल से जेल में है । मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रोमा ने जनसत्ता से कहा - उत्तर प्रदेश की जेलों में अभी भी कई बेगुनाह बंद है । राम शुक्ल और बीरबल तो मेरे समय से जेल में है और उसके खिलाफ कोई सबूत तक नही है ।पर सिर्फ जमानत न मिलने की वजह से वे वाराणसी की जेल में है । निचली अदालत जमानत की सुनवाई की तारीख ही नहीं दे रही है । दूसरा उदाहरण सीमा आजाद का है जिसे बेवजह ही माओवादी साहित्य के आधार पर जेल में साल भर से ज्यादा समय से रखा गया है । यह घटनाएं लोकतंत्र पर धब्बा है ।
वकील सीएम शुक्ल ने कहा -उत्तर प्रदेश में दर्जनों ऐसे राजनैतिक कार्यकर्त्ता बिना किसी ठोस सबूत के सिर्फ किसी रंजिश के आधार पर बंद है । पुलिस को पैसा देकर या संबंधों के आधार पर यहाँ कोई भी किसी को भी फर्जी मामले बंद करा सकता है । ऐसे मामले में निचली अदालत पुलिस की ही सुनती है जबतक की उसे हाई कोर्ट में चुनौती न दी जाए। कितने लोग हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के वकील की फीस भर सकते है । आज का फैसला इन अदालतों के लिए भी नजीर बनानी चाहिए ।

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