16 जून 2011

थर्ड डिग्री की कहानी, पत्रकार की जुबानी

जिदंगी कभी-कभी हमें इतना बेबस कर देती है कि हम मजबूत होने के बावजूद हालातों के सामने झुक जाते हैं और अपने स्‍वाभिमान को अपनी ही आखों के सामने तार-तार होता देखने को मजबूर हो जाते हैं। पत्रकार होने के नाते पुलिसिया कहर की कहानियां तो मैंने पहले से काफी सुन रखी थी, लेकिन इसके खौफनाक चेहरे से मेरा सामना बीते शनिवार (11 जून, 2011) की रात को हुआ।
पुलिस एक ऐसे मामले में, जिसमें मैं कहीं भी शामिल नहीं था, पूछताछ के बहाने शाम सात बजे उत्‍तरी दिल्‍ली के तिमारपुर थाने ले गयी। यहां पूरी रात मुझे बुरी तरह से शारीरिक और मानसिक तौर पर प्रताडि़त किया गया। यहां पूछताछ कम छीछालेदर ज्‍यादा हुई। थाने में मुझे बाथरूम के अंदर ले जाकर एक मेज पर लिटा दिया गया। मेरे हाथ-पांव को चार-पांच लोगों ने पकड़ लिया। उसके बाद एक कांस्टेबल ने मेरे चेहरे पर गीला कपड़ा रखकर जकड़ दिया और ऊपर से पानी डालने लगा। ऐसे में मेरी सांस कुछ क्षणों के लिए रुक गयी और मैं छटपटाने लगा। हाथ-पैर भी दूसरों की पकड़ में होने के कारण मैं हील-डुल भी नहीं पा रहा था। उस समय मैं न तो सांस ले सकता था और न ही छोड़ सकता था। मुझे ऐसा लग रहा था मानो नदी में डूब रहा हूं और किसी भी समय मैं खत्‍म हो जाऊंगा। यह अमानवीय उपक्रम मुझ पर बार-बार दोहराया गया।
हालांकि मुझे जिंदा रखने के लिए बीच में 5-10 सेंकेड के लिए छोड़ देते थे। उनके लिए इतना ही काफी नहीं था, इसलिए वे बीच-बीच में मुझे मेरी मां-बहन की गंदी गालियां देते जा रहे थे। इसके बाद मुझे उसी थाने में बस चलाने वाले एक ड्राइवर ने कई तमाचे जड़े। फिर फर्श में फैले पानी पर मुझे बाल पकड़कर घसीटा गया। मुझे दीवार से भेड़ दिया गया। इसके बाद मेरे गुप्‍तांगों में लगाने के लिए डीजल निकाल लाये। उन लोगों ने मुझसे अपना पैंट उतारने का कहा। यही वह पल था, जब मेरा स्‍वाभिमान तार-तार हो गया। मैं उन लोगों से हाथ जोड़कर उस ‘बात’ की माफी मांगने लगा, जो मैंने किया ही नहीं था। मुझे यह भी नहीं मालूम था कि मेरी यह दुर्दशा हो क्‍यों रही है। बस यही समझ में आया कि यदि इनके हाथ-पैर नहीं जोड़े तो अब तक जो हुआ है, उससे कहीं अधिक आगे मेरे साथ किया जाएगा। पुलिसवाले काम जल्‍दी खत्‍म करने की बात कह मेरे साथ यह घिनौना खेल खेलते रहे।
मेरे बार-बार हाथ जोड़ने पर भी उनका दिल नहीं पसीजा और वहां पर बैठा ड्राइवर मुझ पर चोरी और डकैती के झूठे केस ठोंकने को कहा। हालांकि उसी समय इस केस का इनवेस्‍टीगेटिव ऑफिसर वहां पहुंचा और और मुझे थाने के एसएचओ के पास ले गया। थाने में मुझे लाये अब तक अंदाजन तीन घंटे बीत चुके थे। पुलिस ने इसके बाद पूरी रात मुझे थाने में ही बंधक बनाये रखा। मेरी रिहाई सुबह 10 बजे के करीब संभव हो पायी।
अपनी दुर्दशा की वजह जब मुझे सुबह रिहाई के समय मालूम हो पायी, तो हतप्रभ था। मुझे उस मामले में प्रताड़ित किया गया, जिसमें मैं कहीं से भी शामिल नहीं था। टेक्‍नोलॉजी के उलझे जाल ने मुझे कथित ‘अपराधी’ बना दिया। वाकया यह था कि झारखंड की राजधानी रांची से किसी बड़े कारोबारी की लड़की कुछ दिनों पहले घर से भाग गयी। उस लड़की का नाम रानू सहदेव है, जिसका पता मुझे पुलिस की प्रताड़ना के दौरान चला था। घर से भागने के बाद वह लड़की दिल्‍ली के किंग्‍सवे कैंप इलाके में किसी गर्ल्‍स पीजी हॉस्‍टल में कमरा लेकर रहने लगी। उसी हॉस्‍टल में लखनऊ के डिग्री कॉलेज की मेरी एक सहपाठी प्रतिमा उपाध्‍याय भी रहती है। प्रतिमा अभी सिविल सर्विसेज की तैयारी कर रही है। वह मुखर्जी नगर के कोचिंग संस्‍थानों में पढ़ाई कर रही है। पढ़ाई में दखल से बचने के लिए प्रतिमा अपने पास मोबाइल हैंडसेट नहीं रखती, बल्कि एक सिम रखती है। उसे जब किसी से बात करनी होती है, तो वह अपने हॉस्‍टल की अन्‍य लड़कियों का मोबाइल हैंडसेट मांगकर उसमें अपना सिम डालकर बातकर लेती है। प्रतिमा ने एक दिन रानू के मोबाइल हैंडसेट से मुझे कॉल किया। वह किसके मोबाइल से कॉल करती है, मुझे इसका तो पता नहीं होता क्‍योंकि मौजूदा तकनीकी यह सुविधा नहीं देती। ये सब जानते हैं कि कॉल आने पर केवल सिम नंबर (मोबाइल नंबर) फ्लैश होता है। मेरी दुर्दशा यहीं से शुरू हो गयी। रानू का मोबाइल हैंडसेट चूंकि झारखंड पुलिस ने सर्विलांस पर लगा रखा था, ऐसे में प्रतिमा के नंबर के साथ मेरा मोबाइल नंबर झारखंड पुलिस के पास चला गया। झारखंड पुलिस का एक एसआई दिल्‍ली पुलिस के तिमारपुर थाने के सिपाहियों के साथ मेरे कमरे में शनिवार 11 जून की रात पूछताछ को आ धमके।
अपनी दास्‍तान आगे सुनाने से पहले मैं स्‍पष्‍ट कर दूं कि कि मैं भारतीय जनसंचार संस्‍थान यानी आईआईएमसी के 2007-08 बैच का छात्र हूं। आईआईएमसी के बाद मैंने बिजनेस स्‍टैंडर्ड में बतौर संवाददाता करीब दो साल काम भी किया। सिविल सर्विसेज की तैयारी के लिए अभी मैंने नौकरी छोड़ रखी है और मुखर्जी नगर के पास गांधी विहार में रहता हूं।
पुलिस जब मेरे कमरे में रानू की पूछताछ करने को आयी, तो मैं हतप्रभ हो गया। मैं किसी रानू को न तो जानता था और न ही कभी उसका नाम ही सुना था। मैंने उनसे कहा कि मैं अपने पक्ष से हरसंभव सहयोग करूंगा। पुलिस ने मुझे एक नंबर दिखाया और पूछा कि यह नंबर किसका है। मैंने उनसे कहा कि आजकल लोग नंबर याद नहीं रखते बल्कि कॉल करने वाले के नाम से सेव कर लेते हैं। पुलिस वाले इस बात पर उखड़ गये और मुझे गाली बकने के साथ बुरे मामले में फंसने की बात कहने लगे। मैंने उनसे कहा कि इस नंबर को मैं अपने मोबाइल से कॉल करता हूं, जिसका भी होगा पता चल जाएगा। मेरे मोबाइल में वह नंबर सेव नहीं था। पुलिस वाले कहने लगे की साले झूठ बोलता है। इस नंबर पर बात करता है और यह नहीं मालूम कि किसका है। पुलिस वालों ने जब मुझे उस नंबर से आयी कॉल का समय, डयूरेशन और तारीख दिखाई तो मैंने याद करके उन्‍हें यह नंबर प्रतिमा का होने का बताया। हालांकि मैं इसके बारे में पूरी तरह आश्‍वस्‍त नहीं था।
पुलिस वालों ने मुझसे प्रतिमा का पता पूछा तो मैंने कहा कि वह जीटीबी नगर के पास ऑट्रम लेन या हडसन लेन में कहीं रहती है। मैंने यह सच्‍चाई भी बयान की कि मैं वहां उससे मिलने कभी नहीं गया हूं। मुझे उसके घर की लोकेशन नहीं पता। पुलिस मेरी बात को मानने को बिल्‍कुल तैयार नहीं हुई। मैंने उनसे कहा कि मेरे ज्‍यादातर दोस्‍त फोन से ही संपर्क रखते हैं, क्‍योंकि सिविल सर्विसेज की तैयारी के चलते हमारे पास इतना समय नहीं होता। मिलना जुलना बहुत ही कम हो पाता है। दूसरी बात वह एक गर्ल्‍स होस्‍टल में रहती है, जहां कोई लड़का नहीं जा सकता। पुलिस वालों ने मुझे यही बात थाने में चलकर एसएचओ के सामने बोलने को कहा। उसने मुझे झांसा दिया कि आप तो पत्रकार हैं। यह केस सॉल्‍व हो, यह तो आपका दायित्‍व भी है। मैंने इस मामले को पूरा समझे बगैर ही हामी भर दी। मैं अब तक यही समझ रहा था कि प्रतिमा को कुछ हो गया है। खैर मैं थाने चलने को तैयार हो गया, लेकिन इसके पहले अपने दोस्‍तों को फोन करने की बात कही तो पुलिस वालों ने मेरा फोन छीन लिया।
पुलिस वाले जब मुझे थाने ले जाने लगे तो उनके तेवर देख मैं समझ गया कि थाने में मेरे साथ क्‍या होने वाला है। क्‍योंकि थाने ले जाते समय ही पुलिस वाले मुझे डराने-धमकाने के साथ गाली-गलौज भी कर रहे थे। थाने पहुंचने के बाद मेरे साथ कैसा जंगली व्‍यवहार किया गया, यह तो मैं पहले ही बता चुका हूं।
टॉर्चर करने के बाद इनवेस्टिगेटिव ऑफीसर मुझे एसएचओ के सामने जब लेकर गया, तो फिर मुझसे वही सवाल पूछा गया कि प्रतिमा कहां है। मेरा जवाब भी वही था कि मुझे उसका घर नहीं मालूम। बस यह मालूम है कि वह जीटीबी नगर में ऑट्रम या हडसन लेन में कहीं रहती है। इसके बाद एसएचओ ने मुझे फिर उसी कांस्‍टेबल के हवाले कर दिया, जो मुझे ऊपर प्रताडि़त कर रहा था। इस समय मुझे उस कांस्‍टेबल का नाम गौरव पता चला। साथ ही एक बात और पता चली कि प्रतिमा नहीं कोई और लड़की गायब है, जिसके पिता का राजनीतिक प्रभाव काफी तगड़ा है। एसएचओ के कमरे में रुकने के दौरान ही पुलिस महकमे के आला अधिकारियों के फोन बार-बार आ रहे थे, जो ‘आई वांट इमिडिएट रिजल्‍ट‘ कह रहे थे। इसी कारण अधिकारियों की नजर में अपना नंबर बढ़वाने के लिए कांस्‍टेबल गौरव मुझे बुरी तरह से प्रताडि़त कर रहा था। ठीक उसी समय ‍गौरव ने मुझसे गाली बकते हुए कहा कि अगर तू नहीं बताएगा तो मैं तो घर जाऊंगा नहीं, उल्‍टा तुझे रात भर तोड़ूंगा। मैंने कहा कि मैं पत्रकार हूं तो उसने कहा कि पत्रकारों की तो हम और भी पिटाई करते हैं। नमूना तू देख ही चुका है। तभी वहीं खड़े आईओ ने मुझसे कहा कि अब तो तुम तभी छूटोगे, जब प्रतिमा मिलेगी – नहीं तो इस केस के मुख्‍य अपराधी के तौर पर तुम अंदर जाओगे। अब तुम मुझे बताओ कि तुम मुझे प्रतिमा तक कैसे ले जाओगे। कुछ देर तक वो मुझे ऐसे ही डराते रहे। फिर नयी कॉल डिटेल्‍स के आधार पर मेरे और प्रतिमा के कॉमन दोस्‍त अखिलेश पांडे के बारे में पूछा, जो गुड़गांव में रहता है। फिर मुझे लेकर रात को 12 बजे के करीब अखिलेश के घर गुड़गांव ले गये। लेकिन अखिलेश का घर भी मुझे मालूम न होने के कारण पुलिस वालों ने मुझसे फोन करवाकर बहाने से उसे घर के बाहर बुलाया। फिर उसकी निशानदेही के आधार पर प्रतिमा के हॉस्‍टल का पता लगाने की नाकाम कोशिश की। अखिलेश को केवल प्रतिमा के हॉस्‍टल की गली ही मालूम थी। पुलिस ने वहीं मेट्रो स्‍टेशन के पास डेरा डाल दिया, क्योंकि अखिलेश ने पुलिस को बताया था कि प्रतिमा का सुबह सिविल सर्विसेस का पेपर दिल्ली में ही है।
प्रतिमा जब 12 तारीख को होने वाली यह परीक्षा देने जाने के लिए जब जीटीबी नगर मेट्रो स्‍टेशन पहुंची, तो वहां वह हमें दिख गयी। प्रतिमा से जब झारखंड से गायब हुई रानू सहदेव के बारे में पूछा गया, तो उसने बताया कि वह तो हॉस्‍टल में सो रही है। रानू अपने कमरे से हंसते हुए बाहर निकली। उससे हुई पूछताछ में पता चला कि सीबीएसई की बारहवीं परीक्षा में फेल होने के बाद परिवार से प्रताडि़त होने के डर से भाग गयी थी। उसके बाद टेक्‍नोलॉजी की भूलभुलैया में मैं निर्दोष यूं ही जौ में घुन की तरह पिस गया। इधर उसकी शातिराना मुस्‍कराहट पुलिस और उसके पिता को संतोष दे रही थी, तो मैं सोच रहा था कि आखिर मेरी गलती क्‍या थी, जो रात भर मुझे भुर्ता बनाया गया।
बहरहाल उस लड़की को उस हॉस्‍टल से बरामद कर उसके पिता के हवाले कर दिया गया। मुझे 12 की सुबह थाने ले जाकर एक सादे कागज पर मुझसे मेरा नाम, पता आदि लिखवाया गया। साथ में यह भी लिखवाया गया कि मै तिमारपुर थाने में पुलिस को सहयोग करने के लिए बुलाया गया था। अभी मैं स्‍वस्‍थ अवस्‍था में थाने से छोड़ा जा रहा हूं और आगे अगर पुलिस मुझे किसी पूछताछ के लिए बुलाती है, तो मैं थाने में जरूर हाजिर होऊंगा।
यह थी मेरी उस रात की कहानी, जिसमें मैं किसी ऐसे मामले में प्रताड़ित किया गया, जिसमें मैं न तो अपराधी था, न ही मेरे नाम पर कोई केस बनाया गया, न ही एफआईआर थी। बस मैं अपने बुरे नक्षत्रों के चलते भूतिया तकनीक का शिकार बना एक इनफार्मर था। सोचिए जब पत्रकार होकर मुझे अपनी रक्षा का मौका नहीं मिला और पुलिसिया कहर से खुद को बचा नहीं पाया तो अन्‍य अशिक्षित और निरीह लोग अपनी रक्षा इस पुलिस व्‍यवस्‍था में कैसे करेंगे। पुलिस की नजर में तो हर कोई अपराधी ही है, चाहे वह राह चलता इंसान हो आईपीएस का ख्‍वाब संजोये एक विद्यार्थी।

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