30 जनवरी 2013

हम बाजार के लोग


ऋषि कुमार सिंह

समय-समाज के मूल्यांकन में सांस्कृतिक स्थिति महत्वपूर्ण होती है। इसमें विखराव या संगठन के आधार पर इंसानी जेहन का अंदाजा किया जा सकता है। आज की समस्या है कि इंसानों के व्यवहार का भरोसा टूट रहा है। वह स्टॉक इक्सचेंज की तरह त्वरित लाभ-हानि के आकलन से गिरता-उठता है। यह स्थिति कैसे बनी ? क्यों स्थायित्व व भरोसे की जगह गति व अनिश्चितता ने ली है ? समझने के लिए उन तर्कों के पुनर्मूल्यांकन की जरूरत है, जिनके सहारे भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था का प्रमुख किरदार और प्रमुख बाजार बनाने का दावा था। दरअसल, प्रक्रिया और परिणाम के स्तर पर तुलना करें तो हम पायेंगे कि वह एक चाल थी, जिसने बाजार तो कायम किया ही, अगले चरण में हमारे जेहन के भीतर बाजार पैदा करने में सफलता पायी। जेहन में बाजार कैसे सांस्कृतिक स्वीकार्यता के साथ आया है, हम गेस्ट और पेइंग गेस्ट के बीच तुलना कर समझ सकते हैं। अब हम वाकई में एक बाजार के माफिक हर वक्त नफा-नुकसान के आकलन में जीते हैं। हमारे पास अपने नफे के खिलाफ सोच पाने का साहस या ऐसी किसी आशंका को बर्दाश्त करने का धैर्य नहीं है। भारत के लिखित संविधान की प्रस्तावना कहती है कि ‘हम भारत के लोग’ हैं, जिसे नई व्यवस्था में कह सकते हैं कि ‘हम बाजार के लोग’ हैं।

इंसानी जेहन के भीतर बाजार की घुसपैठ किसी छोटी योजना का हिस्सा नहीं कह सकते, इसे मेगाप्लानिंग जैसा कुछ कहना होगा। जिसका मेगाप्लानर अदृश्य है या फिर कई चेहरे वाला है। उस तक सीधी पुहंच न होने के बावजूद हम उससे सहमत हैं। अपने स्वभाव को उसके हित साधन के रूप में बदल रहे हैं। कुछ इस तरह समझते हैं। भारत व इसके पड़ोसी मुल्कों में संसाधनगत आत्मनिर्भरता है। अगर एकजुटता हो तो किसी भी मानव सभ्यता को जीने के लिए जितने साजो-सामान की जरूरत होती है, वे हैं और नहीं हैं, तो उनकी पूरी संभावना है। (उत्पादकता के आंकड़े देखे जा सकते हैं।) यदि इन मुल्कों के बीच विभाजन/टकराव मुख्य न हो, तो वे शेष विश्व से संबंध रखने के लिए बाध्य नहीं हैं। भारत में तो लम्बे समय तक समुद्र यात्राएं वर्जित और निंदनीय बतायी गईं, इसके बावजूद अगर लोग कब्जा करने यहां पर आये, तो संसाधनगत क्षमता की मजबूती समझी जा सकती है। अब ऐसे में यदि बाजार को इनके बीच जगह बनानी है, तो तय है कि इनकी आत्मनिर्भरता चुनौती है, क्योंकि आत्मनिर्भरता, प्रतिरोध का हौसला पैदा करती है। अब यहां मेगाप्लानर की मौजूदगी देखी जा सकती है कि वह कैसे इन मुल्कों के बीच क्षेत्रीय आत्मनिर्भरता की समझ पैदा होने से रोकता है या फिर उसे खंडित करता है।

मेगाप्लानर अपने काम के लिए कथित संप्रभु राष्ट्रों को ही साधन चुनता है, यह जानने से पहले पड़ताल कर लें कि मेगाप्लानर जैसी कोई व्यवस्था वाकई में है या नहीं ? भारत में उदारीकरण की प्रक्रिया को लेकर पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक समझ में कोई अंतर नहीं दिखता है तो क्यों ? जो फैसले कांग्रेस नीति सरकार के थे, भारतीय जनता पार्टी नीत सरकार उसी को आगे बढ़ाया। यहां तक कि कांग्रेस जिस काम को विभाग के जरिए कर रही थी, राष्ट्रवादी करने वाली भारतीय जनता पार्टी नेतृत्व में बनी सरकार ने उस काम को मंत्रालय (विनिवेश) बनाकर आगे बढ़ाया। अंतर तब सिमटता हुआ दिखा जब वामपंथी सरकार निजी कंपनी के लिए जमीन अधिग्रहण को लेकर वैसे ही आतातायी होती दिखीं, जैसे दूसरी राजनीतिक विचारधारा वाली सरकारें थीं। लिहाजा कह सकते हैं कि मेगाप्लानर जैसी व्यवस्था मौजूद है, जो तमाम विरोधी से दिखने वाले चेहरों के सहारे खेलने में सफल है।

तकनीकी के सहारे सूचना और ज्ञान के मामले में दुनिया एक ध्रुवीय हुई है। अमेरिका की आसूचना संबंधी घोषणाओं पर अन्य राष्ट्रों में उसकी प्रतिक्रिया को उदाहरण के रूप में ले सकते हैं। भारत में तो हालत यह है कि वाटर प्यूरीफायर तक के मानक तय नहीं किये गये हैं। अमेरिका के मानक ही निर्णायक हैं। वैश्विक उदारीकरण के बाद राष्ट्र-राज्यों की स्थिति मेगाप्लानर के नीचे काम करने वाले छोटे प्लानरों जैसी बन गयी है। भारत और पाकिस्तान इसके सटीक उदाहरण हैं। जहां घरेलू समस्याओं से निजात दिलाने में राज्य जैसी संस्था नाकाम है। गाहे-ब-गाहे धरना प्रदर्शन हो रहे हैं। जो बाजार के लिए ठीक नहीं हैं। छोटे प्लानरों (भारत-पाकिस्तान) के लिए जरूरी है कि वे ऐसा कुछ करें कि देश की जनता का ध्यान उनकी वास्तविक जरूरतों से हटे। जाहिर है कि दोनों देशों के पास सीमाएं हैं और वहां पर तैनात हजारों सिपाही हैं। देशभक्ति भावनात्मक मसला है और जनता अपनी भूख की मजबूरी को देशहित में उपवास घोषित कर सकती है, तो दो सिपाहियों की हत्या और शव के क्षत-विक्षत किये जाने को राष्ट्रीय अस्मिता का प्रश्न बना लिया जाता है। जबकि देश के भीतर पुलिस फर्जी एनकाउंटर में जिन लोगों का कत्ल कर रही है, उस पर ऐसा कोई माहौल नहीं बनता है। बेगुनाह जेल में सड़ते हैं और न्याय की गुहार चलती रहती है।

मानवता के खिलाफ अंधराष्ट्रवाद पनपा है। इसे स्थापित करने में मेगाप्लानर की सक्रियता है। कारण कि इसमें भावनात्मक प्रवाह है। जो किसी जगह की मूल समस्याओं को धूमिल करके छद्म समस्या व अभाव को प्राथमिकता के क्रम में ऊपर ला सकता है। खेल के जरिए इसे समझ सकते हैं। अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खेलों में जिस तरह से पैसा आया है और उसके मुकाबले उस खेल की मौलिकताएं पीछे हटी हैं। खेल-खिलाड़ी से ज्यादा राष्ट्र की पहचान उभरकर सामने आयी है। इसमें मेगाप्लानर प्रायोजक की भूमिका में दो टीमों को दो राष्ट्र और खेल के मैदान युद्धभूमि में बदल देता है। इस क्रम में अंधराष्ट्रवाद और दक्षिणपंथियों का अंतर्संबंध भी आता है। भारत के संदर्भ में, उदारीकरण के बाद ही दक्षिणपंथी राजनीति को फलने-फूलने का अवसर मिला। सत्ता तभी मिली, जब वैश्विक पूंजी का झोंका आया। दक्षिणपंथी रूझानों के नायक नरेंद्र मोदी में देश के पूंजीपति कई बार अपनी निष्ठा व्यक्त कर चुके हैं। अभी हाल में एक धनपति ने मोदी में प्रधानमंत्री की संभावना तलाशी है।

यहां पर सवाल आता है कि आर्थिक उदारीकरण के लिए छद्म पंथी पार्टियों ने पहल की और वे सत्ता पर काबिज क्यों नहीं रह सकीं या पहल का लाभ उन्हें मिलने के बजाय दक्षिणपंथी पार्टियों को क्यों मिल गया ? मामला कुछ इस तरह बना। ठोस प्रतिद्वन्द्वी होगा, तो संघर्ष की ठोस जमीन होगी और उसकी ठोस वजहें भी होंगी। अगर एकतरफा जीत सुनिश्चित करनी है, तो जरूरी है कि प्रतिद्वंद्वी की हर चाल से परिचय हो। ऐसे में अगर कोई अपना रचा प्रतिद्वंद्वी मैदान में आ जाये तो अपनी हार भी जीत से कई गुना फायदेमंद रहती। गलत कामों में चेहरा कम बदनाम होता है। जाहिर है कि ठोस जमीन पर नकली प्रतिद्वंद्वी विकसित करना मुश्किल था, इसलिए अंधराष्ट्रवाद की नकली जमीन पर नकली प्रतिद्वंद्वी तैयार किये गये। सत्ता में आने का मौका देकर उन्हें स्वीकार्यता दिलायी गयी। नकली प्रतिद्वन्द्वी इसलिए कहना वाजिब है क्योंकि सत्ता में आकर उन्होंने भी उसी काम को आगे बढ़ाया, जो हारी हुई पार्टी का एजेंडा था। हालांकि ऐसे किरदारों के सहारे एकतरफा जीत की लड़ाई चालू है।

भारत में कांग्रेस एकतरफा लड़ाई लड़ने के लिए जानी जाती है। भारतीय जनता पार्टी अंधराष्ट्रवाद की जमीन पर खड़ी नकली प्रतिद्वंद्वी की तरह का करती है। आंतरिक कलह और उसके अध्यक्ष पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों से भाजपा मुश्किल में थी, कार्यकर्ता असंगठित हो रहे थे (यदुरप्पा संस्करण), पूरे हालात में केन्द्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे का बयान गौर करने लायक है। जिसकी प्रतिध्वनि में निहित है कि सभी दक्षिणपंथियों ! भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एक हो। यही हुआ। सारे दंक्षिणपंथी और उनके समर्थक अपनी-अपनी खोल (कवच)-खाल तोड़कर सामने आ गये हैं। कुछ वैसे ही जैसे मुलायम की चुनौती पाकर सारे धर्मांध इकट्ठा हुए और बाबरी मस्जिद को गिरा दिया था। बीस साल बाद कांग्रेस की तरफ से शिंदे ने वही प्रयोग दोहराया है। मामला भावनात्मक है, इसलिए सोचने-विचारने के पेशे से जुड़े लोगों ने सोचने के लिए तैयार नहीं है। हिन्दी पत्रकार अचानक हिन्दू पत्रकार बन गये हैं। शिंदे के बयान पर कलम तोड़ने लगे हैं । अभी पिछले कुछ सालों में उन्हीं की नाक के नीचे से जब बेगुनाह मुस्लिम लड़के फर्जी तरीके से उठाये जा रहे थे, तो पूरी कौम को बदनाम करने की खबरों पर ठंड़े पड़े थे। यहां तक कि अब भी चुप ही हैं। उनकी न्याय की समझ से यह गायब है कि जिन-जिन मुस्लिम लड़कों की गिरफ्तारी को जांच आयोगों ने संदेहजनक पाया है, कम से कम उन्हें जमानत तो मिल जाये या अदालतों में अंतर्विरोधी सबूतों के आधार पर निर्दोष पाये गये युवकों के बारे में सरकार अपनी जवाबदेही ही तय करे।

अंधराष्ट्रवाद से जैसे को तैसा की शर्त पर सोचने वालों की संख्या में इजाफा हुआ है। मेगाप्लानर या उसके छोटे ठेकेदारों के हक में प्रतिक्रियावादियों की बढ़त कैसे लाभदायक है, यह भी जानना जरूरी है। किसी समाज के संगठित सांस्कृतिक संबंध फैसलों में लचीला बनाये रखते हैं। बात-बे-बात संबंधों को स्थायी गांठ देने से परहेज किया जाता है। यदि प्रतिरोध भी आता है, इस संभावना के साथ कि एकसा होने पर शर्मिंदा न होना पड़े। प्रतिक्रियावाद इसी लचीलेपन को तोड़ देता है। रिश्ते शुष्क व अस्थायी संबंधों में बदल जाते है। एकजुटता का अभाव आता है। भारत और पाकिस्तान उदाहरण लें, इनकी साझी विरासत रही है। यदि कभी सह-अस्तित्व को स्वीकार कर लें, तो उन असलहों का क्या होगा, जो इनकी खरीददारी को ध्यान में रखकर उत्पादित किये गये हैं या फिर उन पुराने साजोसामान का क्या होगा, तो मेगाप्लानर के दूसरी इकाईयों ने खाली किये हैं या जो उनकी मारक क्षमता की बढ़ोत्तरी के कारण अनुपयोगी हो गये हैं। तथ्य है कि दोनों मुल्क एक-दूसरे को लक्ष्य करके असलहों पर सबसे ज्यादा पैसा फूंक रहे हैं, तो उन्हें अंधराष्ट्रभक्तों और प्रतिक्रियावादियों का ही समर्थन मिल रहा है।

यही नहीं, भारत-पाक सीमा पर दो सैनिकों की हत्या और एक सैनिक सिर काट कर ले जाने की घटना के बाद जिस तरह कांग्रेसी सरकारों ने पाकिस्तान से आये नाट्य कलाकारों की प्रस्तुतियां रोकी, वह तो भारतीय जनता पार्टी की प्रतिक्रिया से भी ज्यादा खतरनाक दिखी। जयपुर जवाहर कला केन्द्र में नाटक को नहीं होने दिया गया। पाकिस्तान से आये नाट्य कलाकारों को दिल्ली रवाना कर दिया गया। दिल्ली में भारतीय नाट्य विद्यालय ने भी मंचन रोक दिया। इस भय से कहीं अंधराष्ट्रभक्त हंगामा करने न पहुंच जाय और रंग महोत्सव का माहौल बिगड़ जाये। बाद में, नागरिक प्रयासों से अक्षरा थियेटर व जेएनयू में पाकिस्तानी कलाकारों ने नाटकों का मंचन किया। वहां कोई अंधराष्ट्रभक्त हंगामा करने नहीं पहुंचा। दर्शकों की भी कमी महसूस नहीं की गयी। कुल मिलाकर देश के लिए दंक्षिणपंथी रूझान और उसका राजनीतिक नेतृत्व जितना खतरनाक है, उससे कहीं ज्यादा कांग्रेस जैसी छद्मपंथी पार्टियां भयाक्रांत करके अपना हित साधने में सफल होती हैं। भाजपा को निरंतर आगे बढ़ाने में कांग्रेस की भूमिका रही है। इसलिए जो लोग भारतीय जनता पार्टी को कांग्रेस से ज्यादा दक्षिणपंथी साबित करते हैं, उनसे निवेदन है कि स्वतंत्र भारत में हिन्दुत्व को एकीकृत करने वाले कब कौन से कदम किसने उठाये या पूरे मुद्दे को कब किसने चारे के रूप में इस्तेमाल किया है, इसकी पड़ताल अवश्य की जानी चाहिए। बाबरी मस्जिद विवाद में ताला खुलवाने से लेकर हिन्दू आतंकवादी कहने से जुड़े ताजे बयान के नेपथ्य में कांग्रेस मौजूद है।

कुल मिलाकर यह दौर इस मायने में बुरा है क्योंकि दोस्त और दुश्मन के चेहरों का घालमेल है। और इस बुरे दौर में ‘हम बाजार के लोगों’ को सोचना होगा कि ‘हम भारत के लोग’ होने की जरूरत क्यों हैं ?

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