11 जून 2011

बनारस विस्फोट 2010 आजमगढ़ का मीडिया ट्रायल- मसीहुद्दीन संजरी



मसीहुद्दीन संजरी आजमगढ़ के संजरपुर गांव के रहने वाले हैं और पीयूसीएल के प्रदेश संयुक्त सचिव हैं। संजरपुर वही गांव है जहां के निर्दोष बच्चों आतिफ अमीन और साजिद को बाटला हाउस में फर्जी मुठभेड़ में आतंकी बताकर मार डाला गया था। जिसे मीडिया के बड़े हिस्से ने देश के सबसे खतरनाक गांव का दर्जा दिया था। संजरी ने बहुत पास से देश के बड़े-बड़े मीडिया घरानों द्वारा आजमगढ़ के मीडिया ट्रायल को देखा और समझा है कि किस तरह से देखते-देखते पूरे शहर की छवि को सांप्रदायिक राजनीति को सूट करने के लिए बदलने की कोशिश की गई। संजरी का यह शोधपरक लेख फुट प्रिन्ट्स द्वारा इसी शीर्षक से एक बुकलेट के बतौर छपा है, जिसे काफी संख्या में लोगों ने पढ़ा और यहां तक कि फोटो स्टेट भी बाटे गए। 

वाराणसी के दशाश्वमेध घाट पर शीतला माता मन्दिर के सामने 7 दिसम्बर सन् 2010 की शाम आरती से ठीक पहले बम धमाके हुए। इसमें एक मासूम बच्ची स्वस्तिका और गम्भीर रूप से घायल इतालवी नागरिक की मृत्यु हो गई। घटना के बाद वाराणसी से प्रकाशित होने वाले तीन प्रमुख समाचार पत्रों में इस से सम्बन्धित समाचारों पर एक नजर डाली जाय तो उक्त कथन की पुष्टि होती है। विस्फोट में जान गंवाने वाली एक साल से भी छोटी बच्ची को आने वाली चोटों के समाचार कुछ इस प्रकार थे।......... धमाकों में एक वर्षीय बच्ची स्वास्तिका शर्मा की मृत्यु हो गई (हिन्दुस्तान 8 दिसम्बर पृष्ट न0 1)...... इसमें एक साल की स्वास्तिका की मौत हो गई उसकी कमर से नीचे का पूरा हिस्सा उड़ गया था ( अमर उजाला 8 दिसम्बर पृष्ट न0 1)......... एक पत्थर का टुकड़ा तेजी से स्वास्तिका के सिर पर लगा खून का फौब्वारा फूट पड़ा और भगदड़ मच गई। मां जब तक उसे लेकर पार्क पहुंचती उसकी मृत्यु हो गई ( दैनिक जागरण 9 दिसम्बर पृष्ट न0 7)। ए.डी.एम. अटल कुमार राय ने बताया कि अधिकारी घटना स्थल के सी.सी.टी.वी. फूटेज की जांच कर रहे हैं। ( अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ट न0 10)।........ शुक्रवार को उन्होंने (ए.डी.जी कानून व्यवस्था बृजलाल) पत्रकारों से बात करते हुये बताया कि शीतला घाट पर सी.सी.टी.वी. कैमरे नहीं थे। इसलिये घटना से पहले और बाद के फुटेज जुटा कर छानबीन की जा रही है ( दैनिक जागरण 11 दिसम्बर पृष्ट न0 9)। घटना स्थल पर पाये जाने वाले अवशेषों के सम्बन्ध में श्री अटल कुमार राय के हवाले से अमर उजाला लिखता है .... ‘‘राय ने बताया कि आगरा से फोरेन्सिक विशेषज्ञों के एक दल ने घटना स्थल के नमूने लिये है। इस दल को धातुओं के टुकड़े मिले हैं’’ ( अमर उजाला 9 दिसम्बर पृष्ठ न0 10)।..... ‘‘इस बार मौके से छोटा सा वायर और प्लास्टिक के टुकड़े के अलावा कोई भी अवशेष नहीं मिला जिसके आधार पर किसी निष्कर्ष पर पुहंचा जा सके’’ ( दैनिक जागरण 9 दिसम्बर पृष्ट न0 1)।..... ‘‘आतंकी विस्फोट की जांच के दौरान तार के एक टुकड़े से सुराग की तलाश की जा रही है।’’....... ‘‘एजेंसियां इस विस्फोट के बाद मौके पर अवशेष न मिलने पर हैरत में हैं।’’ ( हिन्दुस्तान 9 दिसम्बर पृष्ठ न0 7)
ये सारी खबरें परस्पर एक दूसरे को ही झूठा साबित कर रही हैं। इसी प्रकार घटना स्थल पर सी.सी.टी.वी. कैमरा था अथवा नहीं दो अलग अलग अधिकारियो के हवाले से परस्पर विरोधी समाचार प्रकाशित हुए। घटना स्थल पर पाये जाने वाले अवशेषों को लेकर भी समाचारों में समानता देखने को नहीं मिलती। दरअसल इस तरह की घटनाओं के बाद मीडिया में ज्यादा से ज्यादा आक्रामक खबरें प्रकाशित करने की होड़ रहती है। विस्फोटों के बाद मीडिया तुरंत उसके जिम्मेदार संगठनों, लोगों का नाम उजागर कर देना चाहती हैं। ऐसे में अधिकारियों के हवाले से छपने वाले बयान खुद पत्रकारों की उपज होती है, बस उसे जबर्दस्ती अधिकारियों के मुंह में डाल दी जाती है।
    वाराणसी विस्फोट के बाद संजरपुर लगातार सुर्खियों में रहा। 19 दिसम्बर 2008 की बटला हाउस घटना के बाद से ही यहां के लोग हर आतंकी वारदात के बाद संजरपुर और आजमगढ़ को घसीटे जाने को लेकर आशंकित रहते हैं। यह आशंका स्वभाविक भी है क्योंकि पुणे के जर्मन बेकरी धमाके के बाद जिले के कुछ लापता युवकों का नाम उछाला गया। गत सितम्बर में दिल्ली के जामा मस्जिद गोलीबारी काण्ड को भी इण्डियन मुजाहिद्दीन से जोड़ते हुये आतिफ और साजिद की शहादत के बदले के तौर पर प्रस्तुत किया गया। बनारस विस्फोट के बाद भी इण्डियन मुजाहिद्दीन के ई मेल के साथ ही मीडिया में संजरपुर के सम्बन्ध में खबरें छपने लगीं। मीडिया में यहां के वातावरण और ग्रामवासियों की प्रतिक्रिया को लेकर जो समाचार छपे वह कुछ इस प्रकार थे ..........‘‘ग्रामीणों के चेहरे के भाव ऊपर से पूरी तरह सामान्य पर अन्दर से असहज। ग्रामीणों ने कहा कि विस्फोट कहीं भी हो अगर उसके तार आजमगढ़ के संजरपुर से जोड़ दिये जायें तो हमारे लिये कोई चौकाने वाली बात नहीं। अब तो हम लोग यह सब सुनने के आदी हो गये हैं।’’ ( दैनिक जागरण, 9 दिसम्बर, आजमगढ़ संस्करण) ..........‘‘सुबह शाम गुलजार रहने वाले संजरपुर के चट्टी चौराहों पर सन्नाटा छा गया। दहशत का आलम यह है कि अभिभावक अपने बच्चों को घर से बाहर नहीं निकलने दे रहे हैं।’’ ( अमर उजाला, 9 दिसम्बर 10, पृष्ठ 2, आजमगढ़ संस्करण)। उस दिन दैनिक हिन्दुस्तान में इस विषय पर कोई रिपोर्ट प्रकाशित नहीं हुई थी। शायद यही कारण था कि प्रतिस्पर्धा में बने रहने के लिये अगले दिन हिन्दुस्तान टीम संजरपुर पहुंच गई। उसके हवाले से जो रिपोर्ट छपी उसका शीर्षक था ‘‘पुलिसिया भय से संजरपुरवासी कर रहे पलायन।’’ पत्र आगे लिखता है.... ‘‘बनारस विस्फोट में नाम जुड़ने से लोगों के माथे पर चिन्ता की लकीरें खिंच गई। यहां के निवासी पलायन कर रहे हैं। गुलजार रहने वाले चट्टी चौराहों पर सन्नाटा पसरा जा रहा है। लोग घरों में इस तरह दुबके हैं, जैसे कोई बड़ा गुनाह कर दिया हो।’’ ( हिन्दुस्तान 10 दिसम्बर पृष्ठ 3 आजमगढ़ संस्करण)।
    लगभग सभी समाचार पत्रों में यह भी खबर छपी कि गांव में प्रवेश करने वाले वाहनों को देखकर गांववासी सहम जाते हैं। शायद पत्रकार बन्धुओं ने इसका अर्थ यह निकाला कि ए.टी.एस या किसी सुरक्षा एजेंसी के लोगों के आने की आशंका को लेकर ऐसा हो रहा है। हालांकि इस असहजता का एक बड़ा कारण आरोपी युवकों और गांव के प्रति स्वयं मीडिया का नकारात्मक रवैया भी रहा। गांववासियों में यह आम धारण है कि पत्रकार कितनी ही लुभावनी और सहानभूतिपूर्ण बात करें पर छपने वाले समाचार एकपक्षीय और समुदाय विशेष के लोगों की छवि को धूमिल करने वाले ही होते हैं।
बनारस धमाके के बाद जब कुछ पत्रकारों ने ए.टी.एस. के गांव में आने के बाबत सवाल किया। लोगों ने उन्हें बताया कि मंगलवार 7 दिसम्बर को दिन में 10-11 बजे के बीच चार से पांच अज्ञात लोग जो किसी एजेंसी से सम्बन्धित लगते थे, संजरपुर बाजार में घूमते हुये देखे गये। उनके पास कुछ फोटो भी थे। परन्तु किसी समाचार पत्र ने बनारस धमाके से पहले इन अज्ञात लोगों की गतिविधियों का समाचार नहीं प्रकाशित किया। बटला हाउस काण्ड के बाद से कई मौकों पर ऐसे समाचार प्रकाशित हुये जो मनगढ़ंत, आपत्तिजनक और वास्तविकता से कोसों दूर थे। गांव के लोग उस समाचार को अब भी नहीं भुला पा रहे हैं, जिसमें कहा गया था कि आतिफ और सैफ के बैंक खातों से बहुत ही अल्पअवधि में तीन करोड़ रुपयों का लेन-देन हुआ है। हांलाकि यह समाचार बिल्कुल ही निराधार और झूठा था और इस आशय का प्रमाण भी पत्रकारों को दिया गया, परन्तु किसी ने अब तक इसका खण्डन नहीं किया। शायद इन्हीं कारणों से पत्रकार गांव वालों का विश्वास नहीं जीत पा रहे हैं। गांव के लोग जब उन्हें देखकर असहज होते है, तो पत्रकार उसे भी आतंकवाद से जोड़कर देखते हैं।
    ये वो समाचार थे जिन्हें देखा और परखा जा सकता है और सत्यता प्रमाणित भी किया जा सकता था। परन्तु आश्चर्य की बात है कि इनमें इतनी स्पष्ट भिन्नता है, जिसे आसानी से महसूस किया जा सकता है। दूसरी ओर वह समाचार हैं, जिनका सम्बन्ध घटना के लिये जिम्मेदार व्यक्तियों और उनके संगठन से है। यह जांच का विषय है। जब तक कोई स्पष्ट संकेत न मिल जाय कोई भी समाचार सिर्फ सम्भावना और अनुमान के आधार पर नहीं होना चाहिये। परन्तु समाचार माध्यमों ने इस लक्ष्मण रेखा को बार-बार पार किया है। वाराणसी धमाके के बाद भी इण्डियन मुजाहिद्दीन, संजरपुर और आजमगढ़ को लेकर जिस तरह भ्रामक समाचारों का प्रकाशन देखने को मिला, वह बटला हाउस काण्ड के बाद शुरू हुए मीडिया ट्रायल के विस्तार जैसा लगता है। 7 दिसम्बर को लगभग साढ़े 6 बजे दशाश्वमेध घाट पर विस्फोट होता है और आधा घण्टा बाद ही 7 बजे शाम को घटना की जिम्मेदारी लेने वाला आई.एम. का ई मेल आता है। इसी ई मेल के आधार पर मुम्बई पुलिस आयुक्त संजीव दयाल की पत्रकार वार्ता के अंश सभी समाचार पत्रों में घटना के तीसरे दिन 9 दिसम्बर को प्रकाशित हुए, जिसमें उनका कहना था.........‘‘बनारस धमाके की जिम्मेदारी लेने वाले आई.एम. के आका इकबाल भटकल और रियाज भटकल पाक में हैं’’(हिन्दुस्तान, 9 दिसम्बर पृष्ठ न0 1 )  .... ‘‘लेकिन निश्चित तौर पर इण्डियन मुजाहिद्दीन के मुख्य खिलाड़ी पाकिस्तान में बैठे हैं और वहीं से आतंक का खेल चला रहे हैं। यह पूछने पर कि मुख्य खिलाड़ी से उनके क्या मायने हैं? दयाल ने कहा निश्चित तौर पर भटकल बन्धुओं से...’’ (अमर उजाला, 9 दिसम्बर पृष्ठ 6)
 मुम्बई पुलिस आयुक्त का इण्डियन मुजाहिद्दीन और भटकल बन्धुओं पर इस आरोप का आधार आई.एम. द्वारा भेजा गया ई मेल था। ई मेल जांच की दिशा को भटकाने के लिये भी भेजा जा सकता है। इस पर हम बाद में चर्चा करेंगे। पहले घटना से सम्बन्धित अन्य समाचारों पर चर्चा करते हैं, जिसका सिलसिला विस्फोट के अगले दिन से ही शुरू हो गया। सभी समाचार इण्डियन मुजाहिद्दीन के ई मेल के आधार पर लिखे गए थे।
        7 दिसम्बर को लगभग शाम साढ़े 6 बजे हुए विस्फोट के बाद समाचार पत्रों के प्रकाशन में मुश्किल से कुछ घण्टे का समय रह जाता है। चारों ओर अफरातफरी और अफवाहों का माहौल है। इण्डियन मुजाहिदीन के ई मेल के अलावा कोई दूसरा सुराग नहीं है और उस ई मेल के प्रमाणिता की जांच अभी होना बाकी है। घटना स्थल पर कोई अवशेष न पाये जाने के कारण जांच का रूख भी तय नहीं हो पा रहा है। लेकिन अगले दिन के समाचार पत्रों में घटना को अंजाम देने वाले सम्भावित कई संगठनों का नाम आया उस में इण्डियन मुजाहिद्दीन के साथ आजमगढ़ की ओर भी उंगली उठाई गई। खास बात यह है कि उन्हीं संगठनों को शक के दायरे में रखा गया जिसमें मुस्लिम समुदाय पर आरोप आता हो। जैसे ...... ‘‘वैसे तो हाल फिलहाल अधिकारी हूजी और सिमी पर शक कर रहे हैं परन्तु इसमें लश्कर के हाथ होने का भी सन्देह है’’ (हिन्दुस्तान, 8 दिसम्बर पृष्ठ 15) उसी दिन के दैनिक जागरण में आजमगढ़ संस्करण में पृष्ठ 7 पर दो बड़ी खबरें छपीं। एक का शीर्षक था ‘‘आतंकियों का ठिकाना रहा है आजमगढ़’’ और दूसरे का ‘‘शक की सूई जनपद के फरार आतंकियों पर।’’ पत्र आगे लिखता है......... ‘‘रात 9 बजे जिन संदिग्ध लोगों को पुलिस ने वाराणसी में हिरासत में लिया है और जो कागजात उनके पास से मिले हैं उससे यह आशंका और मजबूत हो गई है कि विस्फोट के तार आजमगढ़ से जुड़े हैं। सूचनाओं के बाद ए.टी.एस. की एक टीम आजमगढ़ के लिये रवाना हो चुकी है।’’ अमर उजाला के उसी दिन पृष्ठ 14 पर हेडलाइन है ‘‘छः आतंकी अब भी फरार-कचहरी ब्लास्ट के आरोपी हैं दो आतंकी’’ इसी के साथ पिछले कुछ धमाकों और आजमगढ़ के गिरफ्तार और लापता युवकों की खबरें भी हैं। परन्तु उन धमाकों का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है जिनमें पहले सिमी या हूजी जैसे संगठनों पर आरोप लगा था और अंधाधंुध तरीके से मुस्लिम युवकों को गिरफ्तार भी किया गया। लेकिन बाद में कट्टर हिंदुवादी संगठन अभिनव भारत, सनातन संस्थान तथा संघ व उससे जुड़े अन्य संगठनों के सदस्यों के नाम प्रकाश में आये । गिरफ्तार मुस्लिम युवकों में से कई अब भी जेल में हैं और कई लापता। एक समाचार और जो प्रमुखता से सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ वह था भाजपा के बनारस बन्द का। भाजपा की यह प्रतिक्रिया जिस तीव्रता से आई उससे ऐसा प्रतीत होता है जैसे वह इसके लिये पहले से तैयार थी। इतने कम समय में घटना की पूरी जानकारी जुटा पाना आसान नहीं। वह भी आतंकी विस्फोट जैसे गम्भीर मुद्दे पर।
    यदि हम इसके बाद के समाचारों को देखें तो यह आभास होता है कि इण्डियन मुजाहिद्दीन के बहाने से संजरपुर और आजमगढ़ को टारगेट करने का एक अभियान चल पड़ा है। विस्फोट के बाद पहले ही दिन जिस प्रकार से आजमगढ़ का नाम आया उससे यह लगने लगा था कि कोई अज्ञात शक्ति जांच की दिशा को आजमगढ़ की ओर मोड़ने का प्रयास कर रही है। ‘‘आजमगढ़ से जुड़ रहे हैं वाराणसी विस्फोट के तार -दिल्ली पुलिस को शक विस्फोट में फरार आतंकी डा0 शाहनवाज और असदुल्ला’’ शीर्षक से अमर उजाला लिखता है ......... ए.टी.एस. ने दिल्ली पुलिस की थ्यूरी को अपनी जांच में शामिल कर लिया है (अमर उजाला, 9 दिसम्बर, पृष्ठ 6) । उसी दिन के दैनिक हिन्दुस्तान ने सीधे डा0 शाहनवाज या अन्य किसी पर शक की सूई नहीं घुमाई परन्तु  ’’नजरें फिर इण्डियन मुजाहिद्दीन परफ्’’ शीर्षक से प्रकाशित समाचार में डा0 शाहनवाज के नाम को हाईलाइट करने का प्रयास अवश्य मालूम होता है। पत्र लिखता है - ’’9 आरोपी पहले के वारदातों के बाद एजेंसियों के हत्थे चढ़ चुके हैं लेकिन डा0 शाहनवाज सहित 7 आरोपी सुरक्षा एजेंसियों के लिये सिर दर्द बने हुये हैं.....गिरफतार किया गया मो0 सैफ, डा0 शाहनवाज का छोटा भाई है। डा0 शाहनाज के बारे में जो जानकारी है उसके अनुसार 2006 में बिहार के सीवान जिले से बी.यू.एम.एस. की डिग्री प्राप्त कर लखनऊ के मेयो अस्पताल में काम कर चुका है, लेकिन 13 सितम्बर 2008 को दिल्ली ब्लास्ट के बाद से फरार है’’ (हिन्दुस्तान, 9 दिसम्बर पृष्ठ 3, आजमगढ संस्कारण)। 9 दिसम्बर को दैनिक जागरण ने अपने पहले पृष्ठ पर जो खबर छापी है उसमें तो लगभग डा0 शाहनवाज को बनारस विस्फोट का आरोपी बना ही दिया है। समाचार पढ़ने पर किसी को भी यही आभास होगा कि मामला हल हो चुका है और बस आधिकारिक घोषणा होनी ही बाकी है। शीर्षक है ‘‘शाहनाज का नाम आते ही सक्ते में संजरपुर’’ ...... खुफिया एजेंसियों ने शक की सूई यहां के डा0 शाहनवाज की तरफ घुमाई है, हांलाकि यह अभी स्पष्ट नहीं हो पाया कि शाहनवाज कौन और कहां का रहने वाला है। वैसे खुफिया सूत्रों की मानें तो डा0 शाहनवाज ही मंगलवार की शाम वाराणसी में गंगा आरती के समय हुये विस्फोट का सूत्रधार है और वह संजरपुर का ही रहने वाला है......। डा0 शाहनवाज के बारे में आई बी के हवाले से वाराणसी विस्फोट के पहले और बाद में भी यह समाचार छप चुका है कि वह शारजह पहुंच गया है। कितनी विचित्र बात है कि यहां उसके सम्पर्क सूत्रों का पता लगाने से पहले ही उसे सूत्रधार घोषित कर दिया गया। इस प्रकार के समाचार जांच एजेंसियों के लिये निमन्त्रण जैसे लगते हैं कि कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। संजरपुर और आजमगढ़ चले आइए, गुत्थी सुलझ जायेगी। इन समाचारों की विश्वसनीयता का अंदाजा दैनिक जागरण में प्रदेश सरकार के हवाले से प्रकाशित उस समाचार से किया जा सकता है जिसका शीर्षक है ‘‘अहम सुराग के लिये जी तोड़ मशक्कत’’। पत्र लिखता है......... ‘‘प्रदेश सरकार ने माना कि वाराणसी में मंगलवार को हुये आतंकी विस्फोट को लेकर उसे कोई सुराग नहीं मिल पाया है....... घटना को अंजाम देने वाले संगठन की पहचान नहीं हो सकी है.... घटना स्थल से बैटरी रिमोट कंट्रोल डिवाइस व छर्रे भी नहीं मिले हैं......... बृजलाल ने पत्रकारों को बताया कि ऐसा कोई सुबूत नहीं मिला है जिससे पुख्ता तार पर किसी आतंकी संगठन का नाम लेकर कहा जा सके कि उसने घटना को अंजाम दिया है.......... रासायनिक जांच करके यह पता लगाया जायेगा कि विस्फोट को अंजाम देने वाला आतंकी संगठन कौन सा हो सकता है। ......... वाराणसी विस्फोट के पीछे डा0 शाहनवाज की भूमिका होने की बाबत पूछे गये सवाल पर उन्हों ने कहा कि विस्फोट में डा0 शाहनवाज शामिल था या नहीं इस बारे में अभी तक कोई सुबूत नहीं मिले हैं और न ही ए.टी.एस. ने पूछताछ के लिये किसी को उठाया है’’ (दैनिक जागरण, 9 दिसम्बर, पृष्ठ 11) ।
    ए.डी.जी. उ0प्र0 के उपरोक्त बयान से यह बात बिल्कुल साफ हो जाती है कि किसी संगठन, व्यक्ति या स्थान विशेष का नाम लेकर उस समय तक प्रकाशित सभी समाचार आधारहीन थे। इसे मात्र कयास या अनुमान ही कहा जा सकता है। परन्तु इस आशय की खबरों को लेकर जिस प्रकार सभी अख्बारों में समानता पाई जाती है, उस पर सवाल उठना लाजमी है। वह अधिकारी, सुरक्षा एजेंसियां या खुफिया सूत्र कौन से हैं, जिनको उद्धृत करके यह एक तरफा समाचार प्रकाशित किए गए और लगभग सभी समाचार पत्रों में इन्हीं सूत्रों के हवाले से खबरें छपी। यह मात्र संयोग नहीं हो सकता। इसके पीछे अवश्य कुछ शक्तियां हैं जो लगातार समाचार माध्यमों को एक ही प्रकार के इनपुट्स दे रही हैं ताकि जांच को एक खास दिशा दी जा सके।
    9 दिसम्बर को इन सभी समाचार पत्रों ने वाराणसी विस्फोट पर लिखे एक सम्पादकीय, उन्हीं पत्रों में छपी खबरों से बिल्कुल अलग है। सम्पादकीय लेख काफी संतुलित हैं। इसकी सराहना इसलिये भी की जानी चाहिये कि इसमें ए.डी.जी कानून व्यवस्था के बयान की झलक भी है और निष्पक्ष जांच के लिये प्रेरित करने की सामग्री भी। इसके बावजूद डा0 शाहनवाज, संजरपुर और आजमगढ़ को लक्ष्य बनाकर छपने वाली खबरों का सिलसिला जारी रहता है। अमर उजाला (10 दिसम्बरख् पृष्ठ 2, आजमगढ़ ) में एक खबर का शीर्षक है ‘‘शाहनवाज संग तीन अन्य संदिग्धों की तलाश’’। उसी दिन दैनिक जागरण पहले पेज पर ‘‘धमाके में पकड़े गये तीन शाहनवाज के सम्पर्काें की तलाश’’ शीर्षक से लिखता है........ मंगलवार को हुये आतंकी विस्फोट के मामले में आजमगढ़ के डा0 शाहनवाज के खिलाफ रेड कार्नर नोटिस जारी होने के बाद से यहां उसके सम्पर्काें की तलाश शुरू हो गई है। गुरुवार की शाम तीन संदिग्धों को हिरासत में लिया गया है, जिनसे किसी अज्ञात स्थान पर पूछताछ चल रही है। ‘‘धमाके में आई.एम. के स्लीपर एजेन्ट का इस्तेमाल सम्भव’’ शीर्षक से हिन्दुस्तान (10 दिसम्बर, पृष्ठ 10) लिखता है........ वाराणसी में हुये बम धमाके को लेकर खुफिया विभाग (आई.बी) के हाथ पूरी तरह खाली हैं। आई.बी को अभी पुख्ता तौर पर यह पता नहीं है कि बम धमाके को अन्जाम किस आतंकी संगठन ने दिया है और उसका उद्देश्य क्या है।............... कामन वेल्थ खेलों से पहले मिले इनपुट्स के आधार पर दिल्ली पुलिस के अधिकारी मान रहे हैं कि इसके पीछे इण्डियन मुजाहिद्दीन (आई.एम.) का हाथ है, हांलाकि इस मामले में अभी तक दिल्ली पुलिस के हाथ में कुछ नहीं है।
    अगर इन सभी समाचारों का विश्लेषण किया जाय तो कई प्रकार के सवाल खड़े होते हैं। पहला तो यह कि डा0 शहनवाज और असदुल्ला को धमाके से जोड़ने का आधार क्या है? यदि इण्डियन मुजाहिद्दीन के ई मेल को आधार माना जाय तो आरोप रियाज भटकल और इकबाल भटकल पर जाता है, जैसा कि मुम्बई पुलिस आयुक्त के बयान से जाहिर होता है। दिल्ली पुलिस को कामनवेल्थ खेलों से पहले अगर कोई इनपुट्स मिले थे तो उंगली इण्डियन मुजाहिद्दीन पर जरूर उठती है, परन्तु उक्त दोनो युवकों को इस आधार पर जिम्मेदार मानने का कोई कारण नहीं दिखाई देता। इसके अतिरिक्त देश की सुरक्षा से जुड़ी इस महत्वपूर्ण जानकारी से दिल्ली पुलिस ने उ0प्र0 पुलिस को उस समय आगाह क्यों नहीं किया? दिल्ली पुलिस की बगैर किसी सुबूत के डा0 शहनवाज और असदुल्ला का नाम धमाके से जोड़ने में दिलचस्पी के अपने कारण हो सकते हैं। बटला हाउस काण्ड को लेकर उठने वाले सवाल और बाद में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा उसे फर्जी मुटभेड़ों की सूची में शामिल किये जाने पर अपने केस को पुख्ता बनाने के लिये वहां आरोपी बनाये गये युवकों के खिलाफ उनके आतंकवादी गतिविधयों में लिप्त होने के नवीन पूरक साक्ष्यों की जरूरत है। वाराणसी विस्फोट में डा0 शहनवाज या असदुल्ला को आरोपी बनाये जाने की सूरत में उसकी राह आसान हो सकती है। इसके अलावा अमर उजाला में चण्डीगढ़ से आशीष शर्मा की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई है जिसका शीर्षक है ‘‘कराची में रियाज और शारजाह में शहनवाज ने मिल कर रची साजिश’’, ’’ब्लास्ट के पीछे गजनी माड्यूल’’ रिपोर्ट में कहा गया है.......... बनारस ब्लास्ट के पीछे इण्डियन मुजाहिदीन (आई.एम.) के नये माड्यूल “गजनी” का हाथ है......इस बात के संकेत बनारस ब्लास्ट की जांच कर रहे एक अधिकारी ने दिये हैं। उनके मुताविक ’’बटला हाउस इनकाउन्टर के दौरान पकड़े गये आतंकी सैफ ने बताया था कि आई एम ने भारत में तबाही मचाने के लिये तीन माड्यूल बनाये थे। एक महाराष्ट्र और गुजरात के लिये, दूसरा साउथ के लिये और तीसरा उत्तर भारत राज्यों के लिये। पहले दो को ध्वस्त करने में गुजरात और महाराष्ट्र पुलिस ने सफलता प्राप्त कर ली थी लेकिन तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण गजनी का सुराग नहीं लग पाया था। इसे आपरेट करने की जिम्मेदारी आजमगढ़ के डा0 शाहनवाज के पास थी...’’ अधिकारी का यह भी कहना है कि बनारस धमाके से पहले करीब 25 सदस्यों ने रेकी की थी। इनमें वह भी शामिल है जो अहमदाबाद ब्लास्ट के बाद से फरार चल रहे हैं ( अमर उजाला, 13 दिसम्बर, पृष्ठ 18) । इस रिपोर्ट में भी डा0 शाहनवाज को कटघरे में खड़ा किया गया है, परन्तु रियाज भटकल के साथ। ऐसा लगता है कि दिल्ली पुलिस की थ्योरी और मुम्बई पुलिस आयुक्त के बयान में सामंजस्य उतपन्न करने का प्रयास करने वाली इस रिपोर्ट से मात्र बनारस धमाके का मामला ही हल नहीं हो जाता बल्कि उत्तर भारत में यदि भविष्य में ऐसी कोई वारदात होती है, तो उसकी जिम्मेदारी भी आसानी से इण्डियन मुजाहिद्दीन के इसी गजनी माड्यूल के सिर थोपी जा सकती है। रिपोर्ट में जिस गजनी माड्यूल का सुराग उस समय न मिल पाने की बात कही गई है उसका नाम गुजरात पुलिस महानिदेशक द्वारा उसी समय लिया था जब उन्होंने आई.एम. के अस्तित्व और उसे सिमी से जोड़ने का (सिमी के पहले एस. और बाद के आई को निकालकर) नाटकीय प्रस्तुतीकरण किया था।
    बनारस धमाके के बाद इण्डियन मुजाहिद्दीन समेत जिन संगठनों पर शक जाहिर करते हुये अधिकारियों, सुरक्षा एजेंसियों तथा खुफिया सूत्रों के हवाले से समाचार प्रकाशित एवं प्रसारित हुये उसमें आतंकवादियों का सम्बन्ध मुस्लिम समुदाय से होना ही जाहिर होता है। साधारण नागरिक के लिये इसमें एक बड़ा सवाल है। सम्भवतः इसके तीन प्रमुख कारण हो सकते हैं। पहला यह कि घटना के तुरन्त बाद आई.एम. ने ई मेल भेज कर विस्फोट की जिम्मेदारी कबूल की और इससे जुड़े आतंकियों का सम्बन्ध इसी समुदाय से माना जाता है। हांलाकि इस संगठन के अस्तित्व को लेकर लगातार संदेह व्यक्त किया जाता रहा है। दूसरा कारण विस्फोट का एक हिन्दू धर्म स्थल पर होना और तीसरा निहित कारणों से सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों में बैठे साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की कारिस्तानी तथा ध्रुवीकरण की राजनीति।
    जहां तक इण्डियन मुजाहिद्दीन द्वारा ई मेल भेजकर घटना की जिम्मेदारी लेने का सवाल है तो इसमें इस सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि जांच की दिशा को एक खास रुख देने के लिये किसी और ने इण्डियन मुजाहिद्दीन के नाम से यह ई मेल भेजा हो। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं जब विस्फोट करने वालों नें ऐसे प्रयास किये हैं, जिससे आरोप मुस्लिम युवकों पर लगने का मार्ग प्रशस्त हो सके। नान्देण में बम बनाते हुये बजरंग दल के कार्यालय में हुये विस्फोट में उसके कार्यकर्ताओं की मौत के बाद वहां से नकली दाढ़ी, टोपी और ऐसे वस्त्रों का बरामद होना जो आम तौर से मुस्लिम समुदाय में प्रचलित है ऐसे ही षड्यन्त्र का एक हिस्सा था। मालेगांव बम धमाके में जिस बाइक का प्रयोग किया गया और जांच के बाद जिसका सम्बन्ध प्रज्ञा सिंह ठाकुर से स्थापित हुआ उस पर ऐसे स्टीकर चिपकाये गये थे, जिससे विस्फोट में सिमी का हाथ होना साबित हो। आतंकी इस प्रयास में उस समय सफल भी रहे थे। कानपुर में बम बनाते समय हुये धमाके में विश्व हिन्दू परिषद के सदस्यों का मारा जाना और भारी मात्रा में गोला बारूद का बरामद होना एक महत्वपूण संकेत था कि उ0प्र0 में भी हिन्दूवादी संगठनों से जुड़े अतिवादी सोच के लोग सक्रिय हैं और इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम दे सकते हैं। यह घटना चूंकि उ0प्र0 में ही हुई थी इस लिहाज से पिछले धमाकों के उल्लेख में इसको अवश्य शामिल किया जाना चाहिये था। परन्तु किसी भी समाचार पत्र में यह देखने को नहीं मिला। इसी प्रकार यह मान लेना कि बनारस विस्फोट एक हिन्दू धर्मस्थल पर धार्मिक अनुष्ठान के दौरान हुआ इस लिये इसमें सनातन संस्थान, अभिनव भारत या संघ से जुड़े अन्य संगठनों के चरम पंथियों का हाथ नहीं हो सकता, गलत होगा।
यदि मक्का मस्जिद में ठीक जुमा की नमाज के समय हुये धमाकों का आरोप मुस्लिम युवकों पर आ सकता है और उनकी गिरफतारी भी हो सकती है, अजमेर शरीफ दरगाह में रमजान के महीने में अफतार के समय हुये धमाके के आरोप में मुस्लिम नौजवानों को हिरासत में लिया जा सकता है, मालेगांव जैसे मुस्लिम बाहुल्य नगर में आतंकी विस्फोट के बाद उसी समुदाय के लोगों को मुल्जिम बनाया जा सकता है तो दशाश्वमेध घाट पर हुये आतंकी विस्फोट मे पहले की आतंकी वारदातों मे शामिल हिन्दू संगठनों को शक के दायरे से बाहर रखने का औचित्य क्या है? वाराणसी घटना के बाद एक बार भी किसी ऐसे संगठन के सम्बन्ध में कोई भी खबर प्रकाशित नहीं हुई जिसमें उन पर शक की बात कही गई हो। अब इस बात को स्वीकार किया ही जाना चाहिये कि आतंकवाद की कोई आस्था नहीं होती। आतंकवादी न ही हिन्दू होता है न मुसलमान। वह सिर्फ आतंकवादी होता है। नफरत फैलाना और मासूमों का खून करना ही उसका मकसद होता है। वो यह काम मस्जिद, मन्दिर, मधुशाला या बाजार कहीं भी कर सकता है।
    किसी आतंकवादी घटना के पश्चात मीडिया के एक ही समुदाय से जुड़े संगठनों के प्रति आक्रमक रवैये के पीछे सबसे महत्वपूर्ण भूमिका सुरक्षा एजेंसियों, खुफिया विभाग और स्वयं मीडिया से जुड़े साम्प्रदायिक मांसिकता के लोग, मीडिया के बाजारवादी सिद्धान्त के साथ-साथ ध्रुवीकरण की राजनीति भी है। मक्का मस्जिद हैदराबाद, अजमेर शरीफ दरगाह और मालेगांव धमाकों के तुरन्त बाद भी इस प्रकार का माहौल बनाया गया था। समझौता एक्सप्रेस धमाकों के रहस्यों पर से पर्दा उठने के बाद तो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर भारत को शर्मिंदगियों का सामना करना पड़ रहा है। इन सभी धमाकों में मुस्लिम युवकों को आरोपी बनाकर केस के हल कर लेने का दावा किया गया था। गवाह और सुबूत होने की बात भी कही गई थी। निश्चित रूप से सुरक्षा एवं खुफिया एजेंसियों में बैठे साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की इस पूरी प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका थी। मीडिया से जुड़े इसी मानसिकता के लोगों का उन्हें भरपूर सहयोग प्राप्त रहा। महाराष्ट्र ए.टी.एस. प्रमुख के.पी. रघुबंशी पर ले.कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा सिंह ठाकुर को बचाने का आरोप लगता रहा है। आतंकी विस्फोट के आरोप में गिरफ्तार कर्नल पुरोहित से उनकी घनिष्टता भी कोई ढकी छुपी बात नहीं रह गई है। गुजरात में पुलिस कमिश्नर बंजारा समेेत कई अधिकारी फर्जी मुटभेड़ में आतंकवादी बताकर मुस्लिम युवकों और युवतियों की हत्या करने के आरोप में गिरफ्तार हो चुके हैं। यदि सघन जांच की जाय तो यह सूची काफी लम्बी हो सकती है। निःसन्देह उच्चतम स्तर पर इस तिकड़ी को राजनीतिक समर्थन भी प्राप्त था। ले.कर्नल पुरोहित और प्रज्ञा ठाकुर एण्ड कम्पनी की गिरफ्तारी के बाद संघ और भाजपा ने बहुत तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी। हेमन्त करकरे की खुलेआम आलोचना ही नहीं की गई बल्कि प्रत्यक्ष रूप से जांच को प्रभावित करने की गरज से उन पर दबाव भी डाला गया। हिन्दूवादी संगठनों की तरफ से उन्हें मुसल्सल धमकियां भी मिलती रहीं। ‘‘सभी मुसलमान आतंकवादी नहीं पर सभी आतंकवादी मुसमलमान जरूर हैं’’ जैसा बयान देने वाले भाजपा के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी जी के गुस्से को शान्त करने के लिये प्रधानमंत्री के सलाहकार ने उनसे मुलाकात भी की थी। यह सारी कवायद इसलिये थी कि असली आतंकवादियों को कानून के शिकंजे से बाहर निकाल कर आरोप मुस्लिम युवकों पर ही बना रहे और पूरे मुस्लिम समुदाय को दानव के रूप में प्रस्तुत कर हिन्दुओं में असुरक्षा की भावना को जागृत किया जाय। इस प्रकार राजनीतिक ध्रुवीकरण के लिये वातावरण तैयार किया जा सके। वाराणसी विस्फोट के बाद जिस तरह से इण्डियन मुजाहिद्दीन, डा0 शाहनवाज व असदुल्ला के साथ अन्य संगठनों का नाम बार-बार लिया गया। अब चाहे वह अधिकारियों व खुफिया सूत्रों के हवाले से हों या मीडिया में मौजूद साम्प्रदायिक मानसिकता के लोगों की अपने दिमाग की उपज। वाराणसी विस्फोट के बाद जिस प्रकार का वातावरण निर्मित करने की कोशिश की गई उससे यह सन्देह अवश्य पैदा होता है कि कहीं फिर वही कहानी दुहराने का षडयन्त्र तो नहीं रचा जा रहा है जो इससे पूर्व हैदराबाद, अजमेर, मालेगांव और समझौता एक्सप्रेस धमाकों के बाद किया गया था और इन्हीं धमाकों में संघ के प्रचारक इन्द्रेश कुमार जैसे लोगों के शामिल होने के समाचारों से जनता का ध्यान हटाने की साजिश हो रही है।
देश में जब भी कोई विस्फोट या आतंकी वारदात होती है तो भय और आक्रोश का माहौल पैदा हो जाता है। घटना के बाद खुफिया तन्त्र और सुरक्षा एजंेसियों की विफलता पर जनता में रोष होता है। सरकार की जवाबदेही और आतंकवाद से निबटने में उसकी इच्छा शक्ति पर सवाल उठने लगते हैं। जनता घटना को अंजाम देने वाले आतंकियों और उनके संगठन के बारे में जानना चाहती है। जाहिर सी बात है वह अपनी इस जिज्ञासा की पूर्ति के लिये लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ मीडिया की तरफ आकृष्ट होगी। इलेक्ट्रानिक चैनलों तक जिनकी पहुंच है और सौभाग्य से विद्युत आपूर्ति बाधित नहीं है तो उन्हें लगभग सभी चैनलों पर सनसनीखेज सूचनाएं तुरन्त मिलने लगती हैं। परन्तु ग्रामीण अंचलों में जहां लगभग दो तिहाई भारत बसता है, वहां लोग शायद इतने खुश किस्मत नहीं हैं। आकाशवाणी समाचारों में ऐसी घटनाओं की विस्तृत या यूं कहा जाय कि पुष्ट सूत्रों के हवालों से जन उपयोग की खबरों का प्रायः अभाव ही रहता है। इस वजह से यहंां के लोगों की समाचार पत्रों पर निर्भरता बढ़ जाती है। निजी सूत्रों के अतिरिक्त विश्वस्थ सूत्रों, विशेषज्ञों, जानकारों, खुफिया एवं सुरक्षा अधिकारियों को उद्धृत करते हुये उत्तेजनात्मक खबरों से भरे दैनिक समाचार पत्रों का ग्रामीण क्षेत्रों में बेसब्री से इन्तजार रहता है। लेकिन लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ के इस महत्वपूर्ण अंग में कई बार जनता तक सच्ची और तथ्यात्मक खबरें पहुंचाने के दायित्व निर्वाहन पर बाजारवाद का तकाजा हावी हो जाता है। खबरों में ऐसे तकाजों को पूरा करने की चेष्टा और पूरे घटनाक्रम को एक खास दिशा देने की कवायद नजर आती है। इसी के चलते तथ्यात्मक समाचारों में स्पष्ट भिन्नता और अनुमानित समाचारों में अद्भुत समानता देखने को मिलती है।

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