वरुण गोंड
बढ़ते हुए शहरीकरण के साथ यह अवधारणा
स्थापित की गई कि इससे सामाजिक भेदभाव में कमी आई है। मगर महानगरों में या उसके आसपास बने उच्च शिक्षण संस्थानों में धार्मिक और
जातिगत वंचना की डरावनी तस्वीर नजर आती है जिसमें समाज के वर्चस्वादी ढांचे का
दुराग्रह साफ झलकता है।
प्रतिष्ठत कहे जाने वाले इन संस्थानों में
प्रवेश प्रक्रिया से लेकर पढ़ाई के दौरान तक ये भेदभाव अक्सर देखने को मिल जाते
हैं। इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में स्नातक कक्षाओं में प्रवेश के लिए
भरे जा रहे फॉर्म में भी दलित-आदिवासी और ग्रामीण इलाकों से आने वाले छात्रों को
शिक्षा से वंचित रखने की कोशिश की जा रही है। दिल्ली विश्वविद्यालय ने इस वर्ष से
ऑनलाइन फार्म भरने की व्यवस्था शुरू की है लेकिन यह सुविधा आरक्षित वर्ग से आने
वाले छात्रों को नहीं है। उन्हें फार्म लेने के लिए भी तमाम नियम-कायदे गढ़ दिए गए
हैं जिससे उन्हें अनेक तरह की दिक्कतों से गुजरना पड़ रहा है। अनुसूचित जाति,
अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को जाति प्रमाण पत्र दिखाकर फार्म लेना पड़ रहा
है, जिसके लिए दलील दी जा रही है कि इससे कोई शख्स एक साथ कई फॉर्म नहीं ले पाएगा
या फर्जीवाड़ा नहीं होगा। दूसरी बात, सामान्य श्रेणी के लिए फॉर्म वितरण की सुविधा
कॉलेजों के अलावा मेट्रो स्टेशन और डाकघरों में भी उपलब्ध है, जबकि आरक्षित वर्ग के
लिए कुछ गिने-चुने कॉलेजों में। जिसे इन्हें शिक्षा के अधिकार से बेदखल करने के
रूप में देखा जा सकता है।
अब जरा
सोचिए एक ग्रामीण इलाके की दलित-आदिवासी लड़की फॉर्म कैसे
भर पाएगी?
इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय हेल्पलाइन पर कॉल करने पर फोन उठाने वाली महिला आरक्षण को वंचित वर्ग की किस्मत बताती है गोया कि अहसान किया जा रहा हो। हालांकि ऑनलाइन फॉर्म भरने पर भी सवाले खड़े होते हैं क्योंकि असमान सामाजिक ढांचे के चलते कंप्यूटर तक सभी की पहुंच संभव नहीं हो पाई है और केवल ऑनलाइन आवेदन की व्यवस्था एक खास तबके तक ही नौकरियों और शिक्षा को सिमटा देने चाहते हैं। इसकी मार ग्रामीण इलाके के सामान्य वर्ग के बच्चों को भी झेलनी पड़ती है। हालांकि ऑन लाइन आवेदन केवल सामान्य छात्रों के लिए कर देने से कंप्यूटर जानने वाले छोटे शहरों के दलित-आदिवासी छात्र जो दिल्ली में पढ़ने का सपना देखते हैं, को किनारे किया जा रहा है। फॉर्म लेने के दौरान असली दस्तावेज मांगे जाने को फर्जीवाड़े को कारण बताया जा रहा है। जबकि फर्जीवाडे के ज्यादातर मामले जाली मार्कशीट या खेल कोटे से जुड़े रहे हैं।
इस पर दिल्ली विश्वविद्यालय हेल्पलाइन पर कॉल करने पर फोन उठाने वाली महिला आरक्षण को वंचित वर्ग की किस्मत बताती है गोया कि अहसान किया जा रहा हो। हालांकि ऑनलाइन फॉर्म भरने पर भी सवाले खड़े होते हैं क्योंकि असमान सामाजिक ढांचे के चलते कंप्यूटर तक सभी की पहुंच संभव नहीं हो पाई है और केवल ऑनलाइन आवेदन की व्यवस्था एक खास तबके तक ही नौकरियों और शिक्षा को सिमटा देने चाहते हैं। इसकी मार ग्रामीण इलाके के सामान्य वर्ग के बच्चों को भी झेलनी पड़ती है। हालांकि ऑन लाइन आवेदन केवल सामान्य छात्रों के लिए कर देने से कंप्यूटर जानने वाले छोटे शहरों के दलित-आदिवासी छात्र जो दिल्ली में पढ़ने का सपना देखते हैं, को किनारे किया जा रहा है। फॉर्म लेने के दौरान असली दस्तावेज मांगे जाने को फर्जीवाड़े को कारण बताया जा रहा है। जबकि फर्जीवाडे के ज्यादातर मामले जाली मार्कशीट या खेल कोटे से जुड़े रहे हैं।
समाजशास्त्री
विल्फ्रेडो परेटो ‘कंसेप्ट ऑफ द सर्कुलेशन ऑफ इलीट्स’ के अपने सिद्धांत में कहते हैं, समाज का अभिजात वर्ग अपनी सर्वोच्चता
कायम रखने के लिए तमाम साजिशें रचता है। ताकि उसकी प्रस्थिति बरकार रह सके और गरीब
तबका दूसरे छोर पर पड़ा रहे। इस क्रम में खुद को मुख्यधारा का कहने वाला समाज बड़ी
महीन सामाजिक लकीरें खींचता है। जिसका दूसरे समाज को हत्तोसाहित करने और उनमें
हीनता का भाव भरने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। लाखों वर्षों से दलित समाज को
गांव, शहर के दक्षिणी छोर पर बसने को मजबूर किया जाता रहा है। यह स्थिति आज भी कायम
है जिसमें कोई बदलाव नजर नहीं आता। यह लकीरें अब दूसरे रूप में बनाई जा रही हैं। उच्च
शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति के
उम्मीदवारों के लिए प्रवेश संबंधित बने अलग से काउंटर क्रम के लिहाज से अंतिम में
होते हैं जो इसके साक्षात सबूत हैं। जहां बैठे कर्मचारी बड़े अनमने ढंग से छात्रों
से पेश आते हैं। अमूमन अनेक शिक्षण संस्थानों में यह स्थिति देखी जा सकती है। आम
तौर पर माना जाता है कि सामंतवादी खांचे से निकलकर दिल्ली पहुंचे लोग अपने
पुराणपंथी के घेरे से बाहर आ जाते हैं या उससे उबरने की कोशिश करते हैं। मगर इस
महानगर में ये बात झूठी लगती है। अभी दिल्ली विश्वविद्यालय में पहुंचने पर छात्रों
की भीड़ में वंचित वर्ग के प्रति तरह-तरह की छींटाकशी सुनने को मिलेगी। आमिर खान
व्दारा विज्ञापित समस्या पर सत्यमेव जयते का शहरी दर्शक वर्ग बहस तो करता है।
लेकिन वह नई पीढ़ी को समरसता का बोध कराने की जिम्मेदारी से न केवल मुंह मोड़ता है
बल्कि दलित-आदिवासी समाज के खिलाफ मानसिक रूप से दुर्भावना को बढ़ावा देता है।
साभार: द हिंदू |
एक आदिवासी
छात्र का संघर्ष दाखिले की दौड़ में ही खत्म नहीं हो जाता। पढ़ाई के अलावा वार्षिक
परीक्षाओं में भी ये भेदभाव उजागर हो चुके हैं। शीर्ष मेडिकल कॉलेज, अखिल भारतीय
आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में पिछले साल हुई अनिल कुमार मीणा की मौत भेदभाव के
परतों को खोलती है जिसकी जांच में पुष्टी हो चुकी है। राजस्थान के किसान परिवार से
आने वाले अनिल राज्य शिक्षा बोर्ड के 12वीं कक्षा के टॉपर थे। लेकिन कहा गया कि
अंग्रेजी में उनके हाथ कमजोर थे। क्या यह हास्यास्पद नहीं लगता। दुराग्रह के चलते
देश ने एक होनहार छात्र खो दिया। उस दौरान बेटे का शव लेने दिल्ली आए अनिल के पिता
की पथराई आंखों में सिर्फ एक सवाल था, इसकी भरपाई कौन करेगा, जो अपने बेटे को
पसीने की एक-एक बूंद से पढ़ा रहे थे। इसकी जिम्मेदारी कौन लेगा?
इसी तरह कुछ
रोज पहले ही दिल्ली के वर्धमान मेडिकल कॉलेज में जाति के आधार भेदभाव का मामला
सामने आया है। एमबीबीएस 2004-2009 के 25 छात्रों को साइकोलॉजी प्रथम वर्ष की
परीक्षा में फेल दिखाया गया। जबकि अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति आयोग के आदेश के
बाद कॉपी की दोबारा जांच की गई तो छात्रों के अंक बेहतर पाए गए। इसके बाद छात्रों
की अपील पर दिल्ली हाईकोर्ट ने जांच के आदेश दिए हैं। बावजूद इसके संस्थान के
फांसीवादी रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया और इन छात्रों को छठे सेमेस्टर की
परीक्षा में बैठने नहीं दिया गया, जिससे वे एक बार फिर पाठ्यक्रम में पीछे रह गए।
क्या इसे दलित-आदिवासी छात्रों को पछाड़ने की साजिश नहीं कहा जाएगा। इस तरह के
आरोपों से जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय भी अछुते नहीं रहा है।
बहरहाल, दिल्ली
पूरे देश का प्रतिनिधित्व करती है और दुनिया इसे देखकर भारत के प्रति अपना दृष्टीकोण
तय करती है। मगर राजधानी में शिक्षण संस्थानों के हालात ऐसे हैं तो देश के दूरदराज
की तस्वीर कैसी होगी समझी जा सकती है।
पता :
सी-2, प्रथम
तल, पीपलवाला मोहल्ला,
बादली
एक्सटेशन, दिल्ली-110042
ईमेल-scribe.varun@gmail.com
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