26 अप्रैल 2011

पत्रकार सीमा आजाद को रिहा करो ! अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला बंद करो !!

साथियों,
सुप्रीम कोर्ट से विनायक सेन को जमानत मिलने के बाद माओवादी होने के आरोप
बंद तमाम राजनैतिक और सामाजिक कार्यकर्ताओं के बीच एक उम्मीद जगी है।
विनायक सेन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जो प्रस्थापनाएं दी हैं, वह नई
न होते हुए भी काफी मौजूं हैं। लेकिन हैरत की बात ये है कि विनायक सेन को
एक तरफ सुप्रीम कोर्ट जमानत दे देती है, तो वहीं माओवादी साहित्य रखने के
आरोप में बंद सीमा आजाद को जमानत नहीं मिल पाती। विनायक के मामले में
सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने निचली और उच्च अदालतों के फैसलों के निराशा को
आशा में बदल दिया था, लेकिन सीमा आजाद के मामले में ऐसा नहीं हो सका।
साथियों, सीमा आजाद के बारे में आप सभी को पता होगा। वह भी उसी
मानवाधिकार संगठन पीयूसीएल की उत्तर प्रदेश संगठन सचिव हैं, जिसके विनायक
सेन राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। इलाहाबाद से ‘दस्तक’ नाम की पत्रिका
निकालने वाली पत्रकार सीमा आजाद को 5 फरवरी 2010 को इलाहाबाद रेलवे
स्टेशन से पुलिस ने उठाया था। उनके साथ उनके पति व राजनैतिक कार्यकर्ता
विश्वविजय भी थे। दो दिनों तक अवैध रूप से हिरासत में रखने के बाद 7
फरवरी को उनकी गिरफ्तारी दिखाई गई। पुलिस ने जो उन पर आरोप लगाए, वह
हास्यास्पद हैं। उनके पास से बड़ी मात्रा में माओवादी साहित्य और पर्चे
बरामद होना बताया गया, जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाल के
फैसले में कहा कि ‘जैसे कोई गांधी की किताब रखने से ही गांधीवादी नहीं हो
जाता, उसी तरह नक्सली साहित्य रखने से कोई नक्सली नहीं हो जाता।’ कोर्ट
ने तो एक कदम आगे बढ़कर यह भी साफ कर दिया कि नक्सलियों से सहानुभूति
रखना कोई देशद्रोह नहीं है।
इस फैसले के आलोक में देखे तो भारत की जेलों में कई सारे लोग ऐसे ही
आरोपों में बंद हैं, जिसमें उन्हें या तो प्रतिबंधित संगठनों का
‘सिम्पेथाइजर’ बताया गया है या उसका सदस्य। इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट ने
अवनी भुइंया के मामले में कहा था कि ‘किसी प्रतिबंधित संगठन का सदस्य
होना तब तक काई अपराध नहीं जब तक वह व्यक्ति किसी तोड़-फोड़ जैसी गतिविधि
में प्रत्यक्ष रूप से शामिल न हो।’ अदालतों के ये फैसले सीमा आजाद और उन
जैसे अन्य बंदियों को न्याय दिलाने के लिए काफी हैं। लेकिन हमें ये भी
नहीं भूलना चाहिए कि न्यायपालिकाएं भी राजनैतिक दबावों से संचालित होती
हैं। उनके फैसले एक मामले में अलग, तो दूसरे में अलग भी हो सकते हैं।
इसके कई उदाहरण हमारे सामने हैं।
लोकतांत्रिक देश और मुक्त मीडिया का जो दुष्प्रचार यहां की सरकारें चलती
हैं, वह सीमा आजाद और अन्य पत्रकारों की गिरफ्तारियों से बेनकाब हो चुका
है। मुक्त मीडिया वाले इस देश में सच बोलने के आरोप में कई पत्रकार
सलाखों के पीछे हैं। वह चाहे उत्तराखंड में स्टेट्समैन के संवाददाता
प्रशांत राही हों या महाराष्ट्र से ‘विद्रोही’ नाम की पत्रिका निकालने
वाले सुधीर धवले हों, सरकार के खिलाफ बोलने की सजा के रूप में उन्हें
माओवादी बताकर बंद कर दिया गया। यह हास्यास्पद ही है कि एक तरफ
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जुमला रटा जाता है, राडिया-मीडिया गठजोड़ और
पेडन्यूज पर आंसू बहाये जाते हैं, तो दूसरी तरफ साफ और खरी-खरी बोलने
वाले पत्रकारों को जेलों में ठूंस दिया जा रहा है।
इन सब के खिलाफ एक बेहतर समाज और उसमें स्वतंत्र मीडिया की लड़ाई सीमा
आजाद जैसे पत्रकारों के बिना नहीं लड़ी जा सकती। दुख के साथ यह कहना पड़
रहा है कि विनायक सेन पर मुखर होकर बोलने वाली मीडिया में अपने ही
पत्रकार साथियों के लिए कोई हलचल नहीं है। दरअसल, कथित मुख्यधारा की
मीडिया विनायक सेन पर भी इसलिए बोलती है, क्योंकि वह पहले से ही उनको एक
सेलिब्रिटि के रूप में स्थापित कर चुकी है। विनायक सेन और सीमा आजाद के
एक ही संगठनों से जुड़े होने के बाद मीडिया में दोनों के साथ दोहरा बरताव
किया जाता है तो हमें इसके खिलाफ भी लड़ना होगा।
सीमा आजाद की रिहाई के लिए एक अभियान शुरू किया जा रहा है, जिसके तहत
मीडिया पर बढ़ते सरकारी हमलों पर भी बात होगी। आप सभी से गुजारिश है कि
आइए, हमने जिस तरह की एकजुटता विनायक सेन की रिहाई के लिए दिखाई थी, कुछ
ऐसी ही एकजुटता सीमा आजाद और उन जैसे अन्य पत्रकारों के लिए भी दिखाएं।
ताकि हम ऐसे आन्दोलनकारी पत्रकारों के साथ न्याय कर सकें।

निवेदक - विजय प्रताप, शाह आलम, राजीव यादव, शाहनवाज आलम, अवनीश राय, ऋषि
कुमार सिंह, राघवेन्द्र प्रताप सिंह, शिवदास, देवाशीष प्रसून, दिलीप,
नवीन कुमार, प्रबु़द्ध गौतम, अरुण उरांव, अरुण वर्मा, अर्चना मेहतो,
सौम्या झा, विवेक मिश्रा, प्रवीण मालवीय, पूर्णिमा उरांव, सीत मिश्रा,
अभिषेक, वरुण शैलेश।

जर्नलिस्ट्स यूनियन फॉर सिविल सोसायटी (जेयूसीएस) की ओर से जनहित में जारी

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